वो लम्हें जिनका इंतज़ार था..
वो लम्हें जिनका इंतज़ार था..
छोटी उम्र में ही महेंद्र बाबू की शादी हो गई। भरा-पूरा संयुक्त परिवार और संकोची स्वभाव के महेंद्र बाबू... शर्म के मारे उनकी पत्नी शारदा देवी भी कुछ कह न पातीं..दोनों एक रिश्ते में बंधकर भी अजनबी जैसे।
महेंद्र बाबू की बहन विमला अपने मायके रहने के लिए आई...उससे भाई-भाभी का दर्द देखा न गया। भाई से बात करने में संकोच हुआ... तो सोचा भाभी से ही बात कर लूँ । एक दिन मौका देख शारदा से बोली... भाभी ऐसा कब तक चलेगा।
शारदा समझ तो गई, लेकिन अंजान बनते हुई बोली... क्या कह रही हो दीदी, हमें कुछ समझ नहीं आ रहा...विमला ने शारदा के हाथ पकड़ते हुए उसे बिस्तर पे बैठाया, उसके कंधे पर प्यार से हाथ रख कर बोली। भाभी आप मुझे अपनी ननद नहीं बहन समझो। जो भी आपके दिल में है खुल कर सब कह दो, तो दिल को सुकून मिलेगा, और हो सकता है मैं आपकी कुछ मदद कर पाऊँ।
शारदा ने नम आँखों से बताया कि हमें साथ में समय ही नहीं मिल रहा... ऊपर से तुम्हारे भैया इतना संकोची, ऐसे में हम क्या करें। विमला ने मदद करने का आश्वासन दिया।
अगले ही दिन विमला ने घरवालों से बात की और पिकनिक का प्रोग्राम बनाया..घर की लाडली बेटी का कहना भला कौन टाल सकता था। खिलखिलाती जाड़े की धूप और सुंदर नज़ारे.. वही सबने डेरा जमाया। वहाँ विमला ने सबको ऐसे खेल खिलवाएँ, जिससे दिलों में बंद जज़्बात उमड़ कर बाहर आएँ... घर के लोगों को भी अपनी गलती का अहसास हुआ... पूरे परिवार ने मिलकर विमला का साथ दिया..
पिकनिक में दोनों को करीब आने का मौका मिला और लड़ गये दोनों के नैन, आखिर लम्हें आ ही गये जिसका दोनों को इंतजार था।
दोनों की आँखों ही आँखों में होतीं प्रेम की बातें देख पूरा परिवार बहुत खुश था। घर आकर शारदा में विमला को गले लगते हुए कहा... सच में आप मेरी ननद नहीं.. प्यारी से बहन हो... फिर दोनों खिलखिला कर हँस दीं।