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mujeeb khan

Children Stories Inspirational

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mujeeb khan

Children Stories Inspirational

पिताजी की सीख

पिताजी की सीख

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आज सुबह जब उठा तो कुछ नया नहीं था, वही अलसाई सी सुबह, ऑफिस नहीं जाने की बेफिक्री,सब कुछ वैसा ही था जैसा पिछले ६ महीने से चल रहा था,

हाथ मुँह धो कर अपने नित्य नियमानुसार आँगन में आये पछियों को दाना डाल कर अख़बार पढ़ने बैठा ही था की रसोई में से श्रीमती जी की आवाज आयी "अरे चाय ले आऊं क्या "  

मैंने अख़बार का पन्ना पलटते हुए कहा" हां ले आईये " 

"क्या खबर है आज की ये मुआ कोरोना गया की नहीं " चाय का कप रखते हुए श्रीमती जी बोली 

"अरे नहीं, कहाँ गया. अभी तो रहेगा ये " मैने अख़बार में नज़रे गड़ाए हुए कहा 

"अच्छी मुसीबत हो गयी ये तो, वैसे ही ज़िन्दगी क्या खाक अच्छी चल रही थी की ये और ऊपर से, पहले ही कोई कम चिंताए थी की ये और सर पर आ धमका 

पहले तो आप के काम पर  और बच्चों के स्कूल कॉलेज जाने के बाद दो मिनट आराम के तो मिल जाते थे , अब तो सारा दिन चाय नाश्ता खाना में ही बीत जाता है, फिर ये २० सेकंड बार बार हाथ धोवो  ,सब्जी, सामान सब कुछ सेनिटाइज करो . न कही आने के न जाने के ,जाओ तो ये मुआ मास्क का पर्दा और पहनो .पता नहीं कौनसे पाप किये थे पिछले जनम में जो ये सब देखना पड़ रहा है."

 बड़बड़ाती हुई श्रीमती जी वापस किचन में चली गयी...

इस सारे एक तरफ़ा सवांद मे ख़ुशी मुझे इस बात की थी की इन में से किसी भी चीज़ के लिए मुझे ज़िम्मेदार नहीं ठहराया गया, अन्यथा आधे से ज्यादा चीज़े जो बिगड़ जाती थी उन सब का ज़िम्मेदार मैं ही होता था, मन ही मन शुक्र मानते और मुस्कराते हुए मैं अख़बार पढ़ने लगा,

अभी दो चार सामचार ही पढ़े थे की रसोई से फिर प्रेमपूर्वक संवाद छोड़ा गया .

" अब इस अख़बार में ही मत घुसे रहना पूरा दिन, दिवाली आरही है साफ़ सफाई मैं मदद करो मेरी और कोरोना ने एक काम तो अच्छा किया की तुम्हारे कॉलेज बंद है बस ऑनलाइन क्लास लेकर फ्री, अब कोई बहाना भी नहीं चलेगा तुम्हारा, कुछ सुना की नहीं " 

"हाँ हाँ सुन लिया "मैने उस प्रेममयी संवाद को विराम देने की कोशिश की 

पर लगता था प्रेम का तो  आज तो बवंडर ही आया हुआ था कहाँ रुकने वाला था ?

रसोई से नासा के छोड़े राकेट की भांति आकर मेरे पास बैठते हुए बोली " अरे कम से कम अपनी किताबों की अलमारी तो साफ़ करलो, पता नहीं क्या क्या ठूंस रखा है बरसो से उसमे "

इतने में सनी और चिंकी इस प्रेमपूर्वक सवांद को सुन अपने कमरों से बहार निकल आये  

 " अरे क्यों सुबह सुबह पापा पर इतना क्यों चिल्ला रही हो " सनी ने अपनी माँ को देखते हुए बोला

"अरे मम्मी कभी तो दिन कूल रह कर शुरू किया करो" चिंकी ने भी सनी के साथ सुर मिलाया 

बेटे, बेटी को देख श्रीमती जी की टोन अचानक बदल सी गयी "अरे मैं तुम्हारे पापा से कह रही हूँ की दिवाली पर कम से कम अपनी किताबो की अलमारी ही साफ़ करलो "

