Jiya Prasad

Tragedy Inspirational

4.7  

Jiya Prasad

Tragedy Inspirational

वो

वो

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उसे अस्पताल में बेड पर लेटे-लेटे लगा, अगर उसने एक और साँस ली तो वह मर जाएगा. वह तन मन से पूरी तरह टूटा हुआ था. उसे लग रहा था कि वह एक शरीर नहीं हैं. वह टुकड़ों में बिखरा पड़ा था. उसे इतना पीटा गया था कि होश आने पर वह शरीर के हर घाव को और भीतर तैरते दर्द को गहराई से अनुभव कर सकता था. कमरे में मद्धिम रौशनी थी. वह कुछ ही देर पहले जागा था. उसके हाथ में सुई लगी हुई थी जो बूँद-बूँद पानी को उसके अंदर पहुँचा रही थी.

उसने लेटे-लेटे पिछली रात की घटना को दुबारा सोचने की कोशिश शुरू की. उसके तीन भाइयों वाले मकान में उसकी ज़िंदगी पता नहीं कब से उससे अलग हो चली थी. वह तीन भाइयों में से एक था. मझला बेटा. पिता उसके शरीर को देखकर माथे पर हाथ मार लिया करते थे. उन्हें लगता था कि उनका मझला बेटा ‘मर्द’ नहीं है. शरीर में लड़कियों सी कोमलता है. अक्सर अपनी नेतागिरी के काम से बाहर जाते हुए पत्नी से कहते जाते- “इसका कुछ करो.” भाइयों का भी यही ख़याल था, जो पिता के बॉडी गार्ड की भूमिका में रहते और मुछों को ताव देते थे.

उसने एक रोज़ माँ से पूछा भी- “माँ तुम्हें ग़ुस्सा नहीं आता मुझपर? मैं भाइयों की तरह नहीं हूँ. वो दोनों कितना कुछ कर लेते हैं. पापा के साथ रहते हैं. उनकी मदद करते हैं. लेकिन मुझे तो पापा अपने साथ बर्दाश्त भी नहीं कर पाते.” वह इन बातों को एक रौ में कह गया और भीतर कहीं उदास हो गया. माँ जो एक पौधा छोटे से गमले में लगा रही थीं, उन्होंने उसे पुकार कर कहा- “जरा पानी तो डालना.” उन्होंने उसे प्यार से देखकर कहा- “ज़रूरी नहीं कि हम सब एक जैसे ही हों. हम सब अलग हैं. हमारी पसंद भी अलग-अलग होती है. हम और हमारी आदतें भी. इसलिए मुझे तुम उतने ही प्यारे हो जैसे तुम्हारे दो भाई. तुम्हें किसी मुक़ाबला नहीं करना है. बस ज़िंदगी को जीना है. तुम जैसे हो, वैसे ही रहो.” इतना कहकर, अचानक उन्होंने अपने हाथों में लगी गीली मिट्टी उसके गालों में लगा दी. दोनों इस बात पर हँस पड़े.

शायद रात होने को थी क्योंकि कमरे में बल्ब की रौशनी बढ़ रही थी. उसने करवट बदलने की सोची पर उससे हुआ नहीं. उसके अंदर दर्द का नशा बढ़ रहा था. उसने सोने की कोशिश की पर वह सोच से बाहर नहीं आ पा रहा था. उसने दरवाज़े की ओर देखा. उसे लगा माँ देख रही है. पर वहाँ कोई नहीं था. उसने अपनी स्कूल की ज़िंदगी को दोहराया. आँखें बंद की. उसे दृश्य दिखाई देने लगे. उसे क्लास का वह दृश्य दिखाई दिया जब वह लड़कियों के ग्रुप में बैठा हुआ उनकी बातों को दिलचस्पी से सुन रहा था. लेकिन क्लास के किसी कोने से एक ज़ोरदार ठहाका सुनाई दिया. जब उसने उन ठहाका लगाने वाले लड़कों को देखा तो उनमें एक ने उसकी ओर इशारा करते हुए ताली बजाई. वह एक समुदाय को इंगित करने वाली ताली थी. उसने अचानक आँखें खोल लीं. उन तालियों की गूँज उसके कानों में गूंज रही थी. उसे लगा कि उसे किसी कुएं में धक्का देकर गिराया जा रहा है. वे सभी ठहाके उसके साथ-साथ कुएं में गिर रहे हैं.

कुछ ही देर में नर्स आई. उसने उसे देखते हुए कहा- “कब होश आया?”

