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Sulakshana Mishra

Abstract

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Sulakshana Mishra

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अलग सी दिवाली

अलग सी दिवाली

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आज शाम

दीवाली की सफाई में

मैंने आईने को देखा।

धूल जमी थी उस पर भी

न जाने कब से

उस धूल को मैंने

उस पर से हटा फेंका।

जो धूल हटी उसपर से

तो मैंने आईने में खुद को देखा।

न जाने कब काले घेरों ने

आकर था मेरी आँखों को घेरा।

किस बात की थी चिंता मुझको ?

क्यूँ चिंताओं की लकीरों ने

था यूँ मुझको घेरा ?

ये वक़्त का फेर था

या हालातों का था 

ये सख़्त सा पहरा ?

क्यूँ गुम थी आँखों की चमक ?

कब अंधेरों ने डाला अपना डेरा ?

बाहर थी दीवाली की रौनक

और अंदर था

खौफनाक सा अंधेरा।

मैंने सोचा कि

क्यूँ न कुछ नया कर जाएं।

आओ इस दीवाली को 

कुछ अलग सा मनाएँ।

अपने अंदर का ही नहीं

पूरे जग का अंधेरा मिटायें।

क्यूँ दीप जलें बस एक दिन

आओ, अब मन का दीप 

सदा के लिए जलाएं।

इस बार पटाख़ों के संग

मन का ग़ुबार भी

चलो जला आएँ।

आओ इस दीवाली को 

कुछ अलग सा मनाएँ।



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