आदमी और इंसान
आदमी और इंसान
दरवाजे की घंटी बजे जा रही थी ,मेधा ने जैसे ही दरवाजा खोला देवाशीष गुस्से में भुनभुनता हुआ घर में दाखिल होते हुए बोला "कितनी देर लगा दी दरवाज़ा खोलने में, कब से घंटी बजा रहा हूँ"
"अरे आ ही तो रही थी " मेधा ने दरवाज़ा बंद करते हुए कहा
बेटे को देख मिश्राजी ने रोज की भांति पुछा " आगए बेटा " पिता को बैठक में बैठा देख बड़े ही रूखे तरीके से हाँ बोल कर देवाशीष अपने कमरे में चला गया उसकी पीछे पीछे मेधा भी।
"क्या हुआ इतने गुस्से में क्यों हो "मेधा ने पुछा
"अरे कॉलोनी वाले सारे फिर वही बात कर रहे है की मिश्रा जी सठिया गए है इसलिए प्लास्टिक की थैलियां लेकर यहाँ वहाँ रखते रहते हैं या उनके बेटा बहु उनको अच्छा खाना नहीं देते इसलिए बेचारे चुपचाप मुँह अँधेरे उसे प्लास्टिक थैलियों में बंद कर घर के आस पास फेंक देते है, तंग आ गया हूँ मैं ये सुन सुन कर " देवाशीष झलाते हुए बोला
" पर अब पिताजी को क्या कहे और कैसे कहें " मेधा ने अपनी मजबूरी बताते हुए कहा
"कहना तो पड़ेगा न, लोग तरह तरह की बातें बना रहे है। अब तो इज़्ज़त का सवाल हो गया है" देवाशीष गुस्से में बोला
"आप टेंशन न लो रिलैक्स करो, कुछ सोचते है" मेधा ने देवाशीष को चिंतित होते देख कहा
मिश्राजी बड़े सरकारी ओहदे से रिटायर्ड थे और कानून कायदों के बड़े पाबंद, घर का कानून था की रात का खाना सब साथ खाएंगे उसी अनुसार रात को खाने की टेबल पर सब इकट्ठा हुए पर एक अजीब सी चुप्पी थी , मिश्राजी ने चुप्पी तोड़ते हुए पुछा "कुछ टेंशन में लग रहे हो आज जब से दफ्तर से आये हो, क्या बात है देबु ?"
"कुछ नहीं पिताजी बस ऐसे ही " देवाशीष नज़रे चुराते हुए बोला
"इसकी बचपन की आदत है बातों को मन में छुपा के रखता है" मिश्रा जी मुस्कराते हुए अपनी बहु की तरफ मुखातिब होते हुए बोले " थोड़ा इंट्रोवर्ट है हमारा देबु "
"पापा ! मैं अब ३८ साल का हो गया हूँ, मुझे अब देबु मत बुलाया करें, मेरा नाम है न, आप लोगों ने ही रखा है” देवाशीष अपने गुस्से को थोड़ा सयंत करते हुए बोला।
"अरे तुम तो हमारे लिए हमेशा ही देबु ही रहोगे ,बच्चे कब माँ बाप के लिए बड़े होते है। " मिश्रा जी कि आवाज़ में संतान के लिए मोह और वात्सल्य साफ़ झलक रहा था
देबाशीष को इन बातों में ज़रा भी रूचि नज़र नहीं आ रही थी वो नीची नज़रे किये अपना खाना खाता रहा। मिश्राजी उसे देख थोड़ा मुस्कराये और बोले "मुझे पता है तुम क्यों परेशान हो ,इसीलिए न की कॉलोनी वाले कह रहे है की मिश्राजी पागल हो गए है ,सठिया गए है या उनके बेटा बहु उनको अच्छा खाना नहीं देते इसलिए वो खाना थैलियों में भर कर यहाँ वहां फेंक देते है ,यही बात है न ?”
