चांद और तारे
चांद और तारे
एक रोज हम सब भी आसमान में तारो की तरह चमकेंगे ठीक उतनी ही चमक होगी हमारे पास भी जितनी कभी हुआ करती थी हमारे चाँद की। ये तो वही वाला चाँद है ना जो हमे बचपन से जवानी तक लुभाता हुआ आया है और जब-तब ये उम्र के अंतिम शिखर पर भी हमे स्वर्ग की दिलासा दिलाने में कामयाब रहा है।
बचपन मे ये वाला चाँद जितना रहस्यमयी हुआ करता था आज जवानी में ये उतना ही संजीदा हो गया है। लेकिन कुछ भी हो पूरे आसमा में ये एक ही है जिसने अपना किरदार बखूबी निभाया है। बचपन मे मामा से लेकर जवानी में महबूब और न जाने किस-किस नामो से हमने इसे बुलाया है लेकिन चाँद तो एक ही है ना औऱ जो ये चाँद है ना इसने लाख फरेबों से दूर अपना किरदार बख़ूबी निभाया है।
उम्र के हर पड़ाव में चाँद से तो हमारा अलग ही लगाव रहा है और ये वक़्त के साथ निरंतर अपने चरम पर होता गया है।
पूनम की रात को बचपन वाला चाँद हमे दूध के कटोरे से लेकर बर्फ के गोले जैसा भी दिखा है तो जवानी में यही चाँद कैसे हमारे ख्वाबो की एक दुनिया बन गया ये तो उम्र के इस पड़ाव पर आकर शायद ही कोई समझा पाया होगा।
आज जब हम उम्र के इस दौर में है ,हाँ मैं और आप या हमारे जैसे कुछ और जो बचपन वाले मामा और जवानी वाले महबूब से दूर देर रात किसी पीपल के पेड़ के साये में बैठ उस चाँद में बड़े ही बेरुखी वाले मिज़ाज़ से सुकून तलास रहे होते है। तो जो ये वाला चाँद है न ये तो बस हमे हमसे ही आज़ाद कर देने का सहारा सा लगता है।
आज जब उम्र का वो दौर जो हम जी चुके है हमारे सामने ठीक वैसे ही प्रतीत होता है जैसे सफर के दौरान गाड़ी से छुटती हुई चीजें। तब जरूरत महसूस होती है खुद को ढूंढने की और आज जब देर रात तक उल्लू की भांति भी आंखे मटकाने से हम खुद को नही ढूंढ पाते तो बस चाँद से बेरुखि दिखाना ही हम सवोपरि समझते है।
असल मे हम जो ये देर रात तक जग कर खुद की तलाश करते है ना ये हमने ही हमारे अंदर खत्म कर दिया है।
असल मे हम सब ना अपने ही बोझ से दबे हुए है किसी को failure का बोझ है तो किसी को career का। कोई प्यार में नाकामयाब रहा है तो किसी को टूटते रिस्तो का। किसी को हालात ने मारा है तो कोई किसी के गम में मर रहा है।
आखिर हम सब दबे हुए ही तो है और जो जितना ज्यादा दबा होता है वो उतनी ज्यादा देर तक जगता है।
कई बार हम खुद को इतना ज्यादा दबा हुआ पाते है कि हमे घुटन होने लगता है खाली पड़ी मेट्रो में भी हमे वायु का प्रवाह खत्म सा लगता है। भीड़ -भाड़ वाली जगहों पर हम हर उस इंसान की मुस्कान और कामयाबी से खुद को जकड़ा हुआ पाते है तो दूसरी तरफ हर वो मुस्कुराता चेहरा हमे किसी तिलस्मी माया सा प्रतीत होने लगता है।
हम सब भागने लगते है खुद से ,अपनी नाकामी से ,अपने गमो से ,अपने डर से, हाँ हम सब भागते है शायद भागना ही हमे सबसे आसान लगता है इन चीजों से बच निकलने का।
फिर किसी रोज हम भागते -भागते इतना दूर निकल आते है की पीछे मुड़ने पर खुद को भी नही पाते है ठीक उसी तरह जैसे किसी रात हम किसी सुनसान सड़क पर खुद को अकेला पाते है और हमारा डर हमे धीरे -धीरे लोहे की जंजीरों में जकड़े निगल रहा हो।जानते हो ये वही दौर होता है जब हम सब मार चुके होते है खुद को ही ,अपनी उम्मीदों को और अपने सपने को। जीवन के इसी दौर में हमे तलब होती है मुक्ति की और ढूंढने लगते है हम फिर से एक बार उसी चाँद में मुक्ति का द्वार जो कभी हमारा हमनवा हुआ करता था। खुद को मिटाने की 8इच्छा इतनी ज्यादा प्रबल होती है इस दौर में की हम रातो को बेख़ौफ़ जगा करते है एकांत की तलाश में सुनसान सड़को पर चला करते है अब हमें डर नही होता उन जंजीरो का जो कभी निगल रही होती है हमे अब तो हम खुद को मिटाने का मन बना कर ही निकलते है और ऐसे ही खुद से लड़ते लड़ते एक रोज हम फिर से उस चाँद के हमनवा हो जाते है और चमकने लगते है ठीक उस चाँद के बगल में एक छोटा सा तारा बन कर। अब हमें ये चिंता नही होती कि ये वाला चाँद मामा है या महबूब अब तो बस ये हमनवा सा लगने लगता है। फिर से किसी पूनम की रात हम यूँही तलाश करने लगते है किसी तारे को जो मिलो दूर बैठे लड़ रहा होता है खुद को ही खुद से आज़ाद करने की जंग।

