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Arpan Kumar

Abstract

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Arpan Kumar

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हे मेरी मानिनी !

हे मेरी मानिनी !

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हे मेरी मानिनी ! अर्पण कुमार

चारों ओर वसंत का शोर है

पीले वस्त्रों में


लड़कियाँ और महिलाएँ

घूम रही हैं गलियों में

रास्तों पर पूरा परिवेश

ज्यों हो गया हो सुरभि-स्नात


पर मेरी ख़ुशियों के दरवाज़े को

किसी ने बाहर से बंद कर दिया है

मेरा आँगन सूना है

और दूर-दूर तक नहीं है वहाँ

किसी ख़ुशबू का डेरा


तुम अब आ जाओ

इन बंद पल्लों को हटाकर

मेरे समीप

कि और सज़ा मत दो


अपने इस प्रेमी को

कि कोई पीत-वसना

मुझे भी चाहिए

जिसे मैं देख सकूँ जी-भर


और दुनिया के कलरव में

शामिल हो पाऊँ मैं भी

कि उदासी

अब नहीं है स्वीकार्य


मेरे 'मनु' को

अब दरकार है कि

हमारी रब्त-ज़ब्त हो जाए !

कि अबके हमारा अभिसार


इस वसंत को कुछ ख़ास बना दे

कि इस बार हमारे प्यार के फूल

कभी न मुरझाने के लिए खिलें।


हे मेरी मानिनी !

हे मेरी श्रद्धा !

अब कभी न जाने के लिए

आ जाओ मेरे पास।


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