वह बोलना चाह रहा था लेकिन उसने ख़ुद को असमर्थ पाया. वह माँ के बारे में पूछना चाहता था लेकिन वह बोल ही नहीं पा रहा था. नर्स ने बिना कुछ कहे ग्लूकोज की बोतल बदली. इंजेक्शन से उसमें दवा डाली और चली गई. उसे अकेलापन महसूस हुआ. बेहद अकेलापन. उसने दीवारों पर नज़र डाली. उसे लगा की दीवारें उससे टकराने के लिए उसकी ओर सिमटी आ रही हैं. उसे घबराहट हुई. उसे लगा उसका गला सूख गया है. उसने कुहनियों पर शारीरिक और मानसिक ज़ोर दिया. वह अपनी छाती हल्के से ही उठा पाया. पर वह उतनी शक्ति नहीं बटोर पाया कि थोड़ा सा पानी पीकर गला तर कर सके. उसने फिर कोशिश की और उठकर बैठने में सफल हो गया. उसने राहत के लिए कुछ साँसें अंदर से बाहर बदलीं. इस बीच हाथ में लगी सुई ने उसे दर्द की एक टीस दी.

उसे उसी क्लास में वह लड़का याद आया जिसने एक दिन क्लास के बोर्ड पर एक ऐसा चित्र बनाया जिसे देखकर सब लोग हँस पड़े थे. यहाँ तक कि उसके ड्राइंग के टीचर भी. उसे हमेशा यह लगता था कि ये टीचर कुछ अच्छे अभ्यास करवाते थे. वह समझते थे. पर उस दिन वह भी उस पर हँस दिए. उन्होंने क्लास में टास्क दिया था कि सब अपनी मर्ज़ी से कोई चित्र बनाए. जब उस लड़के की बारी आई तब उसने बोर्ड पर एक लड़के का चित्र बनाया. उसके पैरों में पेंट और बूट को ड्रॉ किया. पर धड़ वाले हिस्से को औरत की छाती के रूप में बनाया. छाती पर बाल बनाए. बालों को ठीक ‘उसके’ अनुसार बनाया. चॉक से होंठो वाले इससे को गहरा किया. कानों में झुमकों का डिजाइन बनाया. दोनों हाथों को पेंट में डाले हुए दिखाया. चेहरा हँसता हुआ बनाया. और ठीक ऊपर लिखा- “न यहाँ का, न वहाँ कह!” सब उसकी तरफ़ देखकर ज़ोर-ज़ोर से हँस रहे थे. उसके बाद उसे कुछ याद नहीं रहा. वह और अकेला होता जा रहा था.

स्कूल के बाद उसने आगे फैशन डिजाइनिंग की पढ़ाई करने की इच्छा जाहिर की. लेकिन पिता की आवाज़ जैसे बिजली की तरह उसके आगे गिरी- “क्या लड़कियों का कोर्स पढ़ने जा रहे हो! अब ये सब बकवास नहीं चलेगा. कुछ और पढ़ाई का सोचो. कुछ सीखो अपने भाइयों से. वो मर्द की तरह अपनी-अपनी फिल्ड में बेहतर कर रहे हैं. और एक तुम हो...जब से पैदा हुए मेरे सिर को शर्म से झुकाने में लगे हो.”

माँ वहीं खड़ी थीं और चाहती थीं कि ये सब रोक दें. लेकिन वह ऐसा करने की शक्ति नहीं बटोर पाईं. वह चुपचाप खड़ा रहा. पर इस बार उसके मन में अपने लिए खड़े होने की बुनाई चल रही थी. उसने अपने पिता से कहा- “माफ़ करें पापा, पर इस बार मैं वही करूँगा जो मेरा मन है. मेरी वजह से अपना सिर न झुकाया करें. मैं तो कहता हूँ मेरी फ़िक्र ही छोड़ दीजिए. मैं ऐसे ही ठीक हूँ.” वहाँ मौज़ूद उसकी माँ और भाइयों की आँखें हैरानी से फ़ैल गईं और दोनों भाइयों ने उसे आगे न बोलने की धमकी दी. पिता ने आगे बढ़ उसे सीने पर धक्का दिया और उसकी एक हाथ से कालर पकड़ते हुए दूसरे से थप्पड़ मारने ही वाले थे इतने में माँ ने उनका हाथ पकड़ लिया.

पिता माँ को लाल आँखों से देखने लगे. उन्हें यकीन नहीं हुआ कि खूंटे से बंधी बकरी इतनी बड़ी हरक़त कर सकती है. माँ ने आँखों में आँसू लेते हुए पर एक शक्ति को अपने भीतर समेटते हुए कहा- “बस कीजिए. ये आपके मुताबिक़ जीने के लिए नहीं बना. ये ख़ुद के मुताबिक़ जिएगा. इसका जैसा मन होगा वैसा जिएगा. आप अब इसकी ज़िंदगी में दख़ल न दें तो बेहतर होगा.”