ये सुन कर मेधा और देवाशीष सन्न रह गए
मेधा ने कहा "नहीं ......नहीं... ऐसा नहीं ,...........पर वो पिताजी...... असल में...........। "
उसको अटकता देख मिश्राजी ने कहा "बहु मुझे पता है की यही बात है जो तुम दोनों को परेशान करे जा रही है। क्यों सही कह रहा हूँ न"
"वो पिताजी आज भी कुछ लोग कह रहे थे की..................। " देवाशीष कहते कहते रुक गया
"क्या तुम्हे भी लगता है कि में सठिया गया हूँ या मुझे तुम्हारा दिया खाना अच्छा नहीं लगता और मैं तुम्हारी नज़रें बचा के खाना फ़ेंक देता हूँ " मिश्राजी ने दोनों की तरफ देखते हुए पुछा।
"नहीं नहीं ऐसा नहीं है" दोनों सम्मिलित स्वर में बोल उठे ।
"पर पिताजी आप ऐसा क्यों करते है" देवाशीष ने हिम्मत जुटाते हुए पुछा।
अपने चिरपरिचित मुस्कान के साथ मिश्राजी बोले "जवाब चाहिए तो सुबह ६ बजे मेरे साथ छत पर चलना।
"छत पर ,पर क्यों?" देवाशीष जिज्ञासावश पूछ बैठा।
"ये तो सुबह ही पता चलेगा " मिश्राजी थोड़ा शरारती अंदाज़ में बोले।
तय प्रोग्राम के मुताबिक मिश्राजी और देबाशीष अलसुबह छत पर पहुंचे और ऐसे जगह खड़े हो गए जहाँ नीचे से लोग आसानी से न देख सके ,थोड़ी देर बाद वहां पर कचरा बीनने वाली एक २५ साल की औरत जिसके गोद में एक दूधमुँहा बच्चा और साथ में एक ५-६ साल की बच्ची थी आयी । औरत और बच्ची ने थैलियां बीनना शुरू किया एक थैली में खाना देख बच्ची की आंखों में एक चमक सी आ गयी अपनी माँ की तरफ देखते हुए बोली "माँ खाना " । दोनों ने जल्दी से खाने की थैलियां अपने थैले में डाली और यहाँ वहां बिखरी बाकी थैलियां जल्दी जल्दी बीनने लगी और फिर वहां से चली गयी।
मिश्राजी ने देवाशीष के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा "ये लोग गरीब ज़रूर हैं पर भीख नहीं मांगते है , खुद्दार है। थैलियां जमा कर के उसे प्लास्टिक बनाने वाली कंपनियों को बेच कर अपना गुजरा चलाते है , वैसे इससे गुज़ारे लायक पैसा तो नहीं कमा पाते ये लोग,पर किसी के आगे हाथ नहीं फैलाते। कभी सोचा है तुमने की भगवान ने हमे ऐसा आराम का और इनको ऐसा कठिन जीवन क्यों दिया ?
देवाशीष बोला "नहीं पता पिताजी "।
" इसका जवाब किसी के पास नहीं है । ऊपर वाला जैसा भी जीवन हमे दे, हमे उसे जीना पड़ता है। सबका अपना अपना एक संघर्ष है"। मिश्राजी बोले जा रहे थे "अगर भगवान ने इनका जीवन ज्यादा संघर्ष वाला दिया है और हमे कम संघर्ष का तो यह हमारी ज़िम्मेदारी बनती है की हम उनके संघर्ष को कम करने में उनकी मदद करें । भगवान ने हमारा हाथ देने वाला बनाया है क्यूंकि हमें ऐसी कई झोलियों को भरना है और हम इनकी मदद कर के भगवान का माध्यम बन रहे है।
तुमने देखा उस औरत के गोद में एक दूध पीता बच्चा और साथ में एक छोटी बच्ची थी , तुम्हे लगता है की उस दूध पिलाने वाली माँ और उसके बच्चों को पौष्टिक और स्वादिष्ट तो छोड़ो, क्या दो वक़्त का खाना भी मिलता होगा? और पता है तुम्हे ये लोग कहाँ रहते है" मिश्राजी आगे कहने लगे " वो सामने जो ब्रिज दिख रहा है न उसके नीचे सर्दी -गर्मी ,बरसात सब मौसम सहते है । क्यों है उनका जीवन ऐसा ? ये शायद उनको भी नहीं पता ।
इसलिए मैं ये थैलियां जमा कर यहाँ वहां रख देता हूँ और कई थैलियों में खाना भी डाल देता हूँ ,कभी रोटी कभी बिस्कुट क्यूंकि ये लोग जैसा मैने बताया खुद्दार है और मेहनती भी, किसी से मांगेगे नहीं इसलिए थोड़ी मदद मैं कर देता हूँ जिससे इनका काम थोड़ा आसान हो जाये । ये लोग भी इंसान है, इन्हे भी जीने का हक़ है, हम धार्मिक स्थानों पर लाखों का चढ़ावा चढ़ा कर सोचते है की हम भगवान को खुश कर रहे है पर शायद नहीं, भगवान तो तब खुश होंगे जब हम इन लोगों को जीने में मदद करे, उनका सहारा बने और उन्हे एक इंसान समझ सम्मानजनक जीवन जीने में सहयता करें। हमें आदमी की बजाय इंसान बनना पड़ेगा और इंसान को इंसान के काम आना चाहिए ।
पिता की बात सुन देबाशीष की आँखें भर आयी, कहने लगा " पिताजी मुझे माफ कर दीजिए हम लोग आप को गलत समझ बैठे"
"बेटा गलती तुम्हारी नहीं है आमतौर पर हम लोगों की बातों में आ कर बिना सत्यता का पता लगाए ही एक निष्कर्ष पर पहुंच जातें है। इसलिए पहले सोचो, समझो, परखो और फिर किसी निर्णय पर पहुचों "। मिश्राजी ने बेटे की तरफ मुस्कराते हुए कहा। देबाशीष अपने पिता से लिपट कर रोने लगा उसकी आँखों से बहती अविरल अश्रुधारा की हर बूँद में उसका पश्चाताप था और शायद दिल में जमा सारा ग़ुबार भी ।