सनी बोला" अरे मम्मी क्यों पापा को क्यों टेंशन दे रही हो अपन लोग मिल के कर लेते है न, क्यों चिंकी दीदी, पापा वैसे ही ऑनलाइन क्लास के पचड़े फंसे रहते है, टेक्नोलॉजी में कितने अनकम्फर्टेबल है वो "

"हाँ यार सनी तू सही कह रहा है" मैने बेटे से सहमति जताई 

"मेंरे तो एक्साम्स है मुझे प्लीज किसी चीज़ मे शामिल मत करना"  चिंकी ने अपने आप को इस प्रोजेक्ट से अलग करते हुए कहा और अपना दूध का गिलास लेके वापस अपने कमरे में चली गयी 

"अपन लोग मिल के......... नहीं नहीं बाबा नहीं "सनी तूने वो कहावत सुनी है "आसमान सर पर उठा लेना " श्रीमती जी ने बेटे की तरफ देख कर पुछा "हाँ सुनी तो है पर इसका इससे क्या लेना देना" सनी  ने सवाल किया 

"एक बार मैने इनकी अलमारी की थोड़ी सी सफाई क्या कर दी थी की आसमान सर पर उठा लिया था इन्होने" श्रीमती जी का व्यख्यान शुरू हो चूका था  

"आपने" आसमान सर पर ".... सनी का मुँह आश्चचर्य से खुला सा रह गया और मेरी और देखने लगा और फिर हंस दिया ,

 मैने भी अनभिज्ञता दिखाई "मैने ???" कब"?? नहीं नहीं "

"पर पापा ने क्यों किया ऐसा " ? सनी ने अपनी माँ से पुछा 

 "भाई पता नहीं कौनसा एक कागज़ खो गया था ,१५ दिनों तक मेरे से बात नहीं की. और पता हैं कौन सा कागज़ था वो? इनकी स्कूल की पांचवी की फीस की रसीद मैने कहा उसका क्या करते तो पता है क्या बोले थे की सनी, चिंकी जब बड़े होगे तो बताता की हमारे ज़माने में पांचवी की फीस २०० रूपया थी अब तू बता ये क्या बात हुई, न बाबा न मैं तो हाथ ही न लगाऊं पता नहीं कौन सा सोना चांदी है उसमे "

श्रीमतीजी के अल्पविराम लेते देख मैने उनकी और देखते हुए कहा " शिक्षक से शादी हुई है तुम्हारी, सुनार से होती तो अवश्य उसमे सोना चांदी होते, पर एक शिक्षक के लिए उसकी किताबे ही सोना चांदी होती है '...............

"वाह वाह फिर क्लास शुरू हो गयी तुम्हारी ..अपने स्टूडेंट्स को ही देना ये ज्ञान" कहते हुए वापस वो रसोई में चली गयी 

सनी ने मेरी और देखा और हम दोनों मुस्करा दिए "तेरी मां दिल की बुरी नहीं हैं, ये सब वो प्रेमपूर्वक ही कहती है और मेरे अलावा कहे भी किससे" मैने सनी को देखते हुए कहा 

"जानता हूँ पापा आप भी ये सब बातें उनका मन रखने के लिए सुन लेते हो और मान भी जाते हो" 

"क्या खुसर पुसर हो रही है दोनों बाप बेटों में" रसोई से ही श्रीमती जी का जी पी ऐस और वाई फाई चालू था और बाहर के सिग्नल पकड़ रहा था " चलो चलो  अपने अपने काम पर लग जाओ ये सुन के हम दोनों मुस्करा कर अपने अपने कमरों की और चल दिए 

अपने स्टडी में आकर मैने अपनी अलमारी साफ़ करनी शुरू की तो यादों का पिटारा सा खुलता चला गया 

