vijay laxmi Bhatt Sharma

Drama

3.9  

vijay laxmi Bhatt Sharma

Drama

वो गांव की लड़की

वो गांव की लड़की

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यह कहानी गांव की उस छोटी सी लड़की की है जो कि दिल्ली जैसे बड़े शहर में आ जाती है।

इसकी प्रारंभिक शिक्षा तो गांव में ही होती हैं परंतु किसी कारणों से उसे दिल्ली आना पड़ जाता है और फिर से अपनी शिक्षा पहली कक्षा से प्रारंभ करती है। गांव व शहर का माहौल बहुत ही फर्क होता है वह अपने आप को पहचानने की कोशिश करती है।

शहर की भीड़ में अपने आप को गुम पाती हैं। दिल्ली जैसे शहर में वह गुमसुम सी हो जाती है, अपनी कक्षा में वह शर्मीली सी पीछे बैठे होती है और जब भी कोई अध्यापिका उससे कोई सवाल करती है तो उसका चाह कर भी जवाब नहीं दे पाती। इतने कम समय में भी अपने आपको शहर की हवा के अनुकूल नहीं बना पाती और नतीजे स्कूल की है अध्यापिका सोचती हैं कि इसको कुछ भी नहीं आता यह बिल्कुल नालायक नहीं तो हमारी बात समझ पा रही है ना अपनी समझा पा रही है। उसके लिए यह वक्त बहुत बुरा है क्योंकि जब एक दिन वो अपनी पुस्तिका में लिख कर जवाब अपनी अध्यापिका को दिखाती है तो उसे एक जोर का चाटा पड़ता है और एक आवाज आती है लगभग चीखती हुई सी कहां से न कर मारी तुमने तुम्हें तो कुछ आता ही नहीं हमेशा खामोश रहती हो किसी प्रश्न का उत्तर नहीं देती हो जैसे कि मुंह में जबान ही ना हो, बहुत असहाय महसूस करती है परंतु इस बात को किसी से भी साझा नहीं करती ना ही अपने माता-पिता से।

धीरे-धीरे समय निकलता जाता है और वह अपनी पढ़ाई पर ध्यान देने लगती है उसे रखता है कि शहर में ऐसे ही लोग होते हैं और उस जैसी साधारण के लिए यहां पर कोई जगह नहीं है इसलिए हालातों से समझौता कर अपनी पढ़ाई पर ध्यान देने लगती है, अपनी अध्यापिका की नफरत सहते सहते वो दूसरी कक्षा में आ जाती हैं। दूसरी कक्षा में उसका मनोबल कुछ बढ़ता है और वो दूसरी कक्षा मैं अव्वल दर्जे से पास होती है, मुख्य अध्यापिका द्वारा उसको बुलाया जाता है और प्रोत्साहन शुरू उसे सीधी चौथी कक्षा में दाखिला दिया जाता है जो उसके लिए एक बहुत बड़ी उपलब्धि होती है, उसके माता-पिता को बहुत गर्व महसूस होता है और उसके पिताजी कहते हैं कि एक दिन वो उनका नाम रोशन करेगी छोटे से गांव की लड़की अब अपने आप को शहर के अनुकूल बनाने की कोशिश कर रही थी इसी जद्दोजहद में उसने कब स्कूल खत्म कर दिया उसे पता ही नहीं चला। अब बारी थीं कॉलेज जाने की वो फर्स्ट डिवीजन से पास हुई थी इसलिए उसे हर कॉलेज में दाखिला मिल रहा था परंतु वो अभी तक शहर के रंग में नहीं रंगी थी और कॉलेज जाना नहीं चाहती थी क्यूंकि उसके लिए घर से दूर जाना था, पिता की मर्जी थी की वो आगे पढ़े और अपने पैरों पर खड़ी हो जाय और वो थी की पड़ना तो चाहती थी पर कॉलेज जाना नहीं चाहती थी।

घर पर ही पढ़कर आगे बढ़ना चाहती थी पिता और पुत्री में एक अजीब सी खींचातानी चल रही थी जब वो नहीं मानी तो पिता ने उसे कहा" घर से बहार जाकर ही आप को पता चलेगा की दुनिया कैसी है, कुछ सीखने को मिलेगा, दुनिया से लडने की हिम्मत जुटा पाओगी, घर पर रह कर कैसे ये सब समझ पाओगी, या तो शादी कर घर पर ही रहो और घर का काम काज करो, या फिर बाहर निकल कर अपने लिए भी एक आसमान चुनो, मर्जी तुम्हारी ही होगी, जैसा ठीक समझो" पिता की इस नसीहत ने उसे एक नई राह चुनने की हिम्मत दी और वो मासूम सी छुई मुई अब कमरकस कॉलेज जाने को तैयार थी, कई कठिनाइयां आईं उसकी जिंदगी में पर पिता की बताई राह ने उसके हौंसलों की उड़ान को रुकने नहीं दिया, एक के बाद एक सीढ़ी पर आगे बढ़ते हुए उसने कई मुकाम हासिल किए, एक गरीब परिवार की बेटी मां का भी हाथ बंटाती, पढ़ाई भी करती और कुछ काम जैसे एक्सपोर्ट के स्वेटर इत्यादि बना कुछ घर खर्च में भी हाथ बंटाने लगी, पिता खुश बहुत थे और मां तो जैसे जी ही बच्चों की खुशियों के लिए थी। एक दिन उस जांबाज लड़की ने वो मुकाम पा लिया जिस को वो पाना चाहती थी, जो उसका सपना था। एक सरकारी ऑफिसर, रुतबा, नाम, सिर्फ नहीं थे तो अब पिता साथ नहीं थे।

