वो पहली मुलाकात
वो पहली मुलाकात
जरूरी नहीं कि पहली मुलाकात दो प्रेमियों, दो अंजानों के बीच ही हो। खुद की खुद से भी तो हो सकती है। एक समाज- सुधारक, रक्षक से भी तो हो सकती है ।एक शिष्या की अपने वास्तविक गुरु से भी तो हो सकती है, जो उसे स्वयं से मिलवा दे। हाँ, कुछ ऐसा ही घटित हुआ था, पराकाष्ठा की ज़िंदगी में।
खोयी -खोयी सी रहती थी वो.. बचपन से ही ।तेज बच्चों से उसकी तुलना उसे अध्ययन में कमजोर बनाती जा रही थी।'इन्फिरीयॉरिटी कॉन्प्लेक्स' उसे अंदर तक भेद चुका था। उसे अब यह महसूस होने लगा था कि वह ना तो सुंदर है, ना तो अध्ययन में ही तेज है और ना ही बात करने की शैली ही उसे आती है ।
.उसके घर में जो गुरुजी उसे पढ़ाने आते थे, वो नित उसकी तुलना किसी तेज बच्चे से कर उसे नीचा दिखाते थे। अब तो वह उनसे कतराने भी लगी थी। साथ ही ना पढ़ने के बहाने भी खोजा करती थी। किंतु अपने माँ पिताजी से, भाई बहन से या दोस्तों से मन की बात वह कह भी ना पाती थी। जब वह हाई स्कूल में पहुँची उसके घर के गुरु जी ने कहा कि तुम ना तो विज्ञान लेकर पढ़ सकती हो और ना ही अंग्रेजी। तुम किसी लायक नहीं। इस बात ने उसे अंदर तक तोड़ दिया और वह मान ली, हाँ, मैं कुछ नहीं कर सकती, मैं असमर्थ हूँ। यहाँ तक उसने यह भी मान लिया कि वह धरती पर बोझ है ।
किंतु तभी उसके जीवन में जैसे चमत्कार हो गया ।पिताजी ने उसके लिए एक दूसरे अध्यापक की व्यवस्था कर दी। अध्यापक के शुरू के मात्र तीन दिन की कड़ी डाँट, उसके लिए स्वाभिमान पर थप्पड़ थी और उसने अपने गुरु जी को कार्य पूरा कर दिखाने का दृढ़ संकल्प ले ही लिया।
अब उसके गुरुजी उसकी तारीफ करते थकते नहीं और पराकाष्ठा आज सफल प्रोफेसर बन चुकी है ।हाँ, उसकी पहली मुलाकात उसके गुरुजी ने उसी से करवाई थी जिसका एहसास उसे ज़िंदगी भर रहेगा।