ये अलमारी मुझे पिताजी से वसीहत में मिली चंद चीज़ों में से एक थी, कुछ चीज़े उसमे अभी भी उन्ही की पड़ी हुई है, उनकी किताबे, उनको मिले पुरुस्कार, प्रशस्ति पत्र, नेताओ, प्रसिद्ध, नामी लोगो के साथ तस्वीरें ...दरअसल .नाम, ईमानदारी और इज़्ज़त बस यही तो एक दौलत उन्होने कमाई थी पूरी ज़िन्दगी में और यही मुझे वसीयत में मिली थी .ये सब देखते सोचते पिताजी की याद से आँखें नम सी हो आयी,  

आगे बढ़ा तो कुछ और यादों का पुलिंदा मिला, माँ पिताजी की साथ खिचवाई फोटो, जैसा मुझे याद है शायद पेंशन के लिए खिचवाई थी, दोनों को साथ देख मन भारी सा हो गया, माँ को देख के तो ऐसा लगा की अभी बोल देगी "अरे इतना दुबला क्यों दिख रहा है ठीक से खाता पीता नहीं क्या?" माँ तो माँ ही होती है न..... निच्छल... सरल ममतामयी प्रेम से परिपूर्ण ...बस अब तो सिर्फ यादों में ही रह गए है माँ पिताजी......प्रकृति का भी अजीब नियम है माता पिता पहले संतानोत्पति करतेहै फिर उसकी अच्छी परवरिश करते है फिर एक दिन दुनिया में उसको अकेला छोड़ जाते है.......पर पता नहीं क्यों  

 पुरानी यादें मन को अजीब सी ठंडक दे रही थी 

आगे बढ़ा तो कुछ कागजो में एक कागज़ मिला जिस पर माँ का के हाथों से खुद का नाम टूटी फूटी लिखावट में कई बार लिखा हुआ मिला, मुझे याद है पिताजी ने बैंक और इन्शुरेंस के कागजो में  नॉमिनी बनाने के लिए माँ से ये हस्ताक्षर करने की प्रैक्टिस कराई थी, दरअसल पांचवी कक्षा तक  ही तो पढ़ी थी माँ, पर गजब की प्रशाशनिक बुद्धिमता और दूरदर्शिता थी उनमे, दृढ़ता की प्रतीक थी वो, जीवन के पाठ तो उनसे ही पढ़े थे हमने .

दूसरे आले में कुछ तस्वीरे बचपन की  निकली कुछ मेरी अकेली ,कुछ रवि की साथ,  

रवि मेरा भाई, मेरे से एक साल छोटा, आजकल अमेरिका में है, एक तस्वीर में दोनों तक़रीबन २ साल के है  ,,, वो केला खा रहा है और उसका छिलका मुझे दे रहा है, बहुत हँसते थे हम सब लोग उस तस्वीर को देख कर , माँ पिताजी कहते थे बहुत चालक है हमारा रवि, और ये शेखर यानि मैं बिलकुल भोले भंडारी और वास्तव में हुआ भी यही, रवि बड़ी होशियारी से अमेरिका निकल गया और में यही रह गया क्योंकि माँ पिताजी के पास किसी एक को तो रुकना था,

वैसे ये बलिदान मैने स्वेछा से और सहर्ष दिया था, अपने छोटे भाई के सपनो को पूरा करने के लिए और अपने माता पिता की सेवा के लिए मैने टाटा समूह से आया नौकरी का  प्रस्ताव ठुकरा दिया क्योंकि उसमे मुझे पूरे भारतवर्ष में अलग अलग जगह कही भी पोस्टिंग दी जा सकती थी. और पिताजी और माँ शहर छोड़ने को बिलकुल राज़ी नहीं थे .मैने अपनी प्राथमिकता अपना परिवार और अपने रिश्तों को रखा, और मैने उनको निभाया भी, सौभाग्य से माँ पिताजी की आखरी समय सेवा करने का मुझे अवसर भी मिला, उनकी दवा दारू,इलाज, सेवा सुश्रा सब मैने और श्रीमतीजी ने की, उनके मुँह में गंगाजल डालने से लेकर अस्थिया विसर्जित करने तक  सारे फ़र्ज़ मैने निभाए/ वैसे तो कुछ ज्यादा अपेक्षाएं नहीं थी मुझे रवि से, पर इतना निष्ठुर हो जायेगा वो इसकी उम्मीद नहीं थी . माँ के इलाज के लिए उसने कुछ मदद भी नहीं की और न माँ पिताजी के किसी कर्मकांड में सक्रिय रहा, इंसान कैसे बदल जाता है ये मेरे आज तक समझ नहीं पाया .

