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Shubhra Karn

Drama Tragedy

5.0  

Shubhra Karn

Drama Tragedy

बहुत बड़ा हूँ

बहुत बड़ा हूँ

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बहुत बड़ा हूँ

बहुत बड़ा हूँ मैं माँ,

तेरे आँचल में न समाऊँगा।

बहुत श्रेष्ठ हूँ मैं मां,

तुम्हारे समझ में न आऊँगा।


क्यों बार बार यूँ मुझको

अपने दर्द हो सुनाती,

क्यों बार बार तुम अपने

अपनों के लिए हो रोती ?


क्या फुर्सत नहीं है मिलती तुम्हें,

उन हँसी लम्हों को जीने की जिन्हें,

वक़्त-बेवक्त आँखों के शबनम

बनाकर रोती हो तुम ?


अक्सर जहाँ हो जाती हो गुम,

ख़ामोश, शुन्य सी असहाय गुमसुम।

माँ, मैं बहुत बड़ा हो गया हूँ

मैं जानता हूं दर्द छुपाना भी,

न हो फिर भी दीखाना भी।


गमगीन रहते हुए भी मज़ाकिया बनना

और मस्ती में भी ग़म का अभिनय करना।

मां, मैं सीख गया हूँ

मैं सीख गया हूँ माँ अब।


तेरे आँचल के बगैर जीना,

तेरी लोरी के बिना सोना,

तेरी छत्रछाया में जीना

और तुझसे ही नज़रें चुराना।


सब कुछ, सीख गया हूँ

पर माँ, तुझ जैसा सहना न सीख पाया

तुझ जैसा सहना न सीख पाया।।


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