चूक
चूक


रंजना का रो-रोकर बुरा हाल था। शेखर ने उसे संभालने की बहुत कोशिश की मगर जब रंजना ने बिलखते हुए उसकी ओर देखा तो शेखर कुछ नहीं बोल पाये और धीरे से रंजना के कंधे को थपथपाते हुए चुपचाप जाकर कोने में रखी आराम कुर्सी पर बैठ गए। थोड़ी देर तक कमरे में सन्नाटा पसरा रहा फिर शेखर ने भारी स्वर में कहा "रंजना, तुम तो रोकर अपना जी हल्का कर सकती हो लेकिन मैं....मैं तो रो भी नहीं सकता।" इतना कह शेखर ने अपनी आँखें मूंद लीं और अपना सर कुर्सी पर टिका लिया।
कमरे में घड़ी की टिक टिक के साथ रंजना की सिसकियाँ भी साफ-साफ सुनाई दे रही थीं। समय सरकता गया, अब जबकि शाम होने को थी। शेखर ने कुर्सी से उठ कर कमरे की बत्ती जलाई और रसोई की तरफ बढ़ गये। थोड़ी ही देर में हाथों में चाय की ट्रे लिये वापस कमरे में दाखिल हुए और ट्रे कोने में पड़ी मेज़ पर रख दी। फिर आहिस्ता से रंजना का चेहरा अपनी तरफ किया। अब भी रंजना की आँखों में आँसुओं का सैलाब था। शेखर ने पास ही रखा पानी का गिलास रंजना की तरफ बढ़ाते हुए कहा, "थोड़ा पानी पी लो। देखो, मैं चाय भी बना कर लाया हूँ।" इतना कहकर उसने चाय की ट्रे रंजना की ओर सरका दी।
रंजना रूंधे हुए स्वर में बोली, "नहीं शेखर मेरा बिलकुल मन नहीं है।" शेखर बोले "अगर तुम नहीं पियोगी तो मैं भी नहीं पियूंगा।"
रंजना ने खुद को समेटते हुए कहा, "आप पी लीजिये मेरा सच में मन नहीं है।" शेखर ने बड़े प्यार से उसका हाथ पकड़ा और बोले, "मैं कह रहा हूँ ना! थोड़ी सी चाय पी लो।" कहते हुए चाय की प्याली उसके हाथ में पकड़ा दी और स्वयं भी उठा ली। कमरे में एक बार फिर चुप्पी छा गई। चाय पीते हुए दोनों ने एक-दूसरे की ओर देखा और अतीत के उन सुन्दर पलों के बारे में सोचने लगे। जिन पलों में उनके परिवार की सुनहरी छवि आज भी उनके ज़हन में अंकित है। उन्होंने तय किया था कि चाहे बेटा हो या बेटी, वह उसे बेहद प्यार से संवारेंगे।
दोनों को आज भी वो दिन अच्छी तरह याद था जब आरूष का जन्म हुआ। ऐसा लगा मानो उन दोनों के जीवन की हर कमी पूरी हो गई हो और जीवन में उन्हे सब कुछ मिल गया हो। उनकी छोटी सी दुनिया प्यार और खुशियों से महकने लगी। दोनों ने आरूष की परवरिश बेहद लाड़ और प्यार से की। वो मुस्कुराता तो दोनों खिल उठते और उसे रोता देख बेचैन हो उठते। आरूष भी उन्हें बहुत प्यार देता और उसने अपनी हर बात सहजता से मनवाने में तो जैसे महारत हासिल की हुई थी। दरअसल वह दोनों भी उसकी बाल सुलभ शरारतों मे अपना बचपन जीते और उसकी हर ज़िद पूरी करने में कोई कसर नहीं रखते थे। समय जैसे पंख लगा कर उड़ गया। आरूष का दाखिला एक बहुत अच्छे स्कूल में करवाया गया। आरूष ने भी उन्हें कभी निराश नहीं किया। हमेशा अच्छे नंबरों से पास हुआ। बातचीत में निपुण और आकर्षक व्यक्तित्व होने से आरूष के बहुत से मित्र बने। यहाँ तक कि अब शेखर और रंजना भी उससे मित्रवत व्यवहार करने लगे। ग्यारहवीं कक्षा तक आते-आते उसने अपने लिए सबजेक्ट खुद चुन लिए। रंजना और शेखर ने ये कहते हुए सहर्ष हामी
