हे मेरी मानिनी !
हे मेरी मानिनी !
हे मेरी मानिनी ! अर्पण कुमार
चारों ओर वसंत का शोर है
पीले वस्त्रों में
लड़कियाँ और महिलाएँ
घूम रही हैं गलियों में
रास्तों पर पूरा परिवेश
ज्यों हो गया हो सुरभि-स्नात
पर मेरी ख़ुशियों के दरवाज़े को
किसी ने बाहर से बंद कर दिया है
मेरा आँगन सूना है
और दूर-दूर तक नहीं है वहाँ
किसी ख़ुशबू का डेरा
तुम अब आ जाओ
इन बंद पल्लों को हटाकर
मेरे समीप
कि और सज़ा मत दो
अपने इस प्रेमी को
कि कोई पीत-वसना
मुझे भी चाहिए
जिसे मैं देख सकूँ जी-भर
और दुनिया के कलरव में
शामिल हो पाऊँ मैं भी
कि उदासी
अब नहीं है स्वीकार्य
मेरे 'मनु' को
अब दरकार है कि
हमारी रब्त-ज़ब्त हो जाए !
कि अबके हमारा अभिसार
इस वसंत को कुछ ख़ास बना दे
कि इस बार हमारे प्यार के फूल
कभी न मुरझाने के लिए खिलें।
हे मेरी मानिनी !
हे मेरी श्रद्धा !
अब कभी न जाने के लिए
आ जाओ मेरे पास।