यादों में डॉ जी बी सहाय
यादों में डॉ जी बी सहाय
डॉ गोपी बल्लभ सहाय फादर ऑफ मेडिकल जुरिस्प्रूडेंट ऑफ बिहार ,इनका हर काम अनोखा था। दरभंगा मेडिकल कॉलेज के प्रिंसिपल पद से रिटायर करने के बाद ग्यारह साल तक अपने घर पर रह कर गरीब मरीजों की सेवा करते रहे।
उन्हें पढ़ने की बहुत ललक थी। रिटारमेंट के बाद उन्होंने इंग्लिश और उर्दू विषय लेकर बी.ए. की परीक्षा दी और उत्तीर्ण हुए। इंग्लिश में एम .ए. करना चाहा पर रिटायरमेंट के पूरे ग्यारह साल बाद जमशेदपुर में मेडिकल कॉलेज को सुचारू रूप से चलाने के लिए मैनेजमेंट के आग्रह पर नए जोश से चल पड़े। कॉलेज को भली-भांति खड़ा कर मुजफ्फरपुर (बिहार) के मेडिकल कॉलेज को संवारा। अस्सी साल की अवस्था में अनुग्रह नारायण मेडिकल कॉलेज गया के जुरिस्प्रूडेंट डिपार्टमेंट को संवारने चल पड़
इस अवस्था में भी अपना निजी काम खुद करते। ब्रेड ऑमलेट खाने के शौकीन थे। अस्सी वर्ष की अवस्था में भी खुद ही अपने लिए ऑमलेट बनाना पसंद करते थे।
इनके जीवन की सबसे मजेदार बात ये है कि उन दिनों बिहार में एम.एस.की पढ़ाई नहीं थी। उनके प्रयास से ही पटना मेडिकल कॉलेज में एम. एस.की पढ़ाई प्रारम्भ हुई। इन्होंने भी अपना नाम इनरोल कराया। जब परीक्षा की घड़ी आई तो इनके एग्जामिनर ने इनकी परीक्षा लेने से इनकार कर दिया क्योंकि इनके ज्ञान के आगे वे अपने को तुच्छ पा रहे थे। इनके कारण सभी की परीक्षा स्थगित हो गई। जब इन्होंने परीक्षा से अपना नाम वापस लिया तब जाकर औरों की परीक्षा सम्पूर्ण हुई।
इन्होंने एम. एस. की डिग्री प्राप्त नहीं किया था पर इन्हें एम.एस. का एग्जामिनर बना कर कलकत्ता और लखनऊ भेजा जाता था।
जब वे नौकरी में थे तब बिहार में जुरिस्प्रूडेंट की न पढ़ाई थी और न ही कोई इसके विषय में कुछ जनता था। उन दिनों मौत के कारण को ढूंढे बिना गवाह के आधार पर हर तरह के केस का निबटारा होता था जो अवैज्ञानिक था। इसमें अकसर कसूरवार छूट जाते और बेकसूर को सजा हो जाती। डॉ साहब को ये बात नागवार गुजरती। उन्होंने इस विधा पर कार्य प्रारम्भ किया और अपने शोध के आधार पर मौत का सही कारण ढूंढने के वैज्ञानिक निराकरण ढूंढा। इस कारण ही उन्हें फादर ऑफ मेडिकल जुरिस्प्रूडेंट ऑफ बिहार कहा गया।
उस प्रयोग के लिए उन्होंने अनेक उपकरण अपने पास खरीद कर इकट्ठा किया था। गया मेडिकल कॉलेज में आकर उन्होंने जुरिस्प्रूडेंट का एक म्यूजियम स्थापित किया ताकि मेडिकल के स्टूडेंट को पढ़ने में सुविधा हो। इस म्यूजियम को उन्होंने अपने पास के सारे उपकरणों से सजाया जो आज भी वहाँ देखा जा सकता है।
बुढापा क्या होता है उन्हें नहीं पता था। अस्सी एकासी साल की अवस्था में भी वे नियमित कॉलेज जाते और स्टूडेंट को खड़ा रह कर घंटो पढ़ाते। स्टूडेंट तक जाते थे पर ये नहीं थकते थे। वे अपने स्टूडेंट से कहते जब भी तुमलोगों को पढ़ने की इच्छा हो तो तीन घंटा का समय ले मेरे पास आ जाओ। तीन घंटा वे खड़े रह कर पढ़ा। बयासी साल की अवस्था में गिर जाने से इनके कूल्हे की हड्डी टूट गई। ऑपरेशन से हड्डी जुटी और पुनः वे अपने पांव पर चलना शुरू किया। ऐसी अवस्था में भी वे अपना सब काम स्वयं करते। घर वाले परेशान पर होते पर उन्हें कोई आपत्ति नहीं। जीवन के अंतिम क्षण तक वे सक्रिय रहे।
उनकी पत्नी अत्यधिक पूजा-पाठ करती थीं पर उनकी पूजा उनका काम था। सात वर्ष की अवस्था में पिता का साया सर से उठ गया। माता और दो वर्ष बड़े भाई ने बड़े जतन से उन्हें पढ़ाया। पिता की आकस्मिक मौत ने बचपन में ही उन्हें डॉक्टर बनने को प्रेरित किया। बड़े भाई वकालत पढ़े और ये मेडिकल। उन्होंने अपने जीवन में अपने बड़े भाई को भगवान का दर्जा प्रदान किया
पूरे जीवन में उन्होंने एक मंत्र का उच्चारण किया जो उनके बड़े भाई उनके जीवन के अंतिम क्षणों में उन्हें दिया - "श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे, हे नाथ नारायण वासुदेव।"
वे हमारे प्रेरणा के स्रोत हैं। मेडिकल विभाग में खास कर जुरिस्प्रूडेंट में आज भी सभी इन्हें आदर देते हैं।