बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम की डायरी
बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम की डायरी
डायरी- तारीख़- 4 जनवरी 20..
उम्र तो दिमाग का तेल है। खामखां का फितूर है। फिर भी एक बात कहूँ, औरतों को उम्र जल्दी छूती है। खुद औरतें भी अजीब हो जाती हैं उम्र को लेकर और जमाना तो सिर के ऊपर के पके बालों को सबसे पहले देखता है। जाने कैसे कब यह सफ़ेद रंग चुभने सा लगा था याद नहीं! जब स्कूल में थी तब तो सरसों का तेल ही चुपटा रहता था। मैं आज की बात नहीं बता रही। तब की बात बता रही हूँ जब घरों में टीवी होना भी अचरज और अमीरी की निशानी थी। मैं तब के जमाने की ख़वातीन हूँ। आज भी अपने को जवान ही समझती हूँ। पचपन की हूँ तो भी क्या हुआ? जिगरा तो अब भी वही सोलह सत्रह वाला है। कभी कभी धड़क ही जाता है।
पर मेरे बेटे और नाती पोते सभी मुझे यह बताने पर तुले रहते हैं कि मैं बहुत बूढ़ी हो गई हूँ। उनकी एक ही चाहत कि मैं मंतर-संतर का जाप करूँ या फिर मोती मनका फेरूँ। कभी जो मेरे लिए कपड़े लाते हैं तब अधिकतर का रंग सफ़ेद या बुझा हुआ सा रहता है। कसम खाकर कहती हूँ। मुझे वे रंग तनिक भी नहीं भाते। उनका बाप मरा है, मैं तो ज़िंदा हूँ। ये आधुनिक जमाने के लोग भले ही अपने आप को नए जमाने के लोग बोले पर अपनी माँ के नाम पर ये निहायती मूढ़ हैं। विधवा पति ने बनाया। रस्म ने बनाया। पर अहसास तो इन बच्चों ने कराया जो खूब पढ़े लिखे हैं। उन्हें आज भी बुढ़िया या बुढ़ापे की सभी रस्में याद हैं। मुझे बहुत खीझ बढ़ने लगी है इन पर।
7 जनवरी 20..
शुक्र है कि मुझे पढ़ने और थोड़ा बहुत कलम चलाने का शौक है वरना ये बहुएं मुझसे अपने बच्चे ही संभालवाती रहतीं। मुझे बच्चों से प्यार है पर दूर से। कम उम्र में माँ बन गई थी और ज़बर्दस्ती का मातृत्व उठाया और सबके आगे अच्छी बनी रही। पर सच कहूँ, मुझे हमेशा से ही उड़ान पसंद थी। आज पैरों में दर्द नहीं है। मन कर रहा है छत पर टहल आऊँ। अभी टाइम 12 बज रहे हैं। सर्दी के दिन चढ़े हैं पर मुझे अच्छे लगते हैं।
9 जनवरी 20..
उस दिन मैं जरा देर छत पर टहलने क्या चली गई, छोटी वाली ने अगले दिन सभी के सामने ड्रामा रचा दिया। कहती है- “अम्मा आपकी उम्र हो रही है। ऐसे में आप ध्यान रखा करो। कहीं तबीयत खराब हो गई तब हम आपको कहाँ लेकर फिरते रहेंगे! धूप में जाया कीजिये और आराम से बैठा कीजिये ...दिन में! लेकिन इतनी रात में छत पर क्या करने गई थीं आप?” उसके कहने भर की देर थी। सब आँखों से ही मुझे उलाहना देने लगे। मैंने यह महसूस किया कि मेरी तबीयत की फिक्र किसी को नहीं थी। न कभी होती है। इनको दिन रात बस यही ख्याल रहता है कि मैं कब मरूँ! अब बताओ मौत भी कहीं दुआ में मांगी जाती है? पर ये सब लोग मांगते हैं! हाय! मेरे बच्चे...
14 जनवरी 20..
पुस्तक मेला लगा था। मैंने कई रोज़ पहले ही चलने की इच्छा घर में जता दी थी। तब भी बहू ने टोक दिया था- “आप क्या करेंगे चलकर... थक जाएंगी!” मैंने भी गुस्से में कहा था-“तुम क्या करोगी जाकर? तुम किताबें तो पढ़ती नहीं हो।” गुस्से में मुझे सब छोड़कर चले गए थे। पर क्या मैं अनाथ हूँ... जिनके खुद के हाथ वो काहे का अनाथ। इतनी पेंशन मिलती है कि मैं अच्छे से जी सकती हूँ और किताब भी खरीद सकती हूँ!
16 जनवरी 20..
