व्यथा
व्यथा
शर्मा जी पत्रकार है।वे ऑफिस जा रहे थे तो उन्हें रास्ते में एक व्यक्ति बेहोश दिखा, उसे उठाकर अस्पताल ले गए और जब तक वह होश में नहीं आया, वहीं बैठे रहे। डॉ. ने बताया कि कई दिनों से खाना न खाने के कारण वह अचेत हो गया था। वे सोचने लगे कि हमारे देश में एक ओर कितना खाना बरबाद होता है दूसरी ओर लोग भूखों मर रहे हैं। होश में आने पर उसे खाना खिलाकर और कुछ पैसे व अपना फोन नंबर देकर निकल गए।
सहसा उन्हें अपने दोस्त की बताई एक घटना याद आई। उनका एक मित्र जर्मनी की यात्रा के दौरान दोस्तों के साथ डिनर के लिए एक होटल में गया था। वहाँ उसने पाँच - छह खाने के आइटम का ऑर्डर दिया।जब उन्होंने बिल दे दिया और निकलने लगे तो होटल के मैनेजर ने आकर उनके व्यवहार के प्रति खेद जताया।उन्हें समझ में नहीं आया तब मैनेजर ने प्लेट की तरफ इशारा करते हुए कहा कि उन्होंने खाना छोड़ दिया है।इसपर मित्र नाराज हो गए और कहा कि उन्होंने पूरा पेमेंट कर दिया है तो उसे बोलने का क्या हक है। थोड़ी देर में वहाँ फूड डिपार्टमेंट का एक बडा अधिकारी आया और उन्हें न सिर्फ गलती का अहसास दिलाया बल्कि उनपर पचास यूरो का जुर्माना भी लगा दिया। वास्तव में देखा जाए तो वहाँ के लोग कितने जिम्मेदार हैं। एक विकसित देश का पर्याय केवल भौतिक संसाधनों की समृद्धि नहीं,बल्कि सोच भी परिपक्व होना चाहिए।
आज विडंबना की बात यह है कि हमारे यहाँ आए दिन शादी-समारोह, बर्डे- पार्टी में न जाने कितना खाना बरबाद होता है और हमारा ध्यान ही इस ओर नहीं जाता। सदियों से हमारे बडे -बुजुर्गो ने यह सीख दी है कि कहीं से भी कोई अच्छी सीख मिले तो उसे अपनाना चाहिए। अगर आज भी हम नहीं जागे तो ऐसे ही लोग भूखों मरते रहेंगे और हम मूक दर्शक बनकर उनकी मौत का तमाशा देखेंगे।