मौन पसर गया है
मौन पसर गया है
मौन पसर गया है
अंतस में कहीं
दूर तक,
लहू उबल-उबलकर
हिमकणों सा जम गया।
समूल शिराओं में
औटकर सूख गया कलेजा,
विदीर्ण छाती में
नयनों के अश्रु
रेतकणों में तब्दील हो गए।
मरुस्थली आँखों में
सपने नहीं चमकते
मृगतृष्णा से अब
और प्रतीक्षा
कब तलक किसकी।
बंद करो सारे दरवाजे,
सिनेमाघरों-सा
नित्य बदलते
वास्तविक चित्रों में
कहानी वही, दृश्य वही
पीड़ाओं, चीखों का एहसास वही
बस पात्र बदलते हैं हर बार।
मूक दर्शक सा
मौन साधे
कुछ घंटों में मन को
बाँध लेने वालों
उठो, जागो
पिघला डालो
बर्फिले लहू को।
बना लो आँखों की रेत को
धधकती ज्वाला
और जला डालो
उस हैवानियत का समूचा वजूद
जो अट्टहास करता
रणनृत्य कर रहा।
कब तलक शांति के मनके का
जाप करोगे
अब काटना ही होगा
रक्तबीजों के शीश,
जागना ही होगा
इंसानियत के भीतर
छूपे अर्जुन, राणा, शिवा
और तमाम वीरों को।
आकुल हो पुकारती भारत भूमि
आओ ! आओ !
हे ! हे, उठाओ अस्त्र-शस्त्र।।