यादों की छाप
यादों की छाप
आज तुम दिखी ठीक उतनी ही सुबह जितनी सुबह भेजा करती थी अपना प्यार समेट कर उस एक संदेश में । लेकिन तुम तो जा चुकी हो मुझसे ठीक उतनी दूर जितनी दूर मैं खुद से हूँ ,फिर भी अक्सर तुम दिख जाया करती हों मुझे, शायद ऐसा इसलिए भी होता होगा की मैं महीनों से सोया नहीं हूँ ,खो गयी है मेरी नींद भी उस मुस्कान की तरह जो तुम्हारे साथ होने पर मेरे चेहरे पर होती थी ।
आज दिखी थी तुम उस सुबह वाली मेट्रो में जो रोज सुबह एक ही जगह से अपने सफर को तय करती है पर आज का ये सफर खास था क्योंकि इस सफर में तुम थी ,हाँ जनता हूँ वो तुम नहीं थी क्योंकि तुम तो मुझे उसी मोड़ पर छोड़ मीलों आगे निकल आयी हो ,लेकिन वो बहुत हद तक तुम सी थी वही तुम जिसे मिला था मैं हल्की सर्द शाम में उस भीड़ भरे बाजार में ठीक तुम सा ही नूर चमक रहा था उस पर भी । भीड़ भरी मेट्रो में उसके चेहरे पर भी ,ठीक वही मुस्कान थी उसने भी सजाई हुई थी वो लाली जो मुझसे मिलने पर तुम्हारे चेहरे पर होती थी । ठीक उसने भी उतना ही काजल लगाया हुआ था जितना तुमको लगाना पसन्द था ।
पहले तो मुझे लगता था की भगवान ने शायद वो साँचा तोड़ दिया होगा जिसमें तुमको बनाया होगा लेकिन फिर वो बात भी ध्यान आयी की दुनिया में एक ही जैसे 7 लोग होते है । आज भी जब भीड़ में कोई तुम सा दिख जाता है तो वो उतना ही सुकूनदेय होता है जितना सावन की पहली बरसात । मैं तो अब भी यही सोच रहा हूँ की वो तुम सी थी ,अगर तुम होती तो क्या होता ।

