वसुधैव कुटुम्बकम
वसुधैव कुटुम्बकम
'भाई साहब! ओ भाई साहब! जरा मुझे ये पता तो पढ़कर बता दीजिए।' रामू ने चाय की दुकान पर एक पढा - लिखा दिखने वाले एक अनजान आदमी से बड़े उतावले पन से पूछा।
'क्या! वसुधैव कुटुम्बकम... वो शर्मा जी का घर, जिनके दो बेटे है।' आदमी ने कागज का टुकड़ा हाथ में लेते हुए कहा।
रामू ने तुरंत खुशी से सिर हिला कर कहा-' हाँ... हाँ... साहब वहीं शर्मा जी के घर मुझे जाना हैं। शर्मा जी बहुत ही अच्छे इंसान है। उनके चलते ही मेरा बेटऊवा मरने से बच गया, नहीं तो मुआ प्राइवेट डाकदर लोग तो हमरे बेटऊवा को पैसे के बिना मार डालते। उस समय साहब तो हमारे बेटऊवा के लिए भगवान बन कर आएं थे। पूरे चार महीने में बेटऊवा चल-फिर रहा है। ई सब साहब के दया भाव है।
आज हम उनके और उनके परिवार के लिए अपने खेत के चावल और अरहर का दाल लाएं।'
उसकी बात सुनते ही उस अनजान आदमी ने रामू से कहा - वो भाई! अब वो कहाँ रहते हैं, किसी को कुछ नहीं पता क्योंकि दो महीने पहले ही उनके दोनों बेटों ने उन्हें घर से निकाल दिया और घर का नाम भी अपनी-अपनी पत्नियों के नाम पर रखा है। अब वो वसुधैव कुटुम्बकम नहीं रहा। अब तो 'सुशीला भवन' और 'सुरभि भवन' हो गया है। ये पैसा किसी का भी सगा नहीं होता। देखो पैसों के लालच में होकर बेटे - बहुओं ने अपने सास-ससुर के साथ कैसा व्यवहार किया। हमें तो सोचकर ही शर्म आती है।
रामू उस आदमी की बातों को सुनकर सोचता रहा कि 'ईश्वर ने ठीक ही किया उसे गरीब बनाकर।'