सच में! किताबों के मेले हमेशा लगे रहने चाहिए। हर दिन, हर पल। वहाँ दर्द का पता नहीं चलता। किताब मरहम की तरह लगती है। मुझे याद नहीं कब से मुझे किताब पढ़ने का शौक़ चढ़ा! इनको भी तो मेरी ये आदत अच्छी लगती थी। किताब पढ़ने के बाद नींद भी अच्छी आती है। मुझे तो किताबें एक वजह देती हैं ज़िंदगी की। ख़ैर, मैंने पुस्तक मेले में अपनी ही उम्र के पति पत्नी देखे। पत्नी ने भूरी स्कर्ट, टी-शर्ट के साथ पहनी थी। बाल भी कितने अच्छे से कटे हुए थे। सोच रही हूँ मैं भी कटवा ही लूँ। और स्कर्ट..? सोच पर भी लगाम लगा रखी है जमाने ने।...तहलका भी तो मच जाएगा। इस उम्र में स्कर्ट पहन रही हैं माँ और सासु माँ! उफ़्फ़... जीने भी नहीं देते मन से!
19 जनवरी 20..
आज सुबह एक सपना आया था। मैं रफ़्तार से कहीं भाग रही थी। हाँफ गई थी, फिर भी कितनी तेज़ी से भाग रही थी। कभी कभी लगता है घर से बाहर सितारों तक एक दौड़ लगा आऊँ रफ़्तार के साथ। पर कहीं इस उम्र में हड्डियों का सुर्मा बन गया तो! आख़िर शरीर की भी तो अपनी सीमा है। पर दिल का तो कुछ नहीं, हाँ दिल तो बच्चे की तरह ही होता है।
14 फरवरी 20..
आज प्यार के दिन बेटे बहू सब बच्चों के साथ मौज मनाने गए हैं। मैं यहाँ अकेले घर में पड़ी हूँ। वो लोग तो चाहते हैं कि मैं रामचरित मानस की चौपाई गा गा कर मर जाऊँ। वो इंतज़ार कर रहे हैं कि कब मेरा दिल मुझे धोखा दे कर रूक जाये। पर क्यों रुकेगा? मुझे किसी बात का ग़म नहीं है। मैं तो खुश रहती हूँ। मुझे तो लगता है कि मेरे मन के अंदर कोई बैठकर किसी लड़की की तरह हंस रही है... खिलखिला रही है। कभी गाल लाल हो रहे हैं तो कभी मासूमियत अपना साया मुझ पर ओढ़ा रही है। मैं कल जाकर अपने मन से अपना प्यार का दिन मनाऊँगी। पर कहाँ? सोचना पड़ेगा।
19 फरवरी 20..
बूढ़े लोग या बूढ़ी औरत आख़िर क्यों नहीं प्यार का सोच सकती? दुनिया को क्यों आग लग जाती है? 15 को जैसे ही मैंने सुबह नहा धोकर लाल साड़ी निकाली तो बातों के तीर मेरे सीने में जबरन धंसा दिये गए। इतनी लानत दी गई कि मेरा दिल भी रो गया। क्या बूढ़ी जैसी सोच मैं सोच नहीं पाती...यही मेरा गुनाह है। हे भगवान...मैं क्या करूँ?
4 मार्च 20..
आह! क्या मौसम आया है...मैं खुश हूँ, बहुत! मेरी नज़र इस बहार को न लग जाये! एक गाना याद आ रहा है...आज मदहोश हुआ जाये रे ... मेरा मन ...मेरा मन! ...ये गीत गाने न होते तो मेरी ज़िंदगी एक बुझा हुआ दीया ही होती। मुझे तो हर पल गुनगुनाना पसंद है। खुश रहना इतना मुश्किल भी नहीं होता। लोगों को गीत गाना चाहिए। सुर की परवाह के बगैर।
6 जून 20..
मेरी डायरी जला दी गई। उनको लगता है विधवा और बूढ़ी जब मन का करे तो बदचलन मानी जाती है। उनके मुताबिक़ मैं बदचलन हूँ। खुद उनकी माँ बदचलन है? अगर वो ऐसा सोचते हैं तब मैं हूँ। चाहे जितनी डायरी जला दो। चाहे राख कर दो...मेरे मन को कभी न जला पाओगे। मुझे नहीं गाने तुम्हारे सड़े हुए भजन। मैं ज़िंदगी के गीत गाऊँगी। जब तक सांस चल रही है, तब तक मैं गाऊँगी। ...लो अब खुल्लम खुल्ला डायरी सबके सामने रखी जाएगी। जो करना है करो...बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम की डायरी। अब खुश?