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Ajnabee Raja

Abstract

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Ajnabee Raja

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पेंडुलम

पेंडुलम

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तुम 

उस वक्त इन दिनों 

को लौटकर देखना चाहोगी 

जब झुर्रियों से झुकी आँखे तुम्हारी 

मोतियाबिंद के साथ चश्मा लगाए हुए 

धुंधली तस्वीरों में 


पहचान लोगी किसी अखबार के

तीसरे पृष्ठ पर छपी मेरी तस्वीर 

और सबकी नजरें बचाकर

उसको कतरनें से काटकर कर लोगी अलग 

तुम ता उम्र सिखाती रहीं जो अपरिग्रह का पाठ

तूम खुद उस रोज 

चुराना चाहोगी लौटे वक्त को 


समय के पेंडुलम को ताकते हुए 

सोचोगी यह झूलता हुआ एक तरफ से दूसरी तरफ 

रुकता तो कितना अच्छा हो जाता 

तुम लौट आती पुराने समय में 

पर यह जाना और आना 


नियति पर आधारित होता हैं 

तुम यह भी जानती हो

यह नियति पेंडुलम की तरह 

झूलती रहती हैं 

तुम चाहती तो उस रोज़ 

पेंडुलम का नियम बदल सकती थी 


जिस बैंच पर बैठकर हमने साथ में चाय पी 

उसी जगह हमने राहें बदली 

जबकि हमारी राह एक थी 

हमारी मुलाकात से पहले राहे तय हुई 

पर नियति ने तय कर रखा था 

पेंडुलम का नियम 

उसका झूलना तय था

हमारा अलग होना भी कहीं तय था।


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