सबसे ऊपर के आले में कुछ पुराने कागज़ ओर मेरे कुछ सर्टिफिकेट्स के साथ कोने में एक छोटी सी गठरी नुमा चीज़ नज़र आई ... "अरे ये क्या चीज़ है मन ही मन सोचने लगा, ,हाथ बढ़ा कर निकाला तो कपड़े में लिपटा हुआ कोई खिलौना था, खोला तो आश्चर्यचकित ख़ुशी से मन अभिभूत हो गया ये तो "भोलू बन्दर है"मेरा खिलौना, पिताजी ने मुझे दिलाया था, मैने ही तो इसे यहाँ छिपाया था वरना मेरे और खिलोने के जैसे ये भी श्रीमतीजी द्वारा किसी को दान दिया जा चूका होता.

 भोलू बन्दर की भी कहानी बड़ी अजीब है दरअसल ये एक चाबी वाला बन्दर था जिसके एक हाथ में ड्रम और दूसरे में उसको बजाने का स्टिक था और चाबी भरने पर वो ड्रम को बजाता था. हमारे पड़ोस में रहने वाले अरोड़ा अंकल के मेरी हमउम्र बेटे लकी के पास ऐसा खिलौना मैने देखा था,वो बैटरी से चलता था ,अरोड़ा अंकल बिजनेसमैन थे विदेश जाते रहते थे वही  से वो ये खिलौना लाये थे  लकी ने जब वो खिलौना मुझे दिखया तो मुझे बड़ा पसंद आया, घर आकर मैने ज़िद पकड़ ली वैसा ही बन्दर लेने की, माँ ने बहुत समझाया की ऐसा खिलौना बहुत महंगा आता है और अपने शहर मैं नहीं मिलता पर मैने एक न सुनी और रो रो कर घर सर पर उठा लिया, खाना पीना सब बंद, आमरण अनशन पर बैठ गया . 

पिताजी दफ्तर से लौटे तो उनको माँ ने सारी  बात बताई, 

पिताजी ने मुझे बुलाया और पुछा "तुम्हारे खाना नहीं खाने से तुम्हे खिलौना मिल जायेगा?"

 मैने न में सर हिलया, "तो फिर जल्दी आंसू पोछो और पहले  खाना खाओ", पिताजी की बात मानते हुए मैने जल्दी से अपनी शर्ट की बाँहों से आंसू पोंछे और खाने बैठ गया . 

"रुको" पिताजी की आवाज़ सुन के सहम सा गया, "शर्ट की बाहें आंसू पोछने के लिए नहीं होती, "ये लो" अपना रुमाल मेरी ओर बढ़ाते हुए बोले इससे पोंछो और हाथ मुँह धो कर खाना खाने बैठा करो .ये बात हमेशा ध्यान रखना और दूसरी बात ज़िद करना अच्छी बात होती है पर उसकी कुछ अच्छी वजह भी तो अच्छी होनी चाहिए ?

हम दोनों ने खाना खाया फिर  उन्होने मुझे स्कूटर पर बिठाया ओर खिलोने  की दुकान पर ले गए  

वहां बिलकुल वैसा बन्दर तो नहीं मिला पर हाँ उससे मिलता जुलता ये "भोलू बन्दर" मुझे पसंद आ गया घर लौटते  में पिताजी ने स्कूटर रास्ते में पड़ने वाली चौपाटी पर रोक लिया, चौपाटी हमारे शहर का एक सैर सपाटा स्थल था, जहाँ भांति भांति के खाने पीने की चीज़े मिलती थी  

 "आइसक्रीम खाओगे "पिताजी ने पुछा 

मेरे मन में पिताजी के इस प्रस्ताव पर भययुक्त हर्ष की सी अनुभूति हुई,डरते डरते मैने हाँ में सर हिला दिया  

