सफलता का सफर
सफलता का सफर
"Succes is a journey not a destination" बहुत ही उम्दा कहा है किसी ने सफलता तो मात्र एक यात्रा है तभी तो आज के समय के सभी महान अरबपतियों के द्वारा आज भी कमर तोड़ मेहनत कि जा रही है ।
आज ये सभी अरबपति भले ही उम्र के किसी पड़ाव पर हो लेकिन उनका प्रति दिन तोड़ा और आगे बढ़ने की निरंतरता आज ये सत्यापित करती है की सफलता का कोई विराम बिंदु नही होता।
अब कही न कही आप के मन में भी ये सवाल आ ही रहा होगा की अगर हमने सफलता की कोई सीमा निर्धारित नही की तो क्या इससे लोगो में लोभ की प्रवृति का विकाश नही होगा ।दरअसल हमे ये बात सीधे रूप में अपने मन में रमा लेनी चाहिए की वास्तविक सफलता सिर्फ gartitude लाती है और मिथ्या सफलता
आगे बढ़ने से पहले में एक बात सीधे तौर पर आप लोगो को बता देना चाहता हूँ की ये मेरे विचार है और उम्मीद करता हूँ की आपके विचार इससे अलग होंगे ।
आज के इस मशीनी युग में हमने दिन को 72 घंटे का बनाने की रार जो ठानी है उससे तो सीधे ही सफलता की परिभाषा ही बदल जाती ।
अगर मैं वैदिक काल में अपनी स्मृति को ले जाऊ तो मेरे जानकारी के अनुकूल उस युग में सफलता तो मात्र अपनी कर्म प्रधानता पर विराजमान थी अर्थात सफलता की परिभाषा ही अपने कर्तव्य का निर्वाहन करना होता था ।
जिसे हम वर्ण वयवस्था के सनिध्ये में निम्न रूप में सारगर्भित कर सकते है -
(1) ब्राह्मण - वर्ण में उच्च और सफलता को परिभाषित करते हुए ये वर्ग ईश्वर की आराधना और निष्ठा पूर्ण अनुष्ठानों का निर्वाह करना ही अपनी सफतला मानता था ।
अर्थात अपनी योग्यता को ही अपनी सफलता का नाम दिया गया था ।
(2) क्षत्रिय - अपने भुजाओ के बल के लिए प्रशिद्ध ये वर्ग युद्ध करना और अपने साम्राजय का विस्तार करना ही सफलता मानता था ।
ब्राह्मण वर्ग ने इस वर्ग को हिदायत दी की यदि ये वर्ग अपनी प्रत्येक विजय के उपरांत वैदिक अनुष्ठान करवाता है तभी इनकी ये सफलता सार्थक सिद्ध होगी अन्यथा इस सफलता का उनके भौतिक जीवन में कोई मोल नही रहेगा ।
(3) वैश्य - वर्ण में तीसरे स्थान पर रहने वाला ये वर्ग वैदिक काल से ही अपनी बुद्धिमता के लिए प्रसिद्ध रहा है ।
इस वर्ग ने अपने कर्म अनुसार व्यवसाय करना और धन को अर्जित करना ही सफलता माना ।
किंतु अपनी नैतिक जिम्मेदारी समझते हुए इस वर्ग ने भी दान पुण्य के मार्ग को ही अपनाया ।
(4) शुद्र - सबसे अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण इस वर्ग ने सफलता को कोई परिभाषा नही दी । इस वर्ग ने उस समाज के सभी वर्गों के बीच सामंजस्य बनाये रखने तथा उपरोक्त सभी वर्गों के काम को स्वयं करके ही सफलता को समाज कल्याण का ही एक रूप बताया ।
वैदिक काल से आज तक के इस तकनिकी युग में सफलता की सभी परिभाषा ने इतना तो सफर तय कर ही लिया है की ये अब अपने वास्तविक रूप को छोड़ कर आज भौतिक रूप में मौजूद है
जहाँ पहले सफलता कर्म प्रधान होती थी वही आज सफलता अपने आप को ऐश्वर्ये और अपने भौतिक रूप में खुद को सामने रखती है।
हम आज इस युग में खुद को सफलता के पैमाने पर आंकते आंकते इतने आगे निकल चुके है की हम वास्तविक सफलता को भूल चुके है। हम आज सफलता को भौतिक तर्क पर आंकते है और यही से सफलता और उसके साथ जन्म लेती है थोड़ा और पाने की हमारी इच्छा । यही से जन्म होता है उस लोभ का जिसने आज वर्तमान समय में सफलता की परिभाषा ही बदल कर रख दी है ।
मेरे दृष्टिकोण से तो आज सफलता और लोभ यानी लालच साथ साथ चलने वाली दो अलग अलग किंतु एक ही चीजे है। आज जो थोड़ा और पाने का लोभ है न ये हमे हमारे वास्तविक रूप से दूर खिंच रहा है और बना रहा है हमको मशीन ,जगा रहा है जोश दिन के 24 घंटो को 36 में बदलने की ।
आज लोग लगे है आगे बढ़ने की होड़ में बन रहे है मशीनें बेच रहे खुद को अपने वक़्त को और पा रहे है सफलता ।
आज के इस युग में हम इतनी तेजी से भाग रहे है की सब कुछ छूट रहा है पीछे उतना पीछे जितना छूटता है भागती हुई ट्रैन की खिड़कियों से बाहर का आवरण , हम आगे बढ़ तो रहे है मगर पीछे छोड़ते जा रहे उस परिभाषा को जो हमे बताती है सच्चे सफलता को ।