एक अजीब सा खालीपन जीवन में आ गया था। उनके मार्गदर्शन ने जीवन के हर पहलू को समझाया था जो अब धीरे धीरे समझ आ रहा था। अब एक अलग तरह की दुनिया थी जहां दोस्त मतलब के थे, प्यार धोखे के लिए, इस दुनिया में हर कोई अपने मतलब के लिए जी रहा था तब पिताजी की बात याद आयी"घर से बाहर निकलते ही अपने आंख, कान नाक सब खुले रखना, ये दुनिया ऐसी नहीं है जैसी दिखती है।"

और सच में ये दुनिया ऐसी बिल्कुल नहीं थी जैसी दिखती थी, हाथी के दांत सी ये दुनिया दिखाने की और व खाने की और थी। फिर उसे डर लगने लगा था जितनी उड़ान भरी थी अब बेकार लगने लगी थी, मां के आंचल में छुपकर रोने का मन करने लगा था, एक बार फिर वही गांव से आईं शर्मीली लड़की बन गई थी। जिस आसमां को वो अपना बनना चाहती थी उसपर तो पहले ही किसी का अधिपत्य था फिर अगर को कोशिश भी करे तो कैसे करे उसको कमजोर कहकर पीछे धकेल दिया जाता था, मुश्किल की घड़ी थी उसके लिए और चारों तरफ अंधेरा, स्कूल की अध्यापिका की तरह सभी लोग उसे निकम्मी समझ रहे थे, गांव की गंवार समझ रहे थे। उसने मां से कहा मां अब मुझे नहीं बढ़ना आगे ये दुनिया मेरे लिए नहीं है, मां दुःखी हुई की जो मै कभी कर नहीं पाई बेटी के लिए किया पड़ाया लिखाया, सभी कोर्स कराए की कुछ बन जाए अपने पाओं पर खड़ी हो जाय, किसी की मोहताज ना रहे आज जब सब कुछ ठीक हो गया तो वहीं बेटी उस की तरह ही रहना चाहती है,

नहीं नहीं वो ऐसा होने नहीं देगी, कब तक ये सब। मां ने उसे झाझोड़ते हुए कहा बहुत हुआ कब तक खुद को कमजोर समझती रहोगी, उठो और संभालो अपना आसमां, लडो उसके लिए जिस पर तुम्हारा अधिकार है, ठोकर मारो उसे जो तुम्हे कमजोर कहे अपने इस्तेमाल के लिए, उठो कब तक दूसरों के इशारों पर नाचोगी। अब और नहीं वर्षों हो गए अब तो बदलना ही होगा अब तुम्हें वापस इस नर्क में नहीं लौटना, आगे बढ़कर अपना हक मांगना है, तुम कमजोर पड़ जाओ इसके लिए वो तुम्हे प्रेम जाल में फंसाकर पीछे धक्का देंगे तो कभी अपनी लोलूप निगाहों का शिकार बनायेंगे पर तुम्हें हिम्मत नहीं हारनी सिर्फ अपनी राह आसान करनी है इन कंकड़ पत्थरों को हटा हां ये कंकड़ पत्थर ही तो हैं अगर हम इन्हे मान ना दें तो इनका कोई अस्तित्व नहीं, इसलिए उठाओ अपना मस्तक और हिमालय की छूने दो बेड़ियों की जंजीर में मत उलझो उन्हें काट उन्मुक्त जियो। मां की इन हिर्दय स्पर्शी बातों से उसका मनोबल बड़ा और वो उठ खड़ी हुई फिर से अपने काम में लग गई कई बाधाओं को पार कर एक ऐसे मुकाम को हासिल कर लिया की पीछे मुड़कर देखने को मन नहीं किया। पर गांव की वो मनोहर छवि कभी उसके आंखों से ओझल नहीं हुई।

आज भी उसे गांव पुकरते हैं और आज भी उसका मन करता है कि वो फिर से वही मासूम शर्मीली लड़की बन जाय जो किसी से बात नहीं करती थी बस अपनी ही धुन में मस्त मगन रहती थी , पेड़ों से बात करती थी, खुद ही हंसती खुद ही रोती थीं, किसी के लिए नहीं अपने लिए ही बस अपनापन रखती थी, दुनिया की उंच नीच से बेखबर वो बेखौप गांव की गलियों में विचरती थी, वो आज फिर वही छोटी लड़की बनना चाहती थी, वो गांव की छोटी लड़की।


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