Turn the Page, Turn the Life | A Writer’s Battle for Survival | Help Her Win
Turn the Page, Turn the Life | A Writer’s Battle for Survival | Help Her Win

Kumar Vikrant

Comedy

4.6  

Kumar Vikrant

Comedy

वो पाँच कॉमिक्स

वो पाँच कॉमिक्स

5 mins
129


गर्मी की छुट्टिया चल रही थी और हम पांच, लखना(लाखन), डब्बू, आंदा(आनंद), बल्लू और मैं, पाँचो लपके जा रहे थे कैम्ब्रिज बुक डिपो की और। ये बुक डिपो हमारे शहर का बेहतरीन बुक डिपो था, जहाँ भरमार थी किताबो की, बाल पॉकेट बुक्स की और कॉमिक्स की। हमारा टारगेट था भूतनाथ के पांच कॉमिक्स का सेट, जिनके कुछ पृष्ठ ओफ़्सेट प्रिंट में थे और हमारे कोतुहल का विषय भी। इस सीरीज के प्रत्येक कॉमिक्स का रेट था पांच रूपये, जबकि दुसरे कॉमिक्स सामान्यतः एक रूपये में मिल रहे थे। पच्चीस रूपये के उस पूरे सेट को खरीदना हम में से किसी एक के बस की बात नहीं थी। इस लिए एक-डेढ़ महीने सबने दस-बीस पैसे की बचत करके ये पांच रूपये की बड़ी रकम जोड़ी थी। औरों की तो मैं नहीं जानता, लेकिन मेरा जेब खर्च एक सप्ताह का बमुश्किल पच्चीस पैसे होता था।

"लंच नहीं लेकर जाता स्कूल में जो तुझे जेबखर्च भी चाहिए………..?" —मेरे पिता मुझे डांटते हुए कहते, और कभी-कभार पच्चीस पैसे का एक सिक्का हाथ पर रख देते।

हमारी कॉलोनी से घंटाघर, जहाँ कैंब्रिज बुक डिपो था, का रास्ता कम से कम छह किलोमीटर का था जिसे हमें पैदल ही पार करना था, क्योकि उन दिनों कक्षा ६-७ के छात्रों को साइकिल जैसी शाही सवारी माता-पिता आसानी से नहीं दिलाते थे ।

रास्ते में तीन बड़ी बाधाएं थी, जिन्हे हमें पार करना था। पहली बाधा थी हमारी कॉलोनी के पास की कॉलोनी में स्थित मोज्जे(मनोज) की गली, जिससे हमें निकलना था। मोज्जा हमारा जानी दुश्मन था, जो हमसे कई बार पिट चुका था और मौका मिलने पर हमें पीटने की फ़िराक़ में था। वो अपनी गली में ना मिला और हम तेजी से उसकी गली से निकल गए।

दूसरी बाधा थी रेलवे स्टेशन के पास मेरे पिता जी का ऑफिस, यदि उनकी निगाह मुझ पर पड़ गयी तो मेरी पूरी देह की तसल्ली बख्स पिटाई गारंटीड थी। खैर पिता जी ऑफिस के बाहर न थे और मैं डर से कांपता हुए और वो चारो मेरे हाल पर हँसते हुए मेरे पिता जी के ऑफिस के सामने से दौड़ते हुए निकल गए। इस कॉमिक्स प्रेम ने हम पांचो को इकठ्ठा कर दिया था वरना हम पांचो आपस में इतनी बार लड़ चुके थे कि एक दूसरे को फूटी आँख नहीं सुहाते थे।

आखिरकार हम बुक डिपो पंहुचे और जा घुसे कॉमिक्स वाले कोने में। पर वहां भूतनाथ का तो एक भी कॉमिक्स न था। हमने पास खड़े सेल्स मैन से पूछा, वो दूकान के कॅश काउंटर पर गया और उस सीरीज का तीसरा पार्ट निकाल कर लाया, जिसे तेजी से लखना ने झपट लिया और हम देखते रह गए। हमारे पूछने पर सेल्स मैन ने बताया की इस सीरीज की बाकी कॉमिक्स एक हफ्ते बाद मिलेंगी। और अगर आज ही चाहिए तो दूसरे बुक डिपो में देख लो, वहां भी एक आध ही बची होगी।