पिता इतने ग़ुस्से में थे कि अपनी पत्नी को ज़ोरदार चांटा कुछ इस तरह मारा जैसे वे इस चांटे से पत्नी की जान निकाल लेना चाहते हों. वहीं खड़े दोनों भाइयों ने पिता की इस हरक़त का विरोध नहीं किया. बल्कि माँ को अपनी हद में रहने का फरमान सुनाया. पर माँ फिर उठकर खड़ी हुईं और अपने मझले बेटे का हाथ पकड़कर उससे कहा- “अपना सामान बांधों. बस पहनने के कपड़े रख लो और इस घर का एक सामान भी मत रखना. हम यहाँ नहीं रहेंगे. हमारा वक़्त बस इतना ही था.” जैसे ही वह अपने कमरे की ओर बढ़ने लगा उस पर दोनों भाई ग़ुस्से से टूट पड़े. उन्हें यह ख़याल ही नहीं रहा कि वह उनका ख़ुद का भाई है. उसे इतना मारा गया कि जब उससे होश आया तब उसने ख़ुद अस्पताल में पाया.

रात गहरी हो रही थी. क़रीब नौ बजे होंगे जब उसकी आँखें खुली तब उसकी माँ उसका सिर सहला रही थीं. उसकी आँखें खुलते ही वह तुरंत पूछ बैठी- “कैसा है अभी?” उनकी आँखों में पानी था. उसने पूछा- “अस्पताल कौन लाया?” माँ ने बताया कि उन्होंने ख़ुद को मार देने की धमकी दी तब जाकर उनका मारना रुका. दौड़कर किचन से चाकू लाईं और अपनी गर्दन पर रखते हुए धमकी दी कि एम्बुलेंस को फोन करो वरना अपना गला काट लेंगी. वे शून्य में देखते हुए बता रही थीं- “जब तुझे एम्बुलेंस में ले जाया गया तब मुझे तेरे पिता ने वापस इस घर में न आने के लिए कहा. मुझे उस वक़्त एक आज़ादी का एहसास हुआ. मुझे तेरी हिम्मत देखकर अपनी हिम्मत का एहसास हुआ. ज़िंदगी भर डर के साए में रहना और उसे क़ुबूल करते जाना हमें कायर बना देता है. इतना कि हम सिर्फ़ हाड़ मांस बनकर रह जाते हैं. लेकिन एक चिंगारी भी हमारी उस डर की चादर को जलाने में क़ामयाब हो सकती है. हम अब जिएंगे. जी भरकर जिएंगे. पसंद का खाएंगे. पसंद का पहनेंगे. पसंद का काम करेंगे...” वह किसी अहम अंदरूनी खोज को हासिल कर चुकी थीं. उसे एक पल को लगा कि माँ नहीं कोई दूसरी ही औरत है.

उसने कहा- “पर हम जाएंगे कहाँ?”

माँ ने उसके बालों को माथे से हटाते हुए कहा- “कहीं भी. लेकीन इस शहर में नहीं रहेंगे. खोजेंगे तो सब मिलेगा. तू ठीक हो जा जल्दी से.”

दोनों कुछ देर मिलकर रोये. माँ देर रात कैंटीन से दो कप कॉफ़ी लाईं. उसे सहारा देकर बैठाया. उसे कॉफ़ी हाथ में पकड़ाते हुए बताया कि डॉक्टर ने कहा है कि दो दिन में उसे अस्पताल से छुट्टी मिल जाएगी. वह ख़ुश थीं.

वह बोलीं, “अतीत तो ठीक नहीं कर सकती पर आज बेहतर कर सकती हूँ. तुम जैसे हो और जो हो मेरे हो. इतना काफी है. तुम्हारे अंदर ख़ुद को क़ुबूल करने की क्षमता है जो मुझमें नहीं थी. अगर अपने मन की सुनी होती तो शायद कुछ और ही होती. इसलिए आज सुनने की कोशिश कर रही हूँ...हम लड़की या लड़के जैसा ही क्यों महसूस करें? हमें, हम जैसे हैं वैसा महसूस करना आना चाहिए. बाहर वालों को यह हक़ नहीं कि वो हमें बताएं कि हम क्या पहने और कैसा बर्ताव करें...” वो बोलती जा रही थीं.

उनके बच्चे ने मुस्कुराते हुए कहा- “मुझे बिल्कुल नहीं पता था कि मेरी माँ फिलॉसफर हैं.” इसके बाद वे दोनों हँसे और कॉफ़ी के स्वाद पर चर्चा करने लगे. माँ ने कहा- “इससे अच्छी कॉफ़ी तो मैं बना सकती हूँ. क्यों न मैं एक छोटा कॉफ़ी हाउस खोल लूं?” उसने कहा, हम्म! ख़याल काफी अच्छा है माँ!”



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