वो स्पर्श
वो स्पर्श
बस स्टैंड पर वो पीले दुपट्टे को अपनी उंगलियों में लपेट कर न जाने किस सोच में डूबी थी। तभी बस के आने से चहलक़दमी बढ़ गई। आनन - फानन में वह भी बस में चढ़ गई। बेख़्याली का आलम यह था कि सामने की सीट खाली हुई मगर वह फिर भी खड़ी रही। शायद अब भी वह परसों हुए एक हसीन हादसे को भूली नहीं थी।
दो दिन पहले तक माँ की डाँट खाकर भी न जागने वाली मृगाक्षी आज सुबह-सुबह ही बिना पुकारे जाग गई तो, माँ ने हैरत से देखा और बोली "तबियत तो ठीक है न तुम्हारी?" माँ की जासूस निगाहों से बचते हुए वह मुस्कुराकर कमरे में चली गई।
आँखों के सामने वो तस्वीर झिलमिलाने लगी और गालों का रंग सुर्ख़ हो उठा। कालेज का आख़री साल था और लाइब्रेरी में किताबों में खोई हुई मृगाक्षी को किसी ने हौले से पुकारा। देखा तो सामने ऋषभ खड़ा था। कॉलेज का सबसे स्मार्ट और इंटेलिजेंट लड़का जिसके आगे-पीछे कॉलेज की तमाम लड़कियाँ घूमती थीं। उसके मुंह से अचानक अपना नाम सुन कर वह चकित सी उसे निहार रही थी।
मृगाक्षी की तंद्रा तब भंग हुई जब ऋषभ उसका हाथ पकड़ कर लाईब्रेरी से बाहर ले आया। उसने झटके से अपना हाथ छुड़ाया और वहां से बिना कुछ कहे चली आई। अगले दिन कॉलेज ही नहीं गई पर आज भी नहीं जाती तो माँ के हज़ार सवालों के जवाब कौन देता, बस इसीलिए घर से कॉलेज के लिए निकल पड़ी। तभी ज़ोरदार ब्रेक लगी और मृगाक्षी का कॉलेज का स्टाप सामने था। बस से उतरते ही सामने ऋषभ दिखाई दिया, हाथों में सुर्ख़ गुलाब लिए। मृगाक्षी के लिए यह सब अप्रत्याशित था। वह अचंभित सी धीरे-धीरे आगे बढ़ी तो ऋषभ ने उसकी तरफ गुलाब बढ़ा दिया। दोनों ही एक-दूसरे की आँखों में शब्द ढूंढ रहे थे, साल भर तक यही सिलसिला चलता रहा। फिर कॉलेज की पढ़ाई ख़त्म हो गई और वह सिलसिला वहीं थम कर रह गया। एक दिन माँ ने कहा शाम को तैयार रहना, लड़के वाले आ रहे हैं। वह रुआंसी हो उठी लेकिन एक अच्छी बेटी की तरह माँ के कहे अनुसार तैयार हो गई।
तय समय पर लड़के वाले आये और जब मृगाक्षी को सामने लाया गया तो वह चकित हो उठी, सुर्ख गुलाब हाथ में लिए सामने ऋषभ अपने परिवार के साथ बैठा था। उस दिन दोनों को एक-दूसरे की आँखों में शब्द नहीं ढूंढने पड़े।