हम निराशा में बाहर आ गए और चारो ने निर्णय लिया की हम अलग-अलग बुक डिपो पर जायेंगे और अपनी-अपनी किस्मत ट्राई करेंगे। लखना के पास तीसरा पार्ट था तो हम उससे अलग पार्ट अलग-अलग बुक डिपो से खरीद कर लाएंगे और यही कैंब्रिज बुक डिपो पर इकट्ठे होंगे, क्योकि बाकी बुक डिपो आधा किलोमीटर के दायरे में थे।

मेरे जिम्मे आया ए. एच. व्हीलर बुक डिपो, जो रेलवे स्टेशन के अंदर था जहाँ रेलवे प्लेट फॉर्म पर टी. टी. के द्वारा पकड़े जाने का पूरा खतरा था। मैं डरता हुआ रेलवे स्टेशन में घुसा और तीर की तरह ए. एच. व्हीलर पर पंहुचा, किस्मत से मेरे नंबर का कॉमिक्स मुझे मिल गया जिसे लेकर मैं तीर की तरह कैंब्रिज बुक डिपो पर पंहुचा। वहाँ वो चारो खड़े थे अपने-अपने हिस्से का पार्ट लिए और उनके सिर पर खड़ी थी बाधा नंबर तीन जो सबसे खतरनाक थी।

घंटाघर पर एक कोचिंग इंस्टिट्यूट था, जहाँ शहर के बहुत से छात्र प्रतियोगी परीक्षाओ की तैयारी करते थे। जिनमे हमारी कॉलोनी के बहुत सारे बड़े लड़के यानि ग्रेजुएट या पोस्ट ग्रेजुएट लड़के पढ़ने आते थे, जिनसे हम बहुत डरते थे। उनमे से एक लड़के ने हमें पकड़ लिया था क्योकि छोटे लड़को का कॉमिक्स पढ़ना और घर से इतनी दूर आना मना था।

"बेटे तुम लोग सुधरोगे नहीं, पूरी आवारागर्दी पर उतर आये हो, शाम को तुम्हारे घर आकर तुम लोगो की करतूत बतानी पड़ेगी।" —उस लड़के ने सारे कॉमिक्स हमारे हाथ से छीनते हुए कहा।

हमारे मुँह से एक शब्द न निकला।

"ये कॉमिक्स अब तुम्हारे पिता गण के हवाले की जाएगी।" —कहते हुए उस लड़के ने कॉमिक्स अपनी साईकिल के कैरियर में ठूसी और वहां से उड़नछू हो गया।

और हम हाथ मलते रास्ते के खतरों से जूझते अपनी कॉलोनी में वापिस आ गए।

ना तो वो बड़ा लड़का हम में से किसी के घर गया और ना कोई शिकायत की। रही उन कॉमिक्स की बात वो मिली हमें एक हफ्ते बाद जब वो लड़का और गली के सब बड़े लड़के उन कॉमिक्स को पढ़कर उनका मजा ले चुके थे।

ऐसे थे वो बेफिक्री के दिन। कैंब्रिज बुक डिपो और दुसरे बुक डिपो कब के बंद हो चुके है, उसी बुक डिपो के एक पार्टनर ने एक गिफ्ट शॉप खोल रखी है, जिसके एक कोने पर कुछ किताबे, कॉमिक्स भी रखे रहते है। मेरे अक्सर वहां जाने से वो पार्टनर मेरे मित्र जैसा हो गया है। कभी-कभी बहुत महंगी पुस्तके खरीदते हुए उसे मै अपने बचपन का कॉमिक्स का दीवानापन और उनकी शॉप में आने की बातें बताता हूँ तो वो भी पुस्तकों के सुनहरे दौर को याद मुस्कुराने लगता है।


Rate this content
Log in

More hindi story from Kumar Vikrant

Similar hindi story from Comedy