उन्मुक्त मेरी फ़कीरी
उन्मुक्त मेरी फ़कीरी
बीता सब कुछ भूल रही हूँ
मैं फिर से जीना सीख रही हूँ
भुला कर सारे गिले और शिकवे
स्वीकार करना सीख रही हूँ
उन्मुक्त फकीरी को जी रही हूँ..
आईने से जरा संभल रही हूँ
शायद दिल से निखर रही हूँ
नजरों को ही बना कर आईना
उसी आईने को चमका रही हूँ
उन्मुक्त फकीरी को जी रही हूँ
मन को अपने उजाला देकर
दीयों से रिश्ता जोड़ रही हूँ
बाती बनकर जलना भी पड़े तो
प्रकाश के समीप तो आ रही हूँ
उन्मुक्त फकीरी को जी रही हूँ
धड़कन को अपनी सुर बनाकर
संगीत से रिश्ता जोड़ रही हूँ
भावों को अपने स्याह बनाकर
आत्मज्ञान को लिख रही हूँ
उन्मुक्त फकीरी को जी रही हूँ
जीवन को मान पूर्ण समर्पण
परम से रिश्ता जोड़ रही हूँ
छोड़ कर सारे अहम और वहम को
आशाओं पर रुख मोड़ रही हूँ
उन्मुक्त फकीरी को जी रही हूँ
राग द्वेष को रख कर किनारे
मुस्कुराते मौन को पी रही हूँ
शून्य से शुरु, शून्य पर ही खत्म
सब कुछ शून्य पर छोड़ रही हूँ
उन्मुक्त फकीरी को जी रही हूँ
अपनी मौज में रहकर कर के अब
जीवन को खोजना सीख रही हूँ
निभाते हुए अपने हर कर्मों को
प्रारब्ध को इससे जोड़ रही हूँ
उन्मुक्त फकीरी को जी रही हूँ
ईश्वर का दिया जीवन है अनमोल
इस पर फक्र करना सीख रही हूँ
अनहद नाद को महसूस करके
अल्हड़ मस्ती सीख रही हूँ
उन्मुक्त फकीरी को जी रही हूँ
एकांत को अपने जी रही हूँ
सुकून से खुद को समझ रही हूँ
मेरे अंदर ही छुपा है मेरा रब
गुफ़्तगू उससे कर रही हूँ
उन्मुक्त फकीरी को जी रही हूँ