भर दी कि पढ़ना तुम्हें है। तो जो सबजेक्ट तुम्हें पसंद हो वही लो। देखते ही देखते समय निकलता गया और जल्द ही आरूष ने किशोरावस्था में कदम रखा। तब शेखर और रंजना ने उसे बहुत प्यार से समझाते हुए कहा कि बेटा जीवन में सब कुछ करना लेकिन कभी ऐसा कुछ मत करना जिससे हमें अपनी परवरिश पर शर्मिंदा होना पड़े। आरूष ने मुस्कुरा कर उनसे वादा किया और माता-पिता के गले में बाहें डाल कर झूल गया।
समय अपनी रफ्तार से बढ़ता जा रहा था। स्कूल के बाद काॅलेज और फिर एक बड़ी नामचीन कंपनी में अच्छा-सा जाॅब। कुल मिलाकर कहें तो आरूष ने जीवन में कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। हर कदम पर सफलता उसके क़दम चूम रही थी। शेखर और रंजना दोनों ही आरूष की कामयाबी और काबिलियत पर फूले नहीं समाते। सब कुछ बहुत अच्छा चल रहा था। आरूष दो दिन के लिए दफ्तर के काम से शहर से बाहर गया हुआ था। कल ही शाम उसने फोन कर के बताया कि वह अगली सुबह घर लौट रहा है। रंजना ने सुबह जल्दी उठकर उसकी पसंद के नाश्ते की तैयारी की। इतने में ही दरवाज़े की घंटी बजी। रंजना उत्साहित हो दरवाज़े की ओर दौड़ पड़ी। सामने आरूष ही था लेकिन उसके साथ वैशाली को देख वह दरवाज़े पर ही ठिठक गई। वैशाली से वह पहले भी कई बार मिल चुके थे क्योंकि वह दफ्तर में आरूष के साथ काम करती थी लेकिन आज इस वक्त, इस रूप में उसे आरूष के साथ देख शेखर और रंजना अवाक् रह गए क्योंकि उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ कि सामने दरवाज़े पर जो गले में माला पहने खड़ा है वो उनका बेटा ही है जिसने अपने जीवन की हर छोटी-बड़ी बात हमेशा उनसे साझा की। लेकिन आज......आज इतना बड़ा फैसला खुद ही कर लिया..! शेखर और रंजना दोनों स्वयं को ठगा-सा महसूस कर रहे थे। क्या-क्या सपने नहीं देखे थे दोनों ने आरूष के विवाह को लेकर, सब एक पल में धराशायी हो गये। दोनों की तंद्रा तब टूटी जब आरूष और वैशाली ने आगे बढ़कर उनके पांव छुये।
जैसे तैसे स्वयं को संभालते हुए रंजना ने रिवाज अनुसार नये जोड़े का स्वागत किया। फिर सब हाॅल में बैठ गए। थोड़ी देर की चुप्पी के बाद शेखर ने सख़्त लहज़े में आरूष से कहा, "हमसे पूछना तो दूर तुमने बताना भी ज़रूरी नहीं समझा?" आरूष ने आँखें झुकाये हुए धीमे स्वर में दोनों से माफी मांगते हुए कहा, "माँ....पापा.... वो, मैं बताने ही वाला था। पर....अचानक हमें शादी करनी पड़ी, और अब से मैं और वैशाली दफ्तर से मिले हुए फ्लैट में ही रहेंगे। आप और माँ जब चाहे वहाँ हमसे मिलने आ सकते हैं।" (शेखर और रंजना पर तो जैसे पहाड़ टूट पड़ा। दोनों चकित थे। वे समझ नहीं पा रहे थे कि अपने सपूत की इस निर्लजता पर क्या कहें..) माता-पिता की तरफ से कोई प्रतिक्रिया ना देख आरूष और वैशाली उठ खड़े हुए और उनके पांव छूकर दोनों एक-दूसरे का हाथ थामे दरवाज़े की तरफ बढ़ गए। शेखर और रंजना दोनों ही अपने इकलौते बेटे को घर से बाहर जाते खामोशी से देखते हुए सोचने लगे, आख़िर....कहाँ चूक हुई हमसे!