खो -खो
खो -खो
उन दिनों की बात है जब मैं दसवीं में थी। हर साल हम डी डिवीजन से हार जाते थे पर इस बार हमने जोरदार तैयारी की थी और तय किया था कि इस साल खो-खो की जीत हमारे क्लास के नाम होगी ।
पहला मैच हमारा 10 बी के साथ हुआ और हम आसानी से मैच जीत गये।धीरे-धीरे हम आगे बढ़ते गये। सेमीफाइनल मैच 10 डी के साथ था और उनका हौसला बुलंद था क्योंकि यही टीम थी जिसमें हमारे जीत के रथ को रोकने का दमखम था। एक तरफ उन्हें अपनी जीत का पूरा विश्वास था और दूसरी तरफ उन्हें हर हाल में हराने का हमारा प्रण। हम यह अच्छी तरह जानते थे कि यह आखिरी मौका है और इसके बाद हमें फिर कभी अवसर नहीं मिलेगा। साथ ही साथ हम यह अवसर गँवाना नहीं चाहते थे। काँटे की टक्कर थी। पहले हाफ में वे हमसे एक पाइंट आगे थे। खेल के दौरान वे काफी आक्रामक हो गए थे। वे जान गए थे हमें नियम से हराना उतना आसान नहीं है ।अतः वे हमें लाइन के बाहर धक्का मारकर निकालने लगे।
हमने तय किया कि हम सीमा रेखा के पास नहीं जाएंगे। खेल इतना विचित्र मोड़ पर पहुँच गया था कि हम दोनों टीम अंदाजा ही नहीं लगा पाए कि मैच कौन जीता। अंपायर ने घोषणा की कि हम एक पाइंट से जीत गए। पर वे अंपायर के निर्णय से सहमत ही नहीं थे और उनका मानना था कि फिर से मैच हो पर अंपायर ने इस बात से साफ इनकार कर दिया और हमारी जीत पर मुहर लगा दी। चूंकि मैं टीम की कप्तान थी। फलतः उन्होंने मेरी पिटाई की योजना बना ली परंतु उनकी योजना विफल रही। फाइनल मैच 9 बी के साथ हुआ और उन्हेंं हराकर ट्राफी हमने अपने नाम कर ली।
उस साल खो-खो मैच के दौरान इतना हंगामा हुआ कि स्कूल ने तय किया कि आज के बाद खो-खो मैच का आयोजन नहीं होगा। इस तरह खो - खो मैच की आखिरी ट्राफी हमारे नाम हुई।