बेगैरतों की दरिंदगी
बेगैरतों की दरिंदगी
ढांक दिए वो पयमाने कशियो में,
समुंदर भी शर्मिंदा हो गया बेगैरतों की दरिंदगी देख कर,
सैलाब में उमड़ रही लहर बेवक्त की बारिश के रूप लेकर रो रही है।
बिलख बिलख कर नाइंसाफी का सिला मांग रही है।
कचोटती चिंघाड़ लगाती लहरें
कश्तियों को तिलमिला रही है।
कितनों के मां-बाबा उन बहू-बहनों के बेटियों के आंसुओं का सैलाब लिए समुंदर का पानी यूं ही नहीं नमकीन हुआ।
ये नमकीन पानी तब तक मीठा नहीं होगा जब तक लड़कियों की इज्ज़त को तार तार करना बंद नहीं होगा। दरिंदगी की मशाल जुलूस बन जलती रहेगी।
कभी ख़त्म नहीं होगा ये घिनौना खेल जब तक,
ख़ुद के ज़मीर अपनी हवस मिटाने को अपनी खुद बहन-बेटियों को उस वक़्त हालातों से लड़ने को दस्तक देकर कहते है क्यूं?
अगर ख़ुद दरिदंगी करने से पहले खुद को आवाज़ लगाएं कहे ख़ुद से ये मेरी बहन या बेटी तो ऐसा कही नहीं होगा।
इज्ज़त को कटघरे में खड़े होकर फिर सवालों से बलात्कार नहीं होगा।
क्यूं ज़मीर मर गया है तुम्हारा?
क्यूं हिफाज़त नहीं डर फैलाया है तुमने?
मर्द जात पर कलंक लगवाया है तुमने क्यूं?
अब कोई लड़की को यकीं नहीं आता मर्दों पर क्यूं?
खिलवाड़ करना सिखाया भी है तुमने?
भरोसे शब्द को चौराहे पर तंगवाया भी है तुमने क्यूं?
ख़ुद को पहचान मर्दों जात को ख़ुद ही चाहिए ऐसे दरिंदो को चौराहे पर टांग दे।
यूं मा-बहनों को क्या साथ देते उनका शर्म नहीं आती।
उनको खुद चाहिए ज़िंदा जला देना चाहिए उन दरिंदों को।