बागवाँ
बागवाँ
बेवजह देखते हो तुम क्यों नजर से नजर मिलाते हो,
शहर की इन गलियों में आज भी बस तुम नजर आते हो !
क्या खोया पाया था मैंने एक हँसीं से दिल लगाया था मैंने,
बंजर थी ये मेरे दिल की जमीं तुम बागवाँ कहलाते हो !
मचल-मचल जाता था दिल देख कर तेरी हँसी सूरत,
आज भी मैं देखूँ दर्पण उस दर्पण में तुम नजर आते हो !
जब भी बैठते थे तुम करीब मेरे मैं सारे गम भुला देता था,
आज भी जब मैं होता हूँ तन्हा तो तुम बहुत याद आते हो !
भूल पाया मैं नहीं तेरी नजर तेरा शहर तेरी गलियाँ कभी,
महफ़िलों में आज भी मुस्कुराते चेहरों में तुम नजर आते हो !