उन्होंने मेरे हाथ पर १ रुपया रखते हुए कहा ""जाओ अपनी मनपसंद आइसक्रीम ले आओ" और खुद वह लगी बेंच पर बैठ गए मैं ख़ुशी से वहां खड़े बीसिओं आइसक्रीम के ठेलो की तरफ तेजी से दौड पड़ा 

अब वहां बड़ी विडंबना थी की जो आइसक्रीम मुझे पसंद थी उसकी कीमत एक रूपये से जयादा थी और जो एक रूपये की थी  वो मुझे कुछ खास पसंद नहीं थी, पर आइसक्रीम तो खानी थी सो एक रूपये में जो सबसे अच्छी आइसक्रीम थी वो ले आया और खाने लगा, पिताजी मुझे खाता देखते रहे और मुस्कराते रहे, जब मैने खा ली तो पिताजी ने पुछा "अच्छी लगी ?मज़ा आया "

"जी पिताजी" मैंने खुश होते हुए कहा 

"एक बात बताओ" पिताजी पूछने लगे "मैने देखा था की तुम आइसक्रीम के लिए वहां खड़े सारे अच्छे से अच्छे ठेलो पर गए पर अंत में तुमने आखिर में खड़े एक ठेले पर से ये आइसक्रीम खरीदी ऐसा क्यों किया ?'

"वो पिताजी मेरे पास सिर्फ एक ही रुपया था और सब जगह आइसक्रीम १ रुपए से ज्यादा की थी, बस वो आखिर में खड़े ठेले वाले के पास एक रुपए वाली मिली" मैने अपनी आइसक्रीम कथा सुनायी 

" ओह अच्छा "पर मज़ा तो आया न " ख़ुशी भी मिली तुम्हे" ? पिताजी मुस्कराते हुए बोले 

"हां पिताजी "मैने ख़ुशी ख़ुशी कहा 

"अब मेरी बात ध्यान से सुनो" पिताजी आगे कहने लगे " तुम्हे पता है की मैने तुम्हे एक रूपया ही क्यों दिया ? क्यूंकि मैं चाहता था था की तुम एक रूपये के अंदर अंदर आने वाली आइसक्रीम खरीदो 

अब जब तुम्हारे पास एक रुपया ही था और आइसक्रीम भी खानी थी तो तुमने उसी एक रूपये में अपनी ख़ुशी ढून्ढ ली और खुश हो गए" . 

हमारी ख़ुशी का निर्णय हम खुद करते है दूसरे नहीं,हम को किस चीज़ से, किस चीज़ में ख़ुशी मिलती है ये भी हम ही निर्णय करते है... क्यों ? क्यूंकि ये हमारी ज़िन्दगी है, हम खुद इसे जियेंगे अपने हिसाब से, दूसरों के हिसाब से नहीं, विक्की का खिलौना देख के तुमको वैसा ही खिलौना चाहिए था क्यों? क्यूंकि तुम उसकी जैसी ख़ुशी चाहते थे .जबकि तुम्हारे पास ऐसे सैकड़ो खिलोने होंगे जो विक्की के पास नहीं है . और तो और सबसे बड़ा खिलौना तुम्हारे पास है भगवान का दिया तुम्हारा छोटा भाई रवि जो विक्की के पास नहीं है, समझे ? पिताजी कहे जा रहे थे, " अपनी ख़ुशी को अपने आस पास ढूंढो, पर इसका ये मतलब नहीं की हम दूसरों को देख कर आँख ही मूँद ले, या उनकी ख़ुशी से  जलने लगे और अपनी किस्मत को कोसे, तब हम या तो उस कुए के मेंढक जैसे हो जायेंगे जो कुए को दुनिया और खुद को कुए का राजा समझाता है या जलन के मारे अपने विकास के सारे मार्ग अवरुद्ध कर लेंगे . दूसरों को खुश होता देख दुखी मत होना की तुम्हारे पास वो नहीं है, तुम्हारे पास जो है उसमे खुश हो, क्यूंकि अगर तुम गौर से देखो तो कई ऐसे लोग होंगे जिनके पास वो भी नहीं है जो तुम्हारे पास है  

ये खिलौन तुम्हे मैने इसलिए दिलवाया क्यूंकि तुम्हारी ये पहली ज़िद थी और तुम्हे ये सीख भी देनी थी, मुझे विश्वास है की तुम्हारी ये ज़िद आखरी भी होगी क्यूंकि अब तुम ज़िद किसी अच्छी वजह के लिए करोगे, समझ गएे"? मेरे सर पर प्यार से हाथ फेरते हुए पिताजी बोले, मैं उनसे लिपट गया, जीवन के गूढ़ विषय की सीख कितने सरल तरीके से पिताजी ने मुझे समझा दी थी.

