Krishna Khatri

Tragedy

1.0  

Krishna Khatri

Tragedy

वो औरत

वो औरत

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जिन्दगी ने मुझसे बहुत कुछ लिया है मगर बदले में दिये है ढेर सारे अनुभव भी ! इन अनुभवों की बदौलत ही मुसीबतों, परेशानियों से लड़ने की, उनका सामना करने की ताकत भी मिली है। इन सबके बावजूद छूटा भी है बहुत कुछ , जिन्दगी के वो पल जो निहायत ही मेरे अपने थे , जिन पर सिर्फ, सिर्फ मेरा अपना हक था लेकिन वे किसी और की भेंट चढ़ गए और इसका अहसास तक नहीं हुआ कि कब, क्या-क्या हो गया ? कहां-कहां बिखर गया वो भी इतना और इस हद तक कि आज तक जान ही नहीं पायी, ना ही समझ पायी हूं, फिर भी इतना, इतना अहसास तो है कि कुछ तो घटा है, कुछ तो हुआ है वो भी इस तरह कि सब साबत और सही-सलामत लगता है मगर भीतर की गहराइयों तक सब खोखला ही खोखला है तो कहीं एकदम चकनाचूर !

आज भी मेरे सामने मां की लाश पड़ी है जहां एक पांच साल की बच्ची उस लाश से लिपटी हुई बिलख रही है कोई उसे वहां से हटाने की कोशिश कर रहा है लेकिन बच्ची ने लाश को कसकर पकड़ा हुआ था जैसे बंदर का बच्चा चिपका हुआ हो अपनी मां से ! खैर जैसे तैसे उस बच्ची को मां से अलग किया और लाश को अंतिम संस्कार के लिए ले गए। बच्ची बिलखते-सिसकते जाने कब सो गई और उसके बाद जब जगी तो नई मां सामने थी, एक अनजानी औरत से परिचित कराते हुए कहा- देख तेरी नई मां, वह हक्का-बक्का नई मां !

उसे कुछ भी समझ में नहीं आया, बस, टुकुर-टुकुर उस औरत को देखती रही, आश्चर्य के साथ-साथ डर भी लग रहा था लेकिन उसमें उसे मां कहीं भी नज़र नहीं आ रही थी, उसकी मां को तो मर गई है अभी महीना मुश्किल से बीता कि सामने यह नई मां जिसे उसका मन स्वीकार नहीं कर रहा था ! वैसे सभी लोग - पापा, बड़े भैया और दीदी भी इस औरत को नई मां कह रहे थे, भैया दीदी उसका कहा मानते थे, नहीं मानते तो क्या करते ! पापा तो मारते-डांटते थे ही वो औरत भी मारती, एक बार दीदी ने पोंछा नहीं लगाया तो गर्म तवे पर दीदी के हाथ चिपका दिये, दीदी बहुत रो रही थी, उसके हाथों में फफोले पड़ गये थे ऐसे में भी वो औरत उससे काम करवाती थी। दीदी के हाथों के फफोले काम करने के कारण फूट गये थे तो और भी तकलीफ देते पर बेचारी की कौन सुनता ! उसके हाथ देखकर मुझे तो बहुत डर लगता, रोना भी आता, उस वक्त दीदी नौ साल की और भैया बारह साल का उससे भी काम करवाया जाता न किया तो मार पिटाई, पापा से शिकायत, फिर उनका पनिशमेंट - वे तो उंगलियों के बीच पेंसिल रखके जोