mujeeb khan

Romance

3.9  

mujeeb khan

Romance

ये वादा रहा

ये वादा रहा

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सुबह सुबह दरवाजे की घंटी से मेरी नींद खुली, घड़ी  देखी तो ६ बज रहे थे, कौन इतनी सुबह सुबह आया होगा? मेरा सारा शक दूध वाले पर  था "ये दूध वाले का भी कोई टाइम टेबल नहीं है" बड़बड़ाते हुए दूध का बर्तन लेकर दरवाजे की और बढ़ी जैसे ही दरवाजा खोला श्वेता को सामने  देख ख़ुशी के मारे उछल पड़ी.. "श्वेता तुम.... व्हाट ए सरप्राइज, कैसे, एकदम से, अचानक " मैने ख़ुशी के मारे एक के बाद एक सवालों की बौछार सी कर दी 

 "अरे।..दरवाजे पर ही सारे सवाल पूछ लोगी या अंदर भी आने को कहोगी" ,श्वेता हँसते हुए बोली 

 "अरे, हाँ  हाँ  आओ न" में सकपका सी गयी 

 "यार ऑफिस का एक काम निकल आया था तो सोचा चलो काजल से और तुमसे   से मिलना भी हो जायेगा ", श्वेता ने सामान उठा कर अंदर आते हुए कहा

 "अरे इन्फॉर्म तो करती "मैने थोड़ी नाराज़गी जताते हुए कहा  

"तो फिर तुम्हे सरप्राइज कैसे करती "? श्वेता हँसते हुए बोली 

"हाँ ये बात तो सही कही "इस बात पर हम दोनों हंसने लगे 

श्वेता मेरे कॉलेज फ्रेंड , मेरी सबसे ख़ास दोस्त, हर मुसीबत में मेरे साथ खड़ी रहने वाली, सगी बहिन से भी ज्यादा सगी. उसको यूँ अपने साथ पा कर लगा की पुराने दिन जैसे लौट आये थे.

"कितना हँसते थे न हम कॉलेज में,बेकार की बातों पर "श्वेता पुरानी बातें याद करते हुए कहने लगी 

"हाँ और हँसते थे तो हँसते ही चले जाते थे " मैने भी उसकी बात से हाँ में हाँ मिलते हुए बोला 

हम दोनों फिर से हंसने लगे 

हमारी हंसी से काजल की नींद खुल गयी थी शायद,

"माँ क्यों इतनी जोर जोर से हंस रही हो" आँखें मलती काजल कमरे से बाहर आयी 

मैने उसे आते हुए देख बोला "देख तो सही कौन आया है"

 "अरे मौसी", कहते हुए काजल भाग कर श्वेता से लिपट गयी,"कितने दिनों बाद आयी हो"

"हाँ बेटा ऑफिस के काम से छुट्टी ही नहीं मिलती" श्वेता ने उसको पुचकारते हुए कहा 

"छुट्टी मिलती नहीं है मौसी, लेनी पड़ती है" अच्छा अब बताओ कितने दिन हो मेरे पास ?" काजल ने लाड में आते हुए पुछा 

"बस बेटा  बस कल शाम को निकलूंगी "श्वेता का जवाब सुन काजल थोड़ी मायूस सी हो गयी, फिर कुछ सोच के बोली 'ठीक है अभी मैं  कॉलेज जा रही हूँ। शाम को मिलते है रात तो है न अपने पास, सारी रात बातें करेंगे ओ.के. ", कह कर काजल तैयार होने चली गयी

"बिलकुल अपने पापा जैसे बातें करती है काजल, वही शक्ल, वही तेवर, वही शरारत"..श्वेता काजल को जाते हुए देख कर बोली "वैसे तुमने बहुत प्यार से पाला है काजल को,कोई कसर नहीं छोड़ी, बहुत त्याग और बलिदान दिए तुमने" कहते कहते श्वेता थोड़ी संजीदा सी हो गयी, आगे कहने लगी  "एक बात कहूं प्रिया बुरा तो नहीं मानोगी"  

मैने कहा 'हाँ ,हाँ बोलो न" 

"तुमने बहुत कुछ सहा, बहुत कुछ किया सिर्फ एक पश्चाताप के लिए, और पश्चाताप भी उस जुर्म का जो तुमने किया ही नहीं, तुम काजल को अच्छे बोर्डिंग में डाल कर अपना एक नया जीवन शुरू कर सकती थी पर…………..

"नहीं श्वेता " मैं उसकी बात बीच में काटते हुए बोली "उसका बचपन मैं  उससे नहीं छीन सकती थी, उसको ये सजा मैं नहीं दे सकती थी, ऐसा मैं सोच भी नहीं सकती थी और इतने छोटे बच्चे को बोर्डिंग में डालना ज्यादती होती, फिर आकाश को दिया वादा निभाने की भी तो जिम्मेदारी थी" कहते कहते मैं यादों के समंदर में गोते लगाने लगी।...

कल  ही की तो बात लगती है शहर के एक प्रेस्टीजियस फैशन डिजाइनिंग कॉलेज में मेरा दाखिला होना, पूरे परिवार के लिए एक अचरज भरे गर्व  की बात थी, मैं  हमेशा से ही फैशन डिज़ाइनर बनना चाहती थी, पर मिडिल क्लास फॅमिली ,पिता एक सरकारी महकमे में क्लर्क, एक छोटा भाई, किराये का मकान और सीमित आमदनी  ये सब के होते मेरे सपने का पूरा होना असंम्भव सा ही प्रतीत होता था और तो और उस वक़्त मध्यमवर्गीय परिवार के बच्चे ऐसा प्रोफेशन चुनने का सोच ही नहीं सकते,और समाज भी  ऐसा नहीं था, लड़किया खास तौर पर टीचर या नर्सिंग का कोर्स ही चुनती थी मुझे अच्छे से याद है जब मैने पिताजी को इस बारे में बताया तो उन्होंने सीधे सीधे कहा था " टेलर बनोगी ,.बी.ए. करो और घर का काम काज  सीखो यही तुम्हारे काम आएगा और ऐसा  कोर्स कराने  की  मेरी माली क्षमता  नहीं है" पर माँ ने मुझे पूरा सपोर्ट किया और पिताजी को मना ही लिया. और मैं निकल पड़ी अपने सपनो का संसार बसाने पर ये राहें इतनी आसान न थी । 


फैशन डिजाइनिंग एक तो वैसे ही हाई प्रोफाइल, अपर क्लास वर्ग का प्रोफेशन और ऊपर से  शहर का नामी कॉलेज, पहले दिन बड़ी ही नर्वस थी, कॉलेज में घुसते ही वहां का माहौल देख नर्वसनैस और बढ़ गयी, लड़के लड़कियों के फैशनेबल   ड्रेसेस और हाव भाव देखते ही बनते थे, जैसे कोई फैशन परेड हो रही हो, बिलकुल फ़िल्मी कॉलेज जैसा माहौल, डरते डरते रिसेप्शन पर पहुंची और वहां बैठी मैडम से पुछा "मेम फर्स्ट ईयर की क्लास कहाँ लगेगी, मेम ने साइड में लगे नोटिस बोर्ड की तरफ इशारा कर दिया, बोर्ड पर लगी लिस्ट में फर्स्ट ईयर का रूम का नंबर देख कर क्लास रूम की तरफ चल पड़ी, मन मे बड़ी उलझन थी, रह रह कर मन में कई तरह के सवाल घूम रहे थे ।  इस माहोल में ढल पाऊँगी या नहीं? मेरे जैसा कोई मिडिल क्लास नार्मल लुकिंग तो कोई दूर दूर तक  नज़र ही  नहीं आ रहा था, एक बार तो ख्याल आया की लगता है गलत डिसिशन ले लिया। पर अचनाक से मां और बाबूजी का चेहरा आँखों के सामने घूम गया, कितने सपने होंगे दोनों के मुझको को लेके, कितनी मुश्किलों से उन्होने मेरे एडमिशन के लिए पैसों की व्यवस्था की थी, माँ ने कितना संघर्ष करा मेरे इस डिसिशन को अमली जमा पहनाने में, ये सोचते ही ज़िम्मेदारी का एहसास होने लगा और ये सब  सोचते सोचते क्लास रूम तक पहुंच गयी. बाहर खड़े खड़े थोड़ा ठिठकी, पर फिर भगवान का  नाम लेकर अंदर चली गयी, बड़ा सा क्लास रूम ,सीढ़ीनुमा सिटींग अरेंजमेंट,प्रोजेक्टर, ए.सी. प्रोजेक्टर सिस्टम,ऐसे क्लास रूम तो अब तक   सिर्फ फिल्मो में ही देखे थे, मेरी धड़कने और बढ़ गयी थी,  क्लास में घुसते ही सामने की लाइन में कोने की सीट पर लपक के जा बैठी, थोड़ा नार्मल हुई तो आसपास नज़र घुमाई, कुछ स्टूडेंट्स झुण्ड में बैठे थे जो शायद पहले से ही एक दूसरे को  जानते थे, कुछ इक्का दुक्का लोग छितराये से यहाँ वहां बैठे थे, मैंने अपनी नोटबुक और पेन निकाला और क्लास शुरू होने का इंतज़ार करने लगी, धीरे धीरे क्लास की जनसँख्या बढ़ने लगी, कुछ अपने जैसे लोगो को आता देख थोड़ी सांस में सांस आयी, उन्ही लोगो में से एक लड़की मेरे पास आ कर आ कर बैठ गयी, मुस्कराहटों के आदान प्रदान के बाद एक दूसरे से पहचान का सिलसिला हुआ,मैने उसकी और देख के कहा "हेलो मैं प्रिया" वो मुस्करा कर बोली "हाय मैं श्वेता ".  बातों बातो में लगा श्वेता से अच्छी पटेगी और हुआ भी ऐसा ही और हम क्लास शुरू होने से पहले ही अच्छे दोस्त बन चुके थे.


पहली क्लास  इंट्रोडक्ट्री क्लास थी  उसके बाद ब्रेक हुआ, ब्रेक में हमारे जैसे कुछ और मिडिल क्लास लोगो से मुलाकात हुई पर उनमे से अली, विकास और रानी से हम लोग थोड़ा ज्यादा हिल मिल गए.  ब्रेक के बाद पूरी क्लास कमोबेश दो ग्रुप्स में बंट चुकी थी, अपर क्लास और मिडिल क्लास या हिंदी मीडियम और इंग्लिश मीडियम। और जैसा की होता है अपर क्लास वालो का ध्यान पढाई पर कम और मौज मस्ती पर ज्यादा था, पर हम लोग के ऊपर दो साल में अच्छे मार्क्स लेकर एक अच्छी सी नौकरी पकड़नी थी जिससे हम घर की कुछ ज़िम्मेदारियाँ निभा सके और अपने सपनों को पूरा कर सके. अपर क्लास वाले लोग हम पर ताने कसने और मज़ाक उड़ाने का कोई मौका नहीं छोड़ते थे, पर धीरे धीरे हम लोग लोग इस माहौल में ढलने लगे और वक़्त बीतने लगा । इधर घर पर माँ की तबियत ख़राब रहने लगी और मेरे ऊपर घर के काम काज की ज़िम्मेदारी भी आ गयी, मैं दोनों चीज़ो में ताल मेल बिठाने की कोशिश करने लगी। 

 उस दिन सुब्रमणियम  सर  जो की हमारे कॉलेज के डीन भी थे उनकी  क्लास में प्रेजेंटेशन थी माँ की बीमारी की वजह से सारी रात ठीक से सो नहीं पायी न ही तैयारी ढंग से कर पायी. जाने क्या सोच के आधी अधूरी  तैयारी के ही प्रेजेंटेशन दे दी थी, बहुत डांट पड़ी सर से, खिल्ली उड़ाई थी मेरी सारी क्लास सामने, "तुम जैसे लोग बने ही नहीं हो इस प्रोफेशन के लिए, " pull up your socks or go home " उनकी ऐसी बातें सुन कर बेइज़्ज़ती सी महसूस कर रही थी, दिल रोने को कर रहा था, बड़ी मुश्किल से अपने आप को संभाल के अपनी सीट पर जा बैठी, पर क्लास ख़त्म होते ही आंसूओं का सैलाब बह निकला, दूसरे ग्रुप को अच्छा मौका मिल गया ताने, तंज कसने का। कुछ आवाज़ें जैसे की " कहाँ कहाँ से आजाते है लोग", "इनको कोई समझाता क्यों नहीं की यह प्रोफेशन इन लोग के लिए बना ही नहीं", "ब्लूडीफूलस"… जैसी आवाज़ें कानो में पिघलते सीसे की भांति लग रही थी. अली, श्वेता सब के सब मुझे चुप कराने में लगे हुए थे,कुछ और लोग भी हिंदी मीडियम ग्रुप के वहां सहानभूतिवश मेरे इर्द गिर्द खड़े थे, पर धीरे धीरे सब क्लॉस के बाहर निकल गए बस रह गए तो श्वेता, अली,विकास और रानी। 

 "इन आसुओं को यूँ ज़ाया न करिये " पीछे से अचानक आयी इस आवाज़ से मेरा रोना भी एक बार रुक सा गया। 

 "आंसु अगर ज़मीन पर गिर जाये तो ज़ाया हो जाते  हैं , पर अगर इसे पी जाएं  तो ये उस  आग को सींच देते  है जो हर शख्श के दिल में जलनी  ज़रूरी है,  इस मटेरिलिस्टिक, सेल्फिश और मौकापरस्त  दुनिया से लड़ने के लिए,अपने को साबित करने के लिए। इनको अपनी कमज़ोरी नहीं ताक़त बनाओ " 

"लड़ाई बस डटे रहने की है, हिम्मत मत हारो, जितना ये दुनिया तुम्हे नीचे दिखाए उतना ही ऊपर देखने की कोशिश करो, दुःख और गुस्से को  अपनी शक्तियां  अपनी ताक़त बढ़ाने के लिए इस्तेमाल करो , और मौका आने पर दिखा दो इस रंगबदलती दुनिया को क्या चीज़ हो तुम" 

उसकी इन बातो से बड़ा सुकून मिला, पर कौन है ये, पहले तो कभी नहीं देखा, पास आकर वो बोला ""उठिये अब बैठने का वक़्त नहीं है, वक़्त है इन आँसुओं को पीकर उठ खड़े होने का"। मैने नज़र उठा कर उसकी और देखा, मुस्कराता हुआ चेहरा, लम्बी कद काठी, न जाने क्यों उसकी बातों पर विश्वास करने का मन हो रहा था, मेरे आंसू खुद ब खुद रुक गए, वो मुस्करा कर चला गया और मैं उसकी और देखती रह गयी।सब आपस में पूछने लगे यार ये है,कौन अली ने बताया ये आकाश है अक्सर लास्ट की बेंच पर बैठता है।सभी ये कह रहे थे यार कभी नोटिस नहीं किया, पर उसकी बातों में दम था ये तो सब एक्सेप्ट कर रहे थे 

अभी तक मैने उसे नोटिस नहीं किया था पर अब नोटिस करने लगी थी, वो एक मस्त मौला टाइप था,औरों से बिलकुल अलग,किसी ग्रुप में न होकर भी वो सब में था, साथ रह कर अलग और अलग रह कर साथ रहने का हुनर उसे दूसरों से अलग बनाता था।उसका स्टाइल बिलकुल अलग था, वो कभी लाइब्रेरी की खिड़की में पैर फैलाये बैठा पढ़ते मिल जाता था, या स्कूटर स्टैंड में खड़ी किसी बाइक की सीट पर लेट कर धूप सेकते हुए या कैंटीन में ब्रेड में समोसा लगा कर खाते हुए देखा जा सकता था। अक्सर जीन्स ,टीशर्ट और कोल्हापुरी चप्पल  की साधारण ड्रेसिंग और उसके इस तरह का जीवन शैली का कई लोग मज़ाक भी उड़ाते थे,पर उसे  रत्ती भर भी  फर्क नहीं पड़ता था। उसकी ये यूनिकनेस ही उसे सबसे अलग बनाती थी. उस दिन उसकी दिल छू लेने वाली तस्सली ने मेरे मन में उसके लिए एक सॉफ्ट कार्नर बन दिया था मैं उसे अब नोटिस करने लगी थी,सुबह कॉलेज में नज़रे मिलने पर हैलो हाय होने लगी, हमारा ग्रुप भी उसे उस दिन के बाद से पसंद करने लगा और वो भी कभी कभार हमारे ग्रुप में आने लगा था। 

जब उसे नोटिस करने लगी तो पाया की उसकी इस बेफिक्री में एक फ़िक्र थी, उसकी इस बेपरवाही में भी एक परवाह थी,सिंपल सी दिखने वाली उसकी इस लाइफ में एक काम्प्लेक्स सा ऐम था, उसकी लम्बे लम्बे डग भरने वाली चाल बताती थी की उसे अपने लक्ष्य को पाने की जल्दी थी शायद

"आकाश"………………. जैसा उसका नाम था वैसे ही उसका व्यक्तित्व था विस्तृत, विराट, अपने में ब्रह्माण्ड समाये पर फिर भी एक शुन्य सा सूनापन, सबको अपनाने वाला,सबकी मदद को हमेशा तत्पर, पर अपने में ही खोया रहने वाला, उसका हमारे ग्रुप में अब रेगुलर आना होने लगा, मुझे उसका आना पहले भला लगता था फिर अच्छा लगने लगा और फिर मैं  उसका इंतज़ार करने लगी और ये शायद शुरुआत थी दिल के किसी ऐसे कोने की भावनाओं की जो शायद अब जवान होने लगी थी। 

 श्वेता शायद मेरी फीलिंग्स को समझ गयी थी और एक दिन मेरी इंतज़ार करती आंखों को देख कर शरारत भरी हंसी से पूछ बैठी "किसको खोज रही हो, कहीं आकाश से प्यार तो नहीं करने लगी ?" मैंने अपनी शर्माहट और झेंप छुपाते हुए कहा " धत  पगली ! ही इज जस्ट ए फ्रेंड,गुड फ्रेंड बस,  सबका ही है,सब लोग ही उसका इंतज़ार करते है, और रही बात प्यार की, टाइम कहा है इन सब के लिए, यहाँ की पढाई, माँ की देखभाल, राजू का होमवर्क, पिताजी का खाना पीना दिन कहाँ जाता है पता ही नहीं चलता।  वैसे ये सब कह कर मैं  श्वेता को नहीं अपने मन को समझा रही थी, अपने आप से कह रही थी ,पर शायद शुरुआत हो चुकी थी उस चीज़ की जिसका डर था, भगवान् ने भी इंसान को क्या खूब बनाया है दिल और दिमाग दोनों दे दिए, दिल जो कहता है दिमाग नहीं मानता और दिमाग की दिल नहीं मानता और दिल में जब  भावनाएं  उमड़ने लगती है तो फिर तो इंसान कहीं का नहीं रहता, और मैं शायद उसी अवस्था में आ गयी थी, दिल और दिमाग अलग अलग सोच रहे थे, दिमाग तार्किक बात कर रहा था और दिल में सुनहरे सपनो की दस्तक हो रही थी , मैं दिल की सुन रही थी और दिल की बातों में आने लगी थी। 

आकाश से मिलने के बहाने ढूंढ़ने लगी थी मैं, कई बार खुद से पूछती थी की क्या हो गया है मुझे, क्या कर रही हूँ मैं,पर दिल था की मानता नहीं था, आकाश के लाइब्रेरी के टाइमिंग्स को मैने अपने टाइमिंग्स से मिला लिया, धीरे धीरे बात बढ़ने लगी, मुलाकातें बढ़ने लगी, बातों बातों मे पता लगा की उसके पिता फौज मे है, इकलौती संतान होने के बावजूद पिता से उसकी नहीं बनती थी क्यूंकि पिता उसे फौज में भेजना चाहते थे पर उसका मन लगता था रंगों में, डिजाइनिंग में ,जब उसने फैशन डिजाइनिंग कोर्स के बारे में अपने पिता को बताया था उन्होने भी बिलकुल वही बात कही जो मेरे पिता ने कही थे " टेलर बनोगे " जब मैने उसे ये बताया  तो बहुत ज़ोर से हंसा और कहने लगा  "शायद सारे मिडिल क्लास पिताओं के दिमाग में एक ही सॉफ्टवेयर डला हुआ है ", उसके इस गजब सेंस ऑफ़ हुमूर पर बहुत हंसी आयी थी मुझे । इसके अलावा भी बहुत सी बातें हमारी मिलती जुलती थी, वो हमेशा कहा करता था की अपनी कमजोरियों को ताक़त में बदल डालो, वो मुझे पढाई में भी मदद करने लगा, प्रेजेंटेशंस बनाने से लेकर कैसे देनी है, सब उसने मुझे सिखाया । उसकी बातें न जाने क्यों भली लगने लगी,वो मुझे ज़िन्दगी के फलसफे समझाता था, मोटीवेट करता था, कहीं न कहीं उसने मुझे आने वाली ज़िन्दगी के लिए तैयार कर दिया था, एक कॉंफिडेंट सोच विकसित हो गयी थी मेरी, मैं अपने आप पर विश्वास करने लगी थी, एक मिडिल क्लास लड़की जिसके ज़ोर से हॅसने पर पाबन्दी थी,नज़र नीचे कर के चलने की हिदायत थी वो आज ठहाके लगाना और लोगो से आँख से आंख मिलाना सीख गयी थी, ये सब उस ही की तो बदौलत था। 

आकाश की वजह से ही नेक्स्ट सेमेस्टर में मैंने सुब्रण्यमानियम सर की क्लास में जब प्रेजेंटेशन दी तो क्लासरूम तालियों से गूँज उठा था सर ने भी मुझे कॉन्ग्रैचुलेट किया था, मेरे में एक पॉजिटिव बदलाव होने के साथ साथ प्यार की जड़े भी मजबूत होने लगी थी, मैं सपने देखने लगी थी पर कभी कभी अनजाना सा डर मन में आता था... कहीं... सपना टूट न जाये ? पर "उम्मीद"    एक ऐसी भावना भगवान ने  हम इंसानो को दी है जो असंभव से दिखने वाले  हमारे टूटे फूटे, आधे अधूरे सपनो को भी हमारे मानस पटल पर फिल्मों के रुपहले पर्दे जैसे फिल्मांकित कर देती है और हम उसी उम्मीद के सहारे रहने लगते हैं, मैं भी उसी उम्मीद के सहारे रहने लगी।  और कुछ छोटे मोटे सपने बुनने लगी । 

 आकाश  के साथ वक़्त गुजरने का पता ही नहीं चला आखरी सैमेस्टर शुरू हो चूका था। 

एक दिन आकाश  बोला "हम को अब अपने अपने घरवालों से बात करनी चाहीये" अचानक आये इस स्टेटमेंट से मैं चौंक  गयी, वो समझाते हुए बोला "हाँ आखरी सेमेस्टर आगया है, जल्द हम एग्ज़ाम्स में और फिर प्लेसमेंट में बिजी हो जायेंगे, हमे अपनी करियर प्लानिंग करने के साथ अपनी भी प्लानिंग कर लेनी चाहिए, आखिर घर वालो को भी समय लगेगा निर्णय करने में, बात उसकी सही थी पर घर पर बात करने के विचार से ही मुझे पसीने छूटने लगे थे, कैसी कहूंगी, पिताजी का क्या रिएक्शन होगा, सोच के ही मेरा दिल डूबने लगा था.डरते डरते मैंने माँ से ये बात कही. सुन के उनके चेहरे के भाव शुन्य हो गए मेरी और देखते हुए बोली "अपने पिता के बारे में सोचा है ?तुम तो जानती हो उनको,फिर समाज क्या कहेगा, पहले ही मैने तुम्हे समाज से बड़ी लड़ाई लड़ कर के यहाँ एडमिशन दिलाया, फिर ये बात सुनेंगे तो उन्हे और अच्छा मौका मिल जायेगा कहने का की हम तो पहले ही कहते थे लड़की हाथ से निकल जाएगी,.....बता बेटा, क्या ये सही होगा।.. मुझे अब कुछ समझ नहीं आरहा था जीवन ने मुझे एक दोराहे पर ला खड़ा किया था एक तरफ आकाश था दूसरी तरफ माँ बाउजी, मेरे दिमाग ने काम करना बंद कर दिया था


मैं गुमसुम रहने लगी, श्वेता ने समझाया कोई न कोई रास्ता निकल आएगा, अभी अपने पढाई पर ध्यान दो।सेमेस्टर के एग्जाम आने को थे, प्रेप लीव शुरू होने को थी।आकाश एक दिन बोला" वो पिताजी छुट्टिओं में आए हुए है मैने उनको और माँ को तुम्हारे बारे में बताया, वो तुमसे मिलना चाहते है फिर वो तुम्हारे माता पिता से मिलेंगे? बताओ कब चल रही हो?" "एकाएक आए इस सवाल से में सन्न रह गयी।...ज़िन्दगी कभी कभी आप पर एक के बाद एक रैपिड फायर की भांति घटनाओ को प्रस्तुत करती है की दिमाग काम करना बंद कर देता है में जड़वत हो गयी, दिमाग शुन्य हो गया, हाथ पैर ठंडे पड़।..ये एक बड़ा फैसला था, शायद मैं इसके लिए तैयार नही थी, मेरे को देखकर अगर आकाश के माता पिता ने हाँ कह दिया तो ??? मैं कैसे माँ बाबूजी से उनको मिलवाउंगी, क्या कहूँगी की ये लोग कौन है, क्यों आये है,शादी का इतना बड़ा फैसला अकेले लेने की हिम्मत नहीं थी मेरे में


कॉलेज से घर पहुंचने पर मैंने मौका देख कर मां को डरते डरते बोला, "मां वो आकाश के बारे में बताया था न आपको, उसके माता पिता मिलना चाहते है, एक बार मिल लेते है न" मैने कोशिश करी.... ...माँ थोड़ा भड़कते हुए बोली "मैने पहले भी तुम्हे समझाया था न और बता देती हूँ की अपने यहाँ नहीं होता ये सब, जिससे कहते है लड़की चुपचाप उसी के साथ फेरे ले लेती है।और तुम्हे एक बात और बता दू, तुम्हारे पिताजी ने एक लड़का देख रखा है तुम्हारे लिए, वो दोस्त है न उनके मिश्राजी… जिन्होने तुम्हारे एडमिशन के लिए पैसों की व्यवस्था की थी न.. उनके लड़के से, अच्छा व्यवसाय है उनका, फिर उनका अहसान भी है तो हमारे ऊपर, खुश होते हुए बोली "और रिश्ता उनकी तरफ से ही आया था, " "माँ तुमने मेरे से पुछा तक नहीं " मैने गुस्से से पुछा "अरे इसमें क्या पूछना" माँ ने कहा "लड़का अच्छा है,घर अच्छा है, पैसा है इज़्ज़त है और क्या चाहिए"

"अरे तो कम सी कम बता तो देती" मेरा सर चकराने लगा था 

"अरे हम ने सोचा तेरी पढाई में खलल हो जायेगा इसलिए थोड़े दिन बाद बताते " मां अपने इस निर्णय पर बहुत खुश थी 

अपने कमरे में जा कर सोचने लगी ये क्या होगया.. क्या प्यार करने के लिए भी क्या परमिशन लेनी पड़ती है, आकाश को क्या कहूंगी, कभी मन कहता सब कुछ छोड़छाड़ के भाग जाऊ,पर फिर पिताजी और माँ का चेहरा आँखों के सामने आ जाता, उनकी इज़्ज़त और विश्वास की चिता पर में अपने सपनों का महल नहीं खड़ा कर सकती….. पूरी रात सोचती रही पर समझ नहीं पायी की मेरे ये साथ ये क्या हो रहा था 

मैं गुमसुम सी रहने लगी थी, कॉलेज में डर के मारे आकाश से नज़रे चुराते घूमती रहती, अजीब बैचनी थी. आकाश के लाख पूछने पर भी मैं उसको असलियत नहीं बता पायी पर कब तक बचती आखिर उसने दो दिन बाद पूछ ही लिया, "कब चल रही हो तुमने बताया नहीं?" मैने नज़रे चुराते हुए कहा " मैने अभी बात नहीं की घर पर, मैं कल बताउंगी" कह कर मैं जल्दी से घर को निकल गयी, घर आकर के बहुत रोई, ये में अपने आप को किस मुसीबत में डाल लिया, एक तरफ माँ बाउजी है, एक तरफ आकाश- मेरी नयी ज़िन्दगी ,ये मैंने क्या कर लिया.. रात भर रोती रही.

अगले दिन तबियत ठीक नहीं होने के बहाने से कॉलेज नहीं गयी। तीन दिन बाद एक सप्ताह की प्रेपरेशन लीव्स शुरू होने वाली थी फिर एग्जाम थे। प्रेपरेशन लीव्स में कॉलेज जाना नहीं होगा और एग्जाम में इतनी बात होगी नहीं।दिल पर पत्थर रख कर आकाश से बचने का ये मैने प्लान बनाया, समस्या को टालने के अलावा और कोई चारा भी तो नही था. मुझे पता था आकाश बहुत नाराज़ होगा, ये तो धोखा देने देने जैसा हो गया पर शायद इतना बड़ा क्रन्तिकारी कदम उठाने की हिम्मत नहीं थी मेरे में, मैं दिल और दिमाग के बीच द्वन्द में फँस चुकी थी 

प्रेप लीव में श्वेता के हाथों आकाश ने सन्देश भी भिजवाया माता पिता से मिलने का पर मैंने शेवता को तबियत ठीक नहीं का बहाना बनाने को कह दिया, 

 तुम कब तक ऐसे ही छुपती रहोगी, श्वेता ने पुछा 

"एक्साम्स तक तो देखते है, माँ से फिर बात कर के कोशिश करेंगे 'मैं अभी भी आशान्वित थी  एक्साम्स शुरू हुए, एग्जाम की डर से ज्यादा आकाश से समाना होने का ज्यादा डर था पर बड़ी अजीब सी बात हुई की आकाश एग्जाम में नहीं आया, सब को बड़ी जिज्ञासा थी,मेरा मन अनजाने डर से काँप रहा था,पता चला आकाश के पिता की ड्यूटी पर वापस लौटेते हुए एक्सीडेंट में मृत्यु हो गयी, वो माँ को लेकर गांव चला गया है,एग्जाम इस साल ड्राप कर दिए है,प्रिंसिपल सर की स्पेशल परमिशन से उसका बाद में एग्जाम लिया जायेगा, सब लोग दुःख में डूब गए, और मैं पता नहीं क्यों एक अपराधबोध , कुछ ग्लानि सी हो रही थी मन में ,श्वेता से मन की पीड़ा कही तो उसने कहा 'तुम्हारी कोई गलती थोड़े है इसमे, नियति को यही मंज़ूर था,एक्साम्स की वजह से हम लोग में से कोई आकाश के गांव  नहीं जा पाया.

हम लोग उसके आने का इंतज़ार करने लगे पर एक्साम्स भी ख़त्म हो गए, प्लेसमेंट्स होने लगे पर वो नहीं आया, मोबाइल उसका आउट ऑफ़ कवरेज आरहा था, संपर्क का कोई और साधन था नहीं,

उसके गांव के पते पर हम सब लोग ने एक कॉमन चिट्टी लिखी, पर जवाब नहीं आया, प्लेसमेंट का क्रुशल टाइम था।.हमारे पास इंतज़ार के सिवा कोई चारा नहीं था।.. पर वो इंतज़ार कभी पूरा नहीं हुआ।.हम सब लोग अपने प्लेसमेंट लेकर अपनी अपनी जॉब्स पर निकल पड़े, मेरा सिलेक्शन हमारे शहर से १५० की.मीटर  दूर एक बड़े शहर में एक  मल्टीनेशनल कंपनी में हुआ, माँ बाउजी बहुत खुश थे, खुश तो में भी थी पर इस ख़ुशी में कही कोई कमी थी, वो कहते है न "हर किसी को मुक्कमल जहाँ नहीं मिलता कभी ज़मी तो कभी को आसमां नहीं मिलता" मेरी ज़मी तो मुझे मिलगई थी पर मेरा आसमां यानि आकाश नहीं मिला था... इसको किस्मत मान के में अपने नए सफर पर भारी मन से निकल पड़ी, दिन यूँ ही निकलने लगे, श्वेता, अली, विकास, रानी सबसे फ़ोन पर बात होती थी, पर आकाश की किसी को भी कोई खबर नहीं थी, हर फ़ोन की घंटी पर दिल किसी खुशखबरी की उम्मीद करता था,, पर हर बार निराशा ही हाथ लगती थी.

दिन निकलने लगे, बाउजी का रिटायरमेंट हो गया था राजू का एडमिशन दिल्ली IIT में हो गया था। मैं माँ बाउजी  दोनों को अपने साथ ही ले आयी, माँ की बीमारी बढ़ती जा रही थी और एक दिन उसने हमेशा के लिए आँखें मूँद ली। दुःख फिर से रूप बदल कर आया था ,पर जीवन में जो सबसे ज्यादा निश्चित है वो है अनिश्चितता ..और..सुख और दुःख का चक्र, बाउजी शायद माँ के जाने का ग़म बर्दाश्त नहीं कर पाए और उन्होंने ने भी ६ महीने बाद माँ की राह पकड़, मुझे इस दुनिया में तनहा छोड़ गए, पर वक़्त ज़ख्मो का सबसे बड़ा इलाज है, वक़्त निकलता रहा, ज़ख्म भरते रहे, ज़िन्दगी चलती रही, राजू अपनी पढाई में बिजी था में अपनी जॉब में.

मैं अपनी ज़मीन पकडे चल रही थी इस उम्मीद मैं की कभी  तो आसमान मिलेगा, और उम्मीद पर तो दुनिया कायम है.

समय का चक्र तेजी से घूमने लगा कब २ साल निकल गए पता ही नहीं चला, राजू को USA में जॉब मिल गयी और मैं अब बिलकुल अकेली हो गयी, रिश्तेदार कोई थे नहीं और जो थे वो न होने के बराबर थे 

उस दिन ऑफिस ख़त्म कर के घर जाने की कुछ ज्यादा ही जल्दी थी, बात ही कुछ ऐसी थी, कॉलेज की सिल्वर जुबली फंक्शन और एलुमनाई मीट में जो जाना था, २ साल बाद सब इकठ्ठा होंगे, और जिसका इंतज़ार था उससे भी शायद मुलाकात होगी।...

.6 बजे की बस थी घर पहुँच कर जल्दी जल्दी सामान पैक किया और बस स्टैंड की तरफ निकल पड़ी बस ने जैसी ही शहर छोड़ हाईवे पर रफ़्तार पकड़नी शुरू की मेरी यादों की भी गाड़ी ने भी रफ्तार पकड़ ली, क्या दिन थे वो, बेफिक्री, मस्ती, असल में तो लाइफ पहले जीते थे अब ढ़ोते है, यादों के झरोके से झांकते हुए बस की खिड़की से बाहर देखने लगी, पास की चीज़े तेजी से पीछे छूटे जा रही थी और दूर की चीज़े साथ साथ चल रही थी, पहली बार ये महसूस हुआ की ज़िन्दगी की रफ़्तार में भी तो यही होता है, माँ बाउजी का साथ छूट गया, राजू विदेश चला गया, आकाश का कोई अता पता नहीं, दोस्त सब दूर हो गए, ,,साथ चल रहा है तो बस एक सपना, एक महत्वकांशा, एक उम्मीद, और शायद वो पास आएंगे तो वो भी छूट जायेंगे,,, सोचते सोचते कब आँख लग गयी पता ही नहीं चला.. मोबाइल की घंटी से आंख खुली, श्वेता का कॉल था 

"अरे कहाँ हो ? कब आ रही हो ?" " 

मैने बस के बाहर झांक के देखा तो पता चला अभी भी ६० की. मी. दूर है "तकरीबन एक घंटा और लगेगा" मैने कहा

'ओके" श्वेता बोली " गेस्ट हाउस में आ जाना वही अपना अरेंजमेंट है, रानी अली विकास सब आ गए है।" 

ओह, अच्छा... और।.. " कह कर मैं रुक गयी 

,"मुझे मालूम है तुम क्या जानना चाह रही हो, आकाश का कुछ पता नहीं है अभी तक,तुम  आ जाओ।.फिर देखते है'" श्वेता ने मेरी जिज्ञासा को भांपंते हुए कहा. 

"ठीक है "बोल कर मैने फ़ोन रख दिया, शेता से बात कर उत्सुकता और जिज्ञासा चरमोत्कर्ष पर पहुंच गयी थी अब वो ६० की.मी. बहुत लम्बे लगे थे उस दिन।

गेस्ट हाउस पहुंच कर सब को २ साल बाद देख कर कर फिर कॉलेज के दिनों की यादें ताज़ा हो गयी, सब बहुत उत्साहित थे एक दूसरे को देख कर, कुछ नहीं बदला था सब में, वही शरारतीपना, वही बेबाक निश्चल  हंसी।.. पर जीवन के थपेड़ो का असर सबके चेहरों पर साफ़ दिखाई दे रहा था।दरअसल ज़िन्दगी जब किताबों से निकल कर असलियत में आती है और सपनो का जब असलियत से जब सामना होता है तो दोनों में सामंजस्य बिठाना बहुत मुश्किल होता है पर दोस्तों को देख कर सबके चेहरे पुलकित हो उठे थे, खाना खा कर सब अपने अपने अनुभव साझा किये, पुरानी यादें ताज़ा की, सारी रात तो बातों में ही निकल गयी,आकाश के तरफ से कोई सूचना न होने की वजह से सब चिंतित थे।सबने मिल के डीसाइड किया की सुबह कॉलेज एलुमनाई ऑफिस जहाँ से सब को कार्यक्रम का निमत्रण भेजा गया था जा कर आकाश के आने की कन्फर्मेशन के बारे में पुछा जाये क्यूंकि आमंत्रित लोगो को अपने आने की कन्फर्मेशन भी भेजनी थी, वहां जाकर पता लगा की आकाश के आने का कन्फर्मेशन है , मैं मन ही मन में खुश हो गयी, उम्मीद फिर से नए सपने दिखाने लगी  

 सिल्वर जुबली उत्सव और एलुमनाई मीट  का ये कार्यक्रम दो दिवसयीय था अगले दिन सुबह ब्रेकफास्ट के बाद सबको ऑडिटोटरियम में मेधावी छात्रों और फैक्ल्टी सम्मान समारोह के लिए एकत्रित होना था फिर लंच और शाम को कल्चरल प्रोग्राम था, मेरा इंतज़ार लंच तक भी इंतज़ार ही रहा, हम लोग उम्मीद कर रहे थे शायद आकाश शाम तक पहुंच जायेगा 

शाम के कल्चरल प्रोग्राम का समय ६ बजे था  हम लोग जब पहुंचे तो लगभग हाल भर चुका था, सबको एक साथ जगह नहीं मिली, मेरे को बीच की लाइन में और श्वेता अली, विकास और रानी को पीछे कही. अलग अलग जगह मिली।.मेरी नज़रे हाल में घूम रही थी, प्रोग्राम में कोई इंट्रेस्ट नहीं था मेरा, पूरा ध्यान आकाश को ढूंढ़ने में था, मेरी नज़रें लगातार बेकरारी से उसे पूरे हॉल  में ढून्ढ रही थी। पर उसका कही अता पता नहीं था...अचनाक मैंने उसे हमारी अपोजिट वाली लाइन में AISLE के पार कोने वाली सीट जो अभी तक खाली थी पर बैठे हुए देखा, वो मेरी और देख मुस्कराया, और हाथ हिलाया मैने भी मुस्करा कर हाथ हिलाया,  मैं बहुत उत्साहित हो गयी थी, ,पर हॉल में बात हो नहीं सकती थी।..आकाश ने बाहर चलने का इशारा किया और उठ कर बाहर  निकल गया, कुछ देर बाद मैं भी बाहर निकल आयी ...हाल के बाहर  कॉरिडोर में वो खड़ा था उसे देख कर मैं अपने पर काबू नहीं रख पायी।

".कहाँ थे तुम,कोई खैर खबर नहीं,कोई अता पता नहीं, इंतज़ार करते करते आंखें थक गयी" कहते कहते मेरी आँखों से आंसू निकल पड़े, ,

"ओह ओह इतने सवाल एक साथ और फिर वही आंसू का सैलाब" कह कर आकाश हंसने लगा  

"तुम्हारी बड़ी हंसी निकल रही है यहाँ मेरी जान निकल रही थी " मैं रोती हुई बोली 

इंतज़ार...?? क्यों ?..वैसे क्यों कर रही थी मेरा इंतज़ार ?और ये सारे सवाल तो लॉजिकली मुझे पूछने चाहिए थे तुम्हारे से " 

ये सुन कर मैं शर्म से पानी पानी हो गयी " उस दिन के लिए "ऑय  ऍम सॉरी, मैं कमज़ोर पड़ गयी थी, माँ बाउजी से बात करने की हिम्मत नहीं जुटा पायी "कहते कहते मेरे आँखों से आंसुओं का सैलाब निकल पड़ा।..

"अरे में तो मज़ाक कर रहा था'"।..अपने चिरपरचिरत केयरलेस और इजी गोइंग अंदाज़ में हँसते हुए वो बोला "मुझे मालूम है, मैं समझ सकता हूँ क्या मजबूरी रही होगी तुम्हारी, और जो तुमने किया सही किया" "

मैं हतप्रभ थी उसके इस इजी गोइंग एप्रोच पर, मैं तो उसका गुस्सा अपेक्षित कर रही थी..

"तुम्हारे पिताजी के बारे में सुन कर हम लोग ने तुमसे कांटेक्ट करने की बहुत कोशिश की,"मैने अपने आप को संभालते हुए कहा 

"हाँ तुम लोगो की एक चिट्टी मुझे मिली थी पर जवाब नहीं दे पाया, घटनाएं ही इतनी जल्दी हुई एक चीज़ समझ पाता उससे पहले ही दूसरा कुछ हो जाता था', सँभलने का मौका ही नहीं मिला……..तुम्हारा नहीं आना, फिर पिताजी का यूँ चले जाना, माँ को संभालना, फिर करियर, एक्साम्स, जॉब।....ज़मीन जायदाद के झगड़े........ सब कुछ एक के बाद एक।..........चलो छोड़ो"  कह कर वो खामोश सा हो गया

" अच्छा, और बताओ इन दो सालों में कैसी रही ज़िन्दगी, शादी हो गयी तुम्हारी'" मैने पुछा 

" तुम्हारी हो गयी"? उसने पलट कर हँसते हुए पुछा 

"पहले  मैने पुछा है इसलिए पहले तुम बताओ" मैं भी ज़िद पर अड़ी रही

बातें करते करते हम ऑडिटोरियम के सीढ़ीओं पर जा बैठे, उसने आदतानुसार सिगरेट सुलगाली, मेने पुछा "अभी तक नहीं छोड़ी तुमने" 

"अरे कुछ आदतें कहाँ छुटती हैं" और हंस के मेरी आँखों में देखने लगा 

मैं शरमा सी गयी   

उसने बोलना शुरू किया " पिताजी के जाने का  माँ को बहुत आघात लगा, वो मानसिक और शारीरिक दोनों रूप से बहुत कमज़ोर हो गयी थी, उनकी देखभाल की चिंता मुझे हर वक़्त रहती थी और ये सारी भागदौड़ की वजह से मैं हर वक़्त उनके पास नहीं रह सकता था, माँ भी ज़िद थी और वक़्त की ज़रुरत भी सो मैने शादी कर ली "

"कौन है वो खुशकिस्मत " मैने अपनी मेरे मन में आयी सारी भावनाओ को छुपाते हुए पुछा 

उसने सिगरेट का गुल झड़कते हुए बोला "पिताजी के एक आर्मी के दोस्त जो जंग में शहीद हो गए थे और दो साल पहले उनकी पत्नी की भी मृत्यु हो गयी उनके एक ही लड़की थी। कोई करीबी रिश्तेदार न होने के वजह से उनकी इकलौती लड़की की देखभाल भी माँ पिताजी ने ही की थी, पिताजी की इच्छा भी थी की मेरी शादी उससे हो जाये, सो मेरी शादी उससे हो गयी"  

मैं थोड़ी मायूस सी हो कर चुप हो गयी, माहौल में थोड़ी देर सन्नाटा सा छा गया

अपनी मायूसी को समेटते हुए मैने टॉपिक बदला " ओके, जॉब कहाँ लगी तुम्हारी? 

" हमारे ही गांव के पास जो इंडस्ट्रियल एरिया है वहां एक बहुत बड़ा फैशन हाउस है उसमे काम करता हूँ" वो बोला

"ओह गुड"

 कुछ रुक कर वो बोला "जीवन अपनी गति से चल रहा था , पर पिछले साल बेटी हुई, उसको जन्म देते वक़्त मेरी पत्नी नहीं रही।..तब से जीवन बस मेरी बेटी काजल के इर्द गिर्द ही घूम रहा है।"..

मैं भी थोड़ा ग़मगीन हो चली थी मैने दुखी हो कर कहा "भगवान् भी कैसे कैसे इम्तिहान लेता है" 

"फिर काजल को कौन रखता है "? मैने पुछा 

"माँ देख्भाल करती है और ऑफिस से आने के बाद मैं"  

उसने टॉपिक बदलते हुए पुछा "अच्छा तुम बताओ अपने बारे में, शादी कर ली"

 "नहीं", कह कर मैं चुप हो गयी 

कुछ  देर के लिए माहोल में एक सन्नाटा सा छा गया  

थोड़ी देर बाद उसने पुछा 'क्यों?" 

"यूँही " मेरा जवाब न तो उसे संतुष्ट कर पाया था न ही मुझे पर यहाँ और कहा भी क्या जा सकता था 

"तुम्हे मेरा इंतज़ार था या कहीं  कोई पश्चाताप" कह कर वो हंसने लगा 

बात तो उसकी सही थी।.दोनों ही बातें थी।

माहौल थोड़ा भरी होते देख उसने बोलना शुरू किया "देखो प्रिया इस संसार में जो कुछ भी होता है वो सब कुछ पहले से ही लिखा हुआ है हम लोग सिर्फ एक कलाकार की भांति अपने अपने किरदार को जैसी जैसी सिचुएशन मिलती है वैसे वैसे निभाते जाते है, क्या मिला क्या खोया उस पर ज्यादा सोच विचार नहीं करना चाहिए,, इंसान की एक फितरत हैं कुछ मिल जाये तो खुश हो कर किस्मत  समझ लेता है और खो दें तो बदकिस्मती, ,पर जो मिल जाये उसमे संतोष करना चाहिए, खुश रहना चाहिए और जो नहीं मिला उसका ग़म नहीं करना चाहिए क्योंकि नहीं मिलने का ग़म जो मिला है उसकी ख़ुशी को कम करदेता है"..कह कर वो मेरी और देखने लगा। 

"मेरे को ये फिलॉसफिकल बातें कम ही समझ आती है, कहना क्या चाहते हो तुम" उसकी बात को  समझने के  लिए मेरा उतावलापन बढ़ रहा  था  

"देखो प्रिया"जीवन की किताब का पन्ना अब पलट चुका है और हम अब अपने अपने नए रोल मे है, और तुम्हे भी एक अच्छा लड़का देख कर सेटल हो जाना चाहिए, जो बीत गया सो बीत गया" वो मुझे समझाते हुए बोला

मैने पुछा "तुम अपने इस नए रोल में खुश हो? कोई शिकायत नहीं किस्मत से या जीवन से?

उसने फिर फिलोसोफिकल अंदाज़ में जवाब दिया "नहीं…… कोई शिकवा शिकायत नहीं,.और हो भी क्यों ? जैसा पहले मैने कहा रोल नया है जीवन का  उद्देश्य अब बदल गया है, प्यारी सी से बिटिया है काजल, अब वही मेरी दुनिया है  .....पर."... कहते कहते वो रुक सा गया 

मैंने पुछा "पर क्या" ?

मेरी और देख कर बोला "पर ….बस एक डर हैं।.जो हमेशा सताता है "

डर ? कैसा,किसका डर"मैने हैरानी से पुछा, ,,

"कही मुझे कुछ हो गया तो……. मेरी बेटी का क्या होगा उसका तो कोई नहीं है इस दुनिया में,माँ की भी तो अब उम्र हो चली हैं"……कहते कहते वो संजीदा सा हो गया। उसके इस डर को लेकर पहले बार उसको भयभीत और मायूस देख रही थी। उसे इस तरह देख कर मैं अंदर तक हिल गयी

"तुम्हे कुछ नहीं होगा"  मैने उसे आश्वस्त करते हुए कहा।.

"नहीं प्रिया जीवन में बहुत कुछ खोया है तो एक डर सा बैठ गया है।.......मैं यहाँ आया ही इसलिए हूँ की तुम से एक वादा ले सकूँ" उसकी ये बात सुन कर मैं थोड़ा चौंक से गयी. वादा ? मेरे से ? कैसा वादा ? मेरे मन मैं हर्ष, दुःख और घबराहट की मिश्रित भावनाये उमड़ने घुमड़ने लगी। क्या ये वादा वही तो नहीं जिसका मुझे इंतज़ार है और जो मैं सुनना चाहती हु 

.मेरी भावनाओ को काबू करते हुए मैने बोला "बताओ कैसा वादा "

" तुम मुझसे से वादा करो की अगर मुझे कुछ होगया तो तुम काजल का पूरा ध्यान रखोगी",आकाश ने मेरा हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा 

उसके इस डर को देख कर में भी डर गयी।वो शख्स जो दूसरों को हिम्मत देता रहा, खास तौर पर मुझे  उसको ग़मगीन और चिंतित देख कर मैंने उसके हाथ को अपने दोनों हाथो में लेकर कहा " तुम्हे कुछ नहीं होगा"

"नहीं।.फिर भी अगर कुछ होगया तो? वादा करो" वो अपनी बात पर अडिग था,

उसका मेरे पर विश्वास करना मुझे भला सा लग रहा था  

मैने उसे आश्वस्त करने के लये कहा "अच्छा बाबा मैं वादा करती हूँ मैं काजल का पूरा पूरा ध्यान रखूंगी।अब तो खुश पर तुम्हे कुछ नहीं होगा "

मेरा जवाब सुन कर उसका चेहरा दमकने लगा था,, इतना तेज़ उसके चेहरे पर कभी नहीं देखा था, एक दिव्य आभा से ओतप्रोत 

"थैंक यू प्रिया "उसकी आँखों में कृतगता दिख रही थी

मैने डरते डरते पुछा " पर तुमने मुझे उस दिन के लिए तो कर दिया न" ?

"माफ़ तो मैं जब करता जब तुमने कोई गलती की होती ?इसलिए मन पर कोई बोझ मत रखना, पर मेरा वादा याद रखना" उसने फिर वही बात दोहराई

"क्या होगया है तुम्हे" मैं पूछ बैठी

उसने मेरे हाथ को कस कर पकड़ा और बोला कुछ नहीं 

हॉल से राष्ट्रगान होने की घोषणा हुई,, प्रोग्राम ख़त्म होने को था.. 

'चलो अंदर चलते है फिर डिनर पर मिलेंगे "कह कर वो दरवाजे की तरफ बढ़ गया, मैं भी उसके पीछे पीछे चल पड़ी 

अंदर जाने के बाद राष्ट्रगान जैसे ही ख़त्म हुआ अचानक आई भीड़ में हम लोग गुम से हो गए।.बड़ी मुश्किल से श्वेता मिली, ,,डिनर पर आकाश को बहुत ढूंढा पर वो नहीं दिखा 

मायूस हो कर हम रूम पर  आ गए. श्वेता को मैने सारी बात बताई। वो भी सारी बातें सुन कर दुखी हो गयी और उसके इस तरह वादा लेने की बात पर असमंजस में पड़ गयी।हम सुबह उससे मिलने की उम्मीद में सोने चले गए पर नींद कहाँ आनी थी सारी रात करवटे बदलती रही और आकाश के अनजाने डर और मुझसे वादा लेने के बारे मैं सोचते सोचते सुबह कही जा कर आँख लगी 

सुबह शेवता की आवाज़ से नींद खुली

"प्रिया  प्रिया उठो"  

 आँखें खोल कर मैने पुछा "क्या हुआ" उसके चेहेरे पर हवाइयां उड़ रही थी, वो सन्न थी,,,आवाज नहीं निकल रही थी, बड़ी मुश्किल से बोली 'वो आकाश"।.....कह कर वो रुक गयी 

"जल्दी बोलो आकाश का क्या"?।..

"तुम मिली थी उसको कल ?"

"हाँ हाँ मिली थी न..... तो?"

अली और विकास खबर लाये है की....?

"क्या खबर लाये है "? मैं बेसब्र हो चुकी थी

श्वेता की आँखों से आंसू निकल पड़े, "वो कह रहे है की आकाश का एक्सीडेंट हो गया" 

"क्या"....मैं चिल्ला पड़ी, ,,"कब, कहाँ, कैसे "

मेरी आवाज़ सुन कर अली विकास भी रूम में आ गये 

विकास ने कहा " कल शाम को ६ बजे उसकी बस का एक्सीडेंट होगया "

'बस का? कहाँ जा रहा था वो? वो तो यहीं था'?? में सवाल पे सवाल कर रही थी ?

'आर यु श्योर "खबर सही है " मैं यकीन नहीं कर पा रही थी 

"हाँ "अली और विकास एक साथ बोले, 'न्यूज़ पेपर में भी आया है" 

" एक मिनट रुको।...पर मैं तो उससे कल मिली थी।..शाम को ६ बजे बाद ही तो मिले थी, कुछ गड़बड़ है, ,ऐसा हो ही नहीं सकता" मेरा दिल ये मानने को तैयार नहीं था 

"मरने वालो की लिस्ट जो पेपर में आयी है उसमे उसका नाम है" विकास ने धीरे से बोला 

"तो क्या पूरी दुनिया में एक ही आकाश थोड़े ही है ?" मैं अपने पर कंट्रोल नहीं रख पा रही थी.

" पता करो यार' मेरी आँखें भर आयी थी..घबराहट और एंग्जायटी के मारे मेरा शायद बी पी. हाई होने लगा था।

श्वेता ने कहा "प्रिया अपने पर कण्ट्रोल रखो, हम चल कर मालूमात करते है "

सबसे पहले हम डीन सुब्रमण्यम सर के पास गए उन्होने कहा " हाँ ये सही है " आकाश की जेब से मिले ड्राइविंग लाइसेंस और कॉलेज प्रोग्राम के इनविटेशन से उसकी पहचान हुई, क्योंकि उसके घर पर किसी तरह से संपर्क नहीं हो पा रह था इसलिए पुलिस ने कॉलेज अथॉरिटीज को इन्फॉर्म किया"। " सर की बात पूरी होने से पहले ही मैं बोल पड़ी "पर सर मैं कल ही तो उससे मिली थी, कल कल्चरल प्रोग्राम के वक़्त वो मेरे साथ था, ये गलत है सर, ज़रूर कोई गलतफहमी हुई है "कहते कहते मेरी आवाज़ भर्रा गयी थी 

 'पर ऐसा कैसे हो सकता है प्रिया" 'सर भी सोच में पड़ गए,  

सोचते हुए बोले 'चलो एक बार के लिए हम तुम्हारी बात मान भी ले तो आकाश को किसी और ने भी देखा होगा, कोई और भी मिला होगा ',सर ने अली,विकास रानी और शेता की तरफ देखा " क्या आप लोगो में से किसी ने आकाश को देखा या मिले ? 

सभी की तरफ से ना सुनने के बाद सर फिर कुछ सोच में डूब गए, थोड़ी देर बाद बोले

"अली और विकास तुम दोनों जाकर बॉयज गेस्ट हाउस में लड़को से पूछो उनमे से किसी ने आकाश को देखा या उसे मिला?" 

"ओके सर" कह कर विकास और अली सर के चैम्बर से बहार निकल गए 

"प्रिया तुम यहाँ बैठो एंड रिलैक्स " सर ने मेरी घबराहट को देखते मेरे लिए कॉफ़ी मंगवाई। 

"थैंक्स सर" , मैने कृतग्यतावश कहा 

जब तक मैने कॉफ़ी पी तब तक अली विकास वापस लौट आये, उनके अनुसार न तो किसी ने आकाश को देखा न मिला यहाँ तक की गॉर्ड ने भी नहीं देखा उन्होने और लोगो से भी पुछा पर किसी ने नहीं देखा।

बात बहुत ऊलझते जा रही थी, सभी सोच में पड़ गए थे और मेरी ओर शक की नज़रों से देख रहे थे की कहीं ये मेरी कोरी कल्पना तो नहीं?सबकी नज़रों को भांपते हुए मैं बोली "सर मुझे मालूम है की आप लोग सब इसको मेरी एक कोरी कल्पना मात्र मान रहे होंगे, कोई भी अगर ऐसी बात बोलेगा तो लोग उसे पागल ही बोलेंगे....पर मैं श्योर हूँ सर में मिली थी उससे,वो आया था.".. 

अचानक मेरे दिमाग में एक विचार कौंधा " सर हॉल की और हॉल के बाहर कॉरिडोर की cctv की फुटेज माँगा कर देखिये उसमे सब क्लियर हो जायेगा."

गुड आईडिया " सर ने बोला और साथ में सब ने उनकी हाँ में हाँ मिलाई 

cctv कण्ट्रोल रूम से फुटेज मंगाया गया।और सर के चैम्बर के बड़े led TV पर सब देखने बैठ गए 

फुटेज शुरू हुए मैं और श्वेता, अली विकास सब हॉल में एंटर होते हुए दिखाई दिए मैं अपनी सीट पर बैठी दिखाई दी...मेरी लाइन के उस पार AISLE के पार कार्नर सीट खाली दिखयी दे रही थी. मैंने सब को बताया "हाँ, यहीं, इसी सीट पर वो बैठाथा, अभी देखिये सर कुछ देर बाद वो आ कर  बैठेगा फिर हम बाहर जाएंगे, पहले वो फिर मैं." मैं उत्साहित थी 

पर आधा घंटा बाद की फुटेज मैं भी कुछ नहीं नज़र आया ...हाँ मैं जरूर बाहर जाते दिखाई दी।......

".सर ज़रा फिर से चलाइये शायद वो नज़र आये"...मेरे कहने पर फुटेज रीप्ले किया पर फिर वही, सिर्फ मैं बाहर जाते दिखाई दे रही थी...

.मेरा सर चकराने लगा....सब मेरी और प्रश्नवाचक नज़रों से देख रही थे।.. 

"शायद कॉरिडोर के फुटेज मैं नज़र आये वो"।..मैं अभी भी आशान्वित थी।.....

.कॉरिडोर के फुटेज में मैं गेट से बाहर निकलते हुए नज़र आयी। और.बाहर ठीक उसी जगह रूकती हुई नज़र आयी जहां मुझे आकाश खड़ा मिला था।.. मैं बोल रही हूँ,, हंस रही हूँ।.पर अकेली।...आकाश फुटेज में नहीं दिख रहा है।..मैं हँसते हँसते जा कर हॉल की सीढ़ीओं पर बैठ जाती हूँ और बातें करते नज़र आती हूँ जैसे मेरी बगल में कोई बैठा हो।....मेरा सर अब फटा जा रहा था..... 

"प्रिया यहाँ सिर्फ तुम नज़र आ रही हो।.आकाश तो कही है ही नहीं" सुब्रमण्यम सर की आवाज़ से मेरा ध्यान टूटा 

" ये कैसे हो सकता है"।.. मैं सोफे पर निढाल हो गयी...चक्कर सा आ गया मुझे।..  आँखों के आगे अँधेरा छाने लगा …और फिर कुछ याद नहीं।.

जब आँख खुली तो अपने को रूम के बिस्तर पर और साइड में श्वेता को बैठे हुए पाया.

उठने की कोशिश करने लगी पर बदन निढाल था,, कमज़ोरी सी थी.. देखा हाथ में ड्रिप लगी हुए थी... 

"उठो मत लेटी रहो" श्वेता ने कहा

"क्या हुआ था मुझे,, आकाश का कुछ पता चला " मैने बेचैन हो कर से पुछा

"डॉक्टर ने तुमहे आराम करने के कहा है, अपने को स्ट्रेस मत करो, अली विकास पता कर रहे है "

"तुम लोग मेरी बातों का विश्वास नहीं कर रहे हो न" मैंने लेटे लेटे शेवता की और देख कर पुछा 

"अरे ऐसा कुछ  नहीं है.....पर  तुम्हारी बात का कोई सबूत भी तो नहीं है न साबित करने के लिए" 

उसकी बात सही थी मैं सोचने लगी ये हो क्या रहा है और कैसे हो रहा है ये बिलकुल समझ नहीं आ रहा था 

'प्रिया' …… श्वेता की आवाज़ से मेरा ध्यान टूटा ".तुम बुरा न मनो तो एक बात कहूं" वो कहने लगी " सब का ये सोचना है की हम लोगों को एक सयकाट्रिस्ट की मदद लेनी चाहिए" 

"मतलब मैं पागल हो गयी हूँ है ना तुम लोग यही समझ रहे हो ' मैं आपा खोने लगी थी

"नहीं।.नहीं ऐसा नहीं है, कभी कभी ऐसा होता है की जिस चीज़ के बारे हम ज्यादा सोचते है वो हमारे दिमाग में असर करती है और वो हमे नज़र आने लगती है" श्वेता अपना तर्क देने लगी

"अगर ऐसा होता तो मुझे चीज़े उस वक़्त ही क्यों नज़र आयी, पहले क्यों नहीं या अभी क्यों नहीं नज़र आती"..मैने गुस्से से कहा 

श्वेता मेरी ऊँची आवाज़ सुन कर चुप हो गयी. कुछ देर बाद बोली "समझने की कोशिश करो प्रिया, जो कुछ हो रहा है या हुआ है सामान्य नहीं है।..सामन्यतः लोग ऐसे बातों को स्वीकार नहीं करते है या तो ऐसा कहने वाले को लोग पागल समझते है या किसी तरह की भूत प्रेत का साया, समझ रही हो न...मैं विकास, रानी और अली तो तुम्हारी बात का विश्वास कर रहे है..पर हम लोग चाहते है की और लोग भी तुम्हारी बात का विश्वास करे इसलिए हमने सोचा की है मेडिकल एडवाइस और हेल्प भी ली जाये... जिससे हम बाकि लोगों को आसानी से हमारी बात समझा सकेंगे वरना आकाश को दिया वादा कैसे पूरा कर पाएगी " श्वेता ने मुझे समझाते हुए कहा 

बात मेरी समझ में आ रही थी।थोड़ी देर में डीन सर के साथ एक भली से लगने वाली अधेड़ उम्र की महिला ने जो सायकेट्रिस्ट थी, कमरे में प्रवेश किया 

उन्होंने मुझे देखते ही कहा "कैसी हो प्रिया..अब कैसा महसूस कर रही हो?

 "ठीक हूँ " मैने अनमने ढंग से जवाब दिया 

मेरा जवाब सुन कर वो मुस्करायी और कहा " मुझे अपना दोस्त समझो " उन्होंने सबको बाहर जाने के लिए कहा " प्लीज आप लोग कुछ देर के लिए हमे अकेला छोड़ दें " 

मेरे पास बैठेते हुए कहा. "मैं डॉ. मेघा हूँ, मुझे पूरी बात बताओ की क्या कब कैसे हुआ " शायद ये उनका इलाज का तरीका था न चाहते हुए भी मैने उनको सारी बात बताई, पूरे टाइम उनके चेहरे पर हाव भाव आते जाते रहे, और कुछ कुछ वो अपनी डायरी में नोट करती रहीं..मेरी बात ख़त्म होते ही उन्होंने कहा "कोई करे न करे मैं तुम्हारी बात का विश्वास कर रही हूँ" फिर एक मधुर मुस्कान के साथ पुछा, " बहुत चाहती हो न आकाश को "

मेरी आँखो से आंसू बह निकले ,उन्होंने प्यार से मेरे सर पर हाथ फेरते हुए कहा "तुम्हारे आंसू तुम्हारे प्यार की गवाही दे रहे है",  

माँ के जाने के बाद ऐसा दुलार पा कर मेरी रुलाई फूट पड़ी।उन्होने ढांढस बांधते हुए कहा "इंसान की जो सबसे बड़ी ताक़त है वही उसकी सबसे बड़ी कमज़ोरी और वो है उसके इमोशंस तुम्हे उनपर काबू पाना होगा और आकाश को दिया वादा पूरा करना होगा " डॉ के मुँह से ये सुन के मैं आश्चर्यचकित थी पर शायद सायकाट्रिस्ट इसी तरह इलाज करते होंगे।

"मेरे कुछ सवाल है जिनका जवाब मुझे चाहिए होगा, क्या तुम मेरे से सहयोग करोगी "? वो मुझे देख कर मुस्करायी 

मैने  हाँ में अपना सर हिलाया 

"तुम उस दिन आकाश के पेरेंट्स मिलने नहीं जा पाईं. क्या उसको लेकर  तुम्हारे मन में कोई अपराध बोध है" ?  

मेरे हाँ कहने पर उन्होंने दूसरा सवाल पुछा

"कल जब तुम्हे आकाश मिला और वो शादी के लिए ऑफर करता तो क्या तुम मान जाती ?"

"हाँ शायद' " मेरे इस जवाब से वो संतुष्ठ नहीं थी

"शायद या हाँ.. साफ़ कहो"।उन्होंने कहा 

"जी हाँ"मैं थोड़ा हिचकिचाते हुए बोली

"आकाश को कितनी अच्छे तरीके से जानती हो तुम?.उसकी कोई बुरी आदत? "उनका अगला सवाल था

"वैसे तो कोई बुरी आदत नहीं थी पर हाँ सिगरेट पीने का शौक था "मैने याद करते हुए कहा

" एक पर्सनल सवाल, जवाब नहीं देना चाहो तो मत देना.".डॉक्टर ने मेरी आँखों में आखें डालते हुए पूछा "तुम उसे २ साल से जानती हो तुम्हारा रिलेशनशिप काफी क्लोज था.....हर मनुष्य के शरीर की एक गंध होती है जो हम आसानी से महसूस कर सकते है, ,और जिसके हम अक्सर नजदीक रहते है उसकी गंध को हम भली भांति पहचानते है, तुम भी आकाश के शरीर की गंध को पहचानती होंगी"

"हाँ डॉक्टर पहचानती हूँ  और वो एक पर्टिकुलर ब्रांड का डीओ  भी इस्तेमाल करता था"

 वैरी गुड " डॉ, ने आगे पुछा "क्या कल जब तुम मिली तो उसमे से वो पर्टिकुलर गंध आ रही थी? सोच के बताओ? 

कुछ देर सोचने के बाद मैने कहा " नहीं "

एक्सीलेंट कह कर उन्होने अपना अगला सवाल पुछा "उसने कल क्या पहना था,कपड़ो का कलर या टाइप याद है ?

"हाँ डॉ, उसने ब्लू जीन्स पर सफ़ेद काली लाइन्स वाली शर्ट और ब्राउन शूज पहने थे"।

"ओके" डॉ. कुछ निष्कर्ष पर पहुँचती नज़र आयी

"ओके एक आखरी सवाल " कह कर कर वो मुस्करायी "जब तुम उसके साथ रही उस एक घंटे में क्या उसने सिगरेट पी "

मैने कहा "जी डॉ," जब हम सीढ़ियों पर जा कर बैठे तो वहां  उसने सिगरेट पी थी 

"ओके "कह कर डॉ, मेधा ने सबको अंदर बुला लिया और डीन सर से पुछा "क्या हम उस CCTV फुटेज को फिर से देख सकते है "

"यस यस क्यों नहीं "' डीन सर ने कहा 

फुटेज मंगवाया गया।.. डॉ, मेधा की उपस्थिति में उसको दुबारा देखा गया।...

सीढ़ीओं वाले फुटेज को डॉ मेघा ने ३ से ४ बार देख कर उसे ज़ूम करने के लिए कहा ज़ूम करने पर सिगरेट का जलता हुआ सिरा और उड़ता हुआ धुंआ देखा जा सकता था... 

उन्होंने सर को कहा "सर कैन यू सी समथिंग" ? धुआँ भी है और सिगरेट का जलता हुआ सिरा भी दिखाई दे रहा है .. शायद आप लोग पहले इसलिए इस चीज़ को नोट नहीं कर पाए क्युकी CCTV कैमरे के बहुत दूर फिक्स होने की वजह से पिक्चर धुँधली है ज़ूम करने पर ये सब दिखाई दिया 

इसका क्या मतलब डॉ. साहब सब लोगों ने सम्मलित स्वर में पुछा

डॉ. मेघा ने समझाते हुए कहना शुरू किया "साइकोलॉजी की एक ब्रांच है पेरा - साइकोलॉजी जो पैरानॉर्मल साइंस भी कहलाती है।............ जैसा की नाम से विदित है वो सब बातें जो नार्मल नहीं है या जो मानव मस्तिष्क की सोच से परे है उनके बारे में बात करती है सामान्यतः भूत प्रेत या आत्माओ से संभंधित मानी जाती है पर इसका मतलब सिर्फ यह ही नहीं होता, आपने टेलीपेथी,पूर्वाग्रह इत्यादि के बारे में जरूर सुना.होगा वो सब इसी के अंतर्गत आते है.. 

"आप कहना क्या चाहती है" सर ने उत्सुकतावश पुछा 

डॉ. ने आगे बोलना जारी रखा "मेरी बात ध्यान से सुनिए, सारी बातें सुनने के बाद मैं कह सकती हूँ की यह एक पैरानॉर्मल एक्टिविटी है।.. आकाश का एक्सीडेंट ६ बजे हुआ।.. वहीँ वो ६:३० बजे प्रिया के पास कॉलेज में था  वो आकाश नहीं उसकी अतृप्त आत्मा थी जो थी प्रिया से मिलने आयी थी।.

ऐसा मना भी जाता है की मरे  हुए व्यक्ति की आत्मा अपनी अतृप्त इच्छाये, अपने अधूरे काम या जो काम सबसे ज्यादा शिद्दत से करना चाहते थे उसे करने के लिए वो जरूर आते है और जब तक वो पूरे नहीं हो जाते वो यही आसपास रहते है।

"आकाश जब यहाँ के लिए निकला तो उसका  का मक़सद प्रिया से मिलना था, जो उसकी अकाल मृत्यु के कारण नहीं ही पाया, प्रिया से मिलने की शिद्दत उसकी आत्मा को यहाँ खींच लायी । दूसरा आकाश को कहीं न कही ये अहसास  भी था की प्रिया इस  अपराधबोध के साथ जी रही होगी के वो आकाश के माता पिता से मिलने नहीं जा पायी, प्रिया का ये अपराधपोध से भी उसे मुक्त करना था। आकाश अगर ज़िंदा होता तो शायद वो प्रिया से शादी करने के लिए कहता क्यूंकि वो अपनी बेटी काजल को माँ का प्यार देना चाहता था पर वो हो नहीं पाया इसिलए उसने, ऑय मीन, उसकी आत्मा ने प्रिया से ये वादा लिया "कहते है न 'किसी चीज़ को अगर आप शिद्दत से चाहो तो पूरी कायनात उसे आपसे मिलाने की साज़िश रचती है" वही यहाँ हुआ, उसकी आत्मा अपने इन्ही मक़सद से यहाँ आयी थी

दूसरी चीज़ जो कपड़े  प्रिया ने आकाश को पहने हुए  बताया है वो बिलकुल हूबहू पुलिस रिपोर्ट में दर्ज आकाश के कपड़ो से मेल खता है,  

 आत्मायें कभी फोटोग्राफ  नहीं की जासकती इसीलिए CCTV फुटेज में प्रिया के अलावा कुछ नज़र नहीं आरहा पर सिगरेट और उसका धुआँ यहाँ देखा जा सकता है।और जैसा की प्रिया ने मुझे बताया की उसने  उस दिन आकाश के शरीर से किसी भी प्रकार गंध नहीं महसूस की क्यों की आत्माओ में मनुष्यो के शरीर की तरह कोई गंध नहीं होती  और आत्माएं हर किसी को नहीं दिखती सिर्फ उन्ही को दिखती है जिनसे वो कुछ कहना चाहती हैं या कुछ करवाना चाहती हैं

सबके मन में आये डर को भांपते हुए डॉ, मेघा ने कहा की " डरने की कोई बात नहीं है ये आत्मायें किसी को नुक्सान नहीं पहुंचाती बस अनकही बातों को कहने और अधूरे कामों के पूरा होते ही यहाँ से चली जाती है"।ये सब बातें सुन कर मेरी रुलाई छूट चुकी थे, मैं अपने आप को रोक नहीं पा रही थी, ये सब मेरे लिए यकीन करना मुशिकल था। 

डॉ ने मेरी और देख कर कहा "प्रिया तुम्हे इस सच को स्वीकार करना होगा की आकाश अब हमारे बीच में नहीं हैं और अब तुम्हे आकाश से किये हुए वादे को पूरा करना है " सबकी और देखते हुए कहा "और मेरी आप सबसे ये रिक्वेस्ट है की आप लोग प्रिया को यह पूरा करने में इसकी यथासंभव मदद करनी चाहिए वही आकाश को आप सबकी ओर से सच्ची श्रद्धांजलि होगी और तभी उसकी आत्मा को मुक्ति मिलेगी." 'ओके प्रिया टेक केयर एंड आल दी बेस्ट " कह कर डॉ. मेधा चली गयी 

मेरे लिए इस बात को स्वीकार करना एक बड़ा शॉक था की आकाश अब इस दुनिया में नहीं है।मेरा रो रो कर बुरा हाल था पर।मैने अपने आप को किसी तरह से समेटा और आगे के लिए मानसिक रूप से तैयार करने लगी 

हम सब ने मिल कर  शाम को ही टैक्सी से आकाश के गावं जो लगभग २०० किलोमीटर दूर था, जाने का तय किया,

 टैक्सी शहर से निकल कर तक़रीबन १०० की.मी. चली थी की ख़राब हो गयी ड्राइवर ने आगे जाने से मना कर दिया, रास्ता बियाबान था...रात हो रही थी, कोई ट्रैफिक भी नहीं था, तभी एक चरवाहा अपने मवेशिओं को ले जाता हुआ दिखा उससे गांव जाने के बारे में पुछा तो उसने बताया गांव को जाने वाली आखरी बस  ५ बजे निकल गयी, और कोई साधन अब नहीं मिलने वाला।..७ बजने को थे अँधेरा बढ़ने लगा  था, सब बहुत चिंतित थे न पीछे जा सकते थे न आगे, किसी को कुछ नहीं सूझ रहा था।.अचानक शहर की और से आती एक गाडी की लाइट नज़र आयी विकास अली  ने हाथ  दे कर उसे रुकवाया ,अंदर से एक सफ़ेद बालों और दाढ़ी वाले बुजुर्ग ने झाँका. पुछा "क्या हुआ गाड़ी ख़राब हो गयी "

हमने उनसे लिफ्ट के लिए रिक्वेस्ट की।.

"आजाओ …. अंदर आजाओ" उनके इस जवाब से सब लोगों की जान में जान आयी हम लोग उनके साथ लिफ्ट लेकर गांव पहुंचे 

आकाश के घर में घुसते हुए उसकी कही हर बात मेरे कानो में गूंजने लगी।.एक कमरे में कुछ महिलाएं  एक बुजुर्ग सी महिला जो शायद आकाश की माँ थी को घेरे बैठी थी, मैं और श्वेता जा कर उनके पास बैठ गए, श्वेता ने बताया हम आकाश के साथ पढ़ते थे, 

"अच्छा… अच्छा… हाँ तुम लोगों की बड़ी बातें करता था आकाश" उन्होने आँखों में  आये  आंसुओं को रोकते हुए कहा 

"मैं श्वेता हूँ और ये प्रिया है वो अली, विकास, और रानी" सबको उनसे इंट्रोडूस करवायाा, थोड़ी देर बाद उन्होंने कहा "रात बहुत हो गयी है आप लोग सो जाईये",

उन्होंने किसी को आवाज़ दी और उसके साथ अली और विकास को पड़ोस के घर में सोने भेज दिया. रानी, श्वेता और मुझे कहा "आप लोग बगल के कमरे में सो जाईये", श्वेता और रानी तो चली गयी पर मैं वही रुकी रही 

"तुम भी चली जाओ "वो मुझे रुका हुआ देख कर बोली, 

"मांजी में थोड़ी देर में चली जाउंगी" मैने कहा।... 

"अच्छा' कह कर वो बगल में सोई काजल को थपकी देने लगी और कहने लगी" आप लोगों का धन्यवाद आप लोग आये  मेरा दुख बांटने..पर मुझे जो दुःख भगवान ने दिया है।.उसको तो मुझे ही उठाना पड़ेगा, ये एक साल की काजल का क्या होगा सोच के कलेजा मुँह को आता है कह कर वो सुबक पड़ी, मैं उठ के उनके पास गयी और उनको संभाला। 

"मांजी आपको विश्वास तो नहीं होगा पर ये सच है हादसे के बाद आकाश मेरे से मिला था, उनको सारी बात बताई, वादे वाली बात सुन कर वो फूट फूट के रोने लगी।.रोते रोते कहने लगी "बहुत चाहता था तुम्हे आकाश ,जान  से भी ज्यादा ,  पर  भगवन को शायद कुछ और ही मंज़ूर था"..................................................

हम दोनों सुबकने लगे 

मैंने रुक कर कहा' आप चिंता मत कीजिये अब  मैं  हूँ , आपकी और काजल की ज़िम्मेदारी अब मेरी है। 

ये सुन वो थोड़ा संभली... और बोली "पर बेटा ये कैसे होगा, तुम्हारे रिश्तेदार हमारे रिश्तेदार क्या कहेंगे, समाज क्या कहेगा फिर तुम्हारी अपनी भी तो ज़िन्दगी है "

"मांजी मेरे तो कोई रिश्तेदार हैं नहीं, और आपके भी जैसा की आकाश ने बताया था कोई नजदीकी रिश्तेदार है नहीं जो कोई ऐतराज करे, वैसे भी कोई रिश्तेदार अभी कहाँ आया आपका दुःख बांटने, उनकी चिंता मत करिये, जहाँ तक बात समाज की है उसका सामना में करूंगी"   मैंने उनको समझाते हुए कहा

"पर बेटा कल तुम्हारी भी शादी होगी, तुम्हारे अपने बच्चे, अपना घर"   कह कर वो रुक गयी....

 फिर बोलीं "बुरा मत मानना, बहुत मुश्किल होता है बेटा, ,अपना बच्चा अपना ही होता है, फिर तुम्हारे पति इस को स्वीकार करे या नहीं" क्यों अपनी ज़िन्दगी को दांव पर लगाती हो, भगवान भरोसे है हम,….. राम भला करेंगे",,,कह कर वो फिर सुबकने लगी  

 "पति होगा तब ऐतराज करेगा न, मैं शादी ही नहीं करूंगी, मांजी काजल ही अब मेरा जीवन है आप दोनों ही अब मेरा परिवार है "मेरे में न जाने कहाँ से इतनी हिम्मत और दृढ़शक्ति आगयी थी,, 

"नहीं बेटा तुम सोच कर देख लो कई बार भावनाओ में आकर उठाया हुआ कदम बाद में पश्चाताप का अहसास कराता है 'मांजी ने मुझे समझाने का प्रयत्न किया 

"पश्चाताप तो मेरा पूरा नहीं होगा अगर मैने ये नहीं क्या तो, ,सारी उम्र मैं आत्म ग्लानि की आग में जलती रहूंगी मैं , और आकाश से किये हुए वादे का क्या, उसकी आत्मा का यूँ आना मेरे पर विश्वास करना, मतलब उसे मुझसे आशा थी,मेरे पर विश्वास था,उसका विश्वास यूँही तोड़ दूँ ? नहीं मांजी नहीं, मैने इरादा कर लिया है और आज मैं आपको वचन देती हूँ की मैं कभी शादी नहीं करुँगी और काजल को अपनी बेटी जैसा प्यार दुलार दूँगी "मैं अपने निश्चय पर अडिग थी

"पर बेटी मेरा कोई भरोसा नहीं,आज हूँ कल नहीं तुम कैसे इस बच्ची को अकेले संभालोगी, तुम तो खुद एक बच्ची हो, कोई अनुभव भी नहीं बच्चे के रख रखाव का" वो अभी भी मुझे समझाने की कोशिश कर रही थी

"मांजी जब लड़की पहली बार माँ बनती है तब भी तो उसको कोई अनुभव नहीं होता, वो भी तो अपने बच्चे को संभाल ही लेती है" मेरी दृढ़शक्ति के आगे मां ने भी हार मान ली 

काजल और माँ को लेकर मैं अपने शहर चली आयी,  श्वेता और बाकि दोस्तों के कहने पर काजल के कानूनी तौर पर गोद लेने के औपचारिकताएं भी कर ली, अब काजल मेरी कानूनी तौर पर बेटी थी काजल भी धीरे धीरे मेरे से घुलमिल गयी हम दोनों को यूँ घुलता मिलता देख मांजी भी प्रसन्न रहने लगी,

काजल का पास के एक प्ले स्कूल में दाखिला करा दिया और उसकी देख रेख के लिए एक मेड भी रख ली, मेरे ऑफिस से आते ही काजल मेरी गोद में चढ़ जाती और अपनी टूटी फूटी भाषा में अपने पूरे दिन के बारे में बताती, मेरी गोद में बैठ कर ही खाना खाती.एक दिन मांजी हमको खेलता देख  कहने लगी " तुमने इसे असली मां के जैसा प्यार दिया है...अब मैं चैन से मर सकुंगी, भगवान् तुम्हे सलामत रखे " 

"ऐसे क्यों कह रही हो मांजी " मैने टोंका तो कहने लगीं "और नहीं तो क्या एक बस इसकी चिंता थी पर अब नहीं है, ,और अब दिन ही कितने बचे है।.

और वास्तव में ऐसा ही हुआ।..कुछ दिन बाद मां भी चल बसी।..मैं फिर से अकेली हो गयी थी पर इस बार मेरे पास जीने की, हंसने की एक खूबसूरत सी वजह थी – 'काजल' 

काजल को बड़े स्कूल में एडमिशन कराने का वक़्त आगया था पर सबसे बड़ी चिंता थी उसके देख रेख की, माँ के जाने के बाद मेड के भरोसे मैं उसे पूरे दिन नहीं छोड़ना चाहती थी, और मेरे ऑफिस का टाइम ९:३० से ६:३० तक का था, बात धर्म संकट की थी पर मैं काजल के साथ कोई चांस नहीं लेना चाहती थी, इसलिए मैने नौकरी छोड़ने का फैसला किया. श्वेता को जब ये बताया तो वो गुस्से से बोली " पागल हो गयी हो इतनी अच्छी जॉब, अच्छी सैलरी, , अच्छा फिर क्या करोगी।.खर्चा कैसे चलेगा जरा बताओ"  

" देखते है" मैने कहा न जाने कहाँ से इतने दृढ़ फैसले करने की हिम्मत मेरे में आ गयी थी, ये सब आकाश का ही तो उधार था, उसने ही मुझे जीना ,वक़्त से लड़ना सिखाया था।.. बात उसकी सही थी, फ्लैट का किराया, काजल के स्कूल की फीस ये सब को लेकर मैं चिंतित थी

मैं नौकरी छोड़ने से पहले दूसरी नौकरी ढूंढ़ने लगी, कोशिश कर रही थी पर कहीं बात नहीं बन रही थी, कहते हैं न की अगर आपके इरादे मज़बूत हो और दृढ़ इच्छाशक्ति हो तो अवसर अपने आप पैदा हो जाते है,  

काजल को रोज़ाना शाम को मैं  अपार्टमेंट्स के पार्क में ले जाती थी वहां और बच्चे भी आते थे, काजल बच्चों के साथ खेलती और,उसके साथ मैं भी खेलने लगती थी, मुझे भी उनके साथ खेलने मैं बड़ा मज़ा आता था और बच्चे भी मेरे साथ बहुत एन्जॉय करते थे एक दिन जब हम लोग खेल कर वापस जा रहे थे तो पीछे से आवाज आयी " "एक्सक्यूज़ मी " देखा तो एक महिला खड़ी थी। 

"जी आप " मैने पुछा 

"मैं मिसेज खन्ना, इसी बिल्डिंग में रहती हूँ, सी ब्लॉक में, एक स्कूल में प्रिंसिपल हूँ" "आप को अक्सर  बच्चों के साथ खेलते हुए देखती हूँ, आप बहुत जल्द बच्चों के साथ घुल मिल जाती हैं और बच्चे भी आपको बहुत पसंद करते है और आपकी कंपनी को लाइक करते हैं, ये हुनर बहुत ही कम लोगो में होता है"

"जी थैंक्स" मैने शिष्टाचारवश कहा ,वो आगे कहने लगी 'दरअसल मैं आप की ही जैसी एक लड़की को ढून्ढ  रही थी जो हमारे स्कूल के बच्चों को खेल खेल में सीखा सके और कुछ ऐसी एक्टिविट्स डिज़ाइन कर सके जो बच्चों को स्कूल आने के लिए मोटीवेट कर सके",

"पर मैं तो एक फैशन डिज़ाइनर हूँ, स्कूल का कोई अनुभव नहीं मुझे" मैने थोड़ा हचकिचाते हुए कहा 

वो मुस्करायी और कहने लगीं "मेरे हिसाब से किसी काम को पर्फेक्ट्ली  करने की लिए उसकी स्किल्स या उसके अनुभव से कही ज्यादा पैशन की जरूरत होती है,,, और जिस काम को इंसान करते हुए एन्जॉय करे वो काम हमेशा परफेक्ट होता है . और आप में दोनों चीज़ें हैं - पैशन और आप बच्चों के साथ एन्जॉय भी करती है।.. है न ? आप मेरे अनुसार उस प्रोफाइल  के लिए सबसे फिट रहेंगी, क्या आप हमारे लिए काम करेंगी, आपको स्कूल के तरफ से कई सुवधायें मिलेंगी जिसमे शामिल होगी आपके रहने के लिए फ्लैट, और बच्चे की पढाई फ्री, सैलरी आप जो बोले ? कह कर वो फिर मुस्कारयी 

मेरे मन की मुराद पूरी हो गयी थी ऐसा प्रतीत हुआ जैसे साक्षात् भगवन मेरी मदद करने को आये हो 

मैने वो स्कूल में नौकरी कर ली,  काजल का भी एडमिशन करा दिया 

जीवन यूँही चलने लगा, काजल अब बड़ी हो रही थी, जब भी वो अपने पापा के बारे में पूछती तो में आकाश की तस्वीर दिखती और बताती की उसके पापा कितने हिम्मत वाले थे.

अक्सर अकेले में आकाश की तस्वीर के सामने खड़े हो कर पूछती मेरे से काजल के पालन पोषण में कोई कमी तो नहीं रह रही, मैने अपना वादा ठीक से निभाया न? 

"अरे कहाँ खो गयी" श्वेता की आवाज़ से मेरा ध्यान टूटा,

मैने हँसते हुए कहा अरे यूँही यादों में खो गयी थी।.तुम जाओ जल्दी हाथ मुँह धो कर आओ, मैं नाश्ता लगाती हूँ," श्वेता को वाशरूम दिखा कर में किचन में नाश्ता बनाने लगी।   नाश्ता लेके जैसे ही डाइनिंग टेबल पर पहुंची वहां देख कर एक बार तो होश ही उड़ गए।....

"आकाश"..तुम.... मैं आकाश देख कर अपनी जगह जैसे जम सी गयी

"हाँ…. डरी तो नहीं तुम?" उसने मुस्कराते हुए पुछा

मेरी साँसे तेजी से चलने लगी आँखों से आंसू बह निकले, ,,मैं दौड़ कर उसके पास गयी।..उसको छू कर देखा।.तुम और फिर  उससे लिपट गयी 

आकाश .....इससे ज्यादा मैं बोल नहीं पायी और आँखो से सैलाब निकल पड़ा।....

वो अपने चिरपरिचित अंदाज़ में हँसते हुए बोला "फिर वही रोना धोना।..अब क्यों रो क्यों रही हो ?" 

मैने अपने आप को थोड़ा संभालते हुए कहा " इतने दिन कहाँ थे, कितनी अकेली थी मैं...पहले भी तो आ सकते थे जैसे उस दिन आये थे. 

वो मुस्करा के बोला " मैं आया था कई बार" 

"अच्छा झूठ मत बोलो, अच्छा बताओ जरा कब आये थे " मैने रोते हुए पुछा

वो फिर मुस्कराया, "आया था पर नज़र नहीं आया," वो कहने लगा " डॉ. मेघा का सिगरेट के धुएं को नोटिस करना कितना मददगार रहा तुम्हे ये प्रूव करना की तुम मेरे से मिली थी वरना लोग तो तुम्हे पागल ही समझ बैठते, वो सब महज संयोग नहीं था और "वो बूढ़े सज्जन याद है जिन्होने तुम लोगो को अपनी गाड़ी  में लिफ्ट दी थी जब तुम लोग मेरे गांव जा रहे थे। वो मैं ही तो था "

"ओह माय गॉड" मेरा मुँह अचरज से खुला रह गया

"मिसिज खन्ना का यूँ आना और जॉब ऑफर करना वो क्या था, वो सब मैने ही तो किया था, मैं तुम्हे दिखता नहीं पर तुम लोगो के आस पास ही रहता हूँ," उसकी बात सुन कर मैं आश्चर्यचकित रह गयी  ।  अनायास मुँह से निकल पड़ा "हे भवगवान "...

"मेरे सपने को, मेरी ज़िम्मेदारी को तुमने अपना सपना अपनी ज़िम्मेदारी समझी.तो मेरी भी तो थोड़ी ज़िम्मेदारी बनती है न." कह कर फिर मुस्कराया और कहने लगा "प्रिया मैं तुम्हे थैंक्स कहने आया हूँ की तुमने मेरा वादा बहुत खूबी से निभाया उसके लिए तुमने बहुत त्याग और बलिदान दिए.. उसके लिये में तुम्हारा कृतग हूँ."

"कृतग तो मैं रहूंगी तुम्हारे प्रति की तुमने मुझे जीना और हालातों  से लड़ना सिखाया,  उस दिन  सुब्रमण्यम सर की क्लास में मेरा प्रेजेंटेशन ख़राब हो जाने के बाद कितनी इंसल्ट हुए थी मेरी ,उसके बाद मैंने मन ही मन सोच लिया था की ये कोर्स छोड़ दूँगी पर तुम्हारी कही हुई बातों ने मुझे एक अनजानी सी शक्ति और जोश से भर दिया था , जीवन के फलसफे तुमने ही तो सिखाये और तो और मुझे उस दिन के लिए माफ़ भी कर दिया  जब तुम मुझे अपने माता पिता से मिलाने के लिए मेरा इंतज़ार करते रह गए और मैं नहीं आयी, ये सब अहसान ही तो हैं मेरे ऊपर। आँसूं मेरे आँखों से और शब्द मेरे होंठों से निकले जा रहे थे , उसने मेरे चेहरे को अपने दोनों हाथों में लेते हुए मेरे आंसू  पोछते हुए  मुस्करा के बोला " प्रिया अब मेरे जाने का समय आ गया है" 

" मतलब ? अब तुम नहीं आओगे"?  मैने जिज्ञासावश पुछा 

"ज़रूरत हुई तो आऊंगा कहते हुई उसने मुझे गले लगाया और फिर और फिर तेजी से दरवाज़े से बाहर निकल कर नज़रों से ओझल हो गया   

"अरे किस से बातें कर रही थी " श्वेता कमरे से निकलते हुए बोली 

"अरे  कुछ नहीं ,युहीं  बस, तुम बैठो नाश्ता करो" मैंने उसको नाश्ते की टेबल पर बुलाते हुए कहा

 आकाश से मिल कर बहुत हल्का महसूस कर रही थी, शायद इसलिए की मैने उसको दिया वादा अभी तक तो ढंग से निभा दिया था, बहुत देर उस परदे को देखती रही जो उसके तेज़ी से बाहर निकलने पर अभी भी उड़ रहा था..... यही सोच कर की शायद फिर मुलाकात हो।


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