घर आने पर माँ ने इसका नाम भोलू बन्दर रख दिया क्यूंकि ये मेरा खिलौना था और उनके अनुसार मैं भी भोलू था .

 सुनहरी यादों के समुन्दर में सरोबार होकर मैं वर्तमान में लौटा और सोचा ये सुनहरी याद और भोलू बन्दर को अपने बच्चों को दिखाऊ .ख़ुशी ख़ुशी मैने भोलू में चाभी भरी और 

अपने कमरे से निकल कर मैने आवाज़ लगाई "देखो देखो सनी, चिंकी,देखो  कौन तुमसे मिलने आया है 

भोलू बाजा बजाने लगा और मैं उसे लेकर हाल में आगया 

 बाहर आ कर देखा तो हॉल में एक सोफे पर श्रीमतीजी फ़ोन में व्यस्त थी, एक कोने मे सनी अपने फ़ोन में, चिंकी अपने कमरे में ऑनलाइन क्लास में ....... मेरी आवाज़ पर श्रीमतीजी पलटी मुझे भोलू बन्दर को लिए देख खूब हंसी और फ़ोन पर कहने लगी " हाँ माँ आपके दामाद साहब बिलकुल ठीक है आप पूछ रही थी न, देखो बन्दर  लिए बच्चे बने घूम रहे है देखो आपको फोटो भेजती हूँ और पलक झपकते ही मेरी  भोलू के साथ वाली तस्वीर मेरे ससुराल के वाटस ऐप ग्रुप में वायरल हो गयी, और श्रीमती जी कॉन्फ्रेंस कॉल पर अपने घरवालों के साथ बिजी हो गयी, मेरी भोलू वाली फोटो जो मिल गयी थी डिस्कशन के लिए ...

सनी ने एक बार के लिए अपने गेम से नज़र हटाई और बोला " सो क्यूट " और फिर बिजी हो गया..

 मैं अपने भोलू बन्दर को लिए खड़ा ही रह गया सोचा था भोलू की कहानी और पिताजी की सीख साझा करूँगा अपने बच्चों से, अपने परिवार से . पर यहाँ तो सब अपने मैं ही बिजी थे,  

मैं भोलू को सीने से लगाए वापस अपने कमरे में आगया, भोलू ने भी बाजा बजाना बंद कर दिया था उसमे भरी चाबी शiयद ख़तम हो गयी थी रुआँसा होके मैने भोलू को टेबल पर रखा और सोचने लगा इंसान ने टेलीफोन का अविष्कार दूर रह रहे लोगो से संपर्क के लिए बनाया होगा पर इस से तो पास वाले ही दूर होगये, ,रही सही कसर ये कोरोना ने पूरी कर दी सब कुछ ऑनलाइन होने से मानवीय सवेंदनायें और संबंध  तो गौण ही हो गए और बस इलेक्ट्रॉनिक छदम युग में इंसान बिजी हो गया ...

आँखों में आये आंसूं  पोंछने  लगा, , इतने में अचानक से भोलू ने अपना ढोल बजाना शुरू कर दिया, शiयद उसकी चाबी कुछ बाकि रह गयी थी अनायास ही मैने भोलू को देखा तो ऐसा प्रतीत हुआ मानो मुझे देख रहा है और कह रहा है "रोना नहीं" पिताजी की बात याद है न अपनी ख़ुशी का निर्णय हम खुद करेंगे, दूसरे नहीं, और जो है उसमे ख़ुशी ढूंढो, भोलू ढोल बजा रहा था मैं भीगी आँखों से हंस रहा था और भोलू को देख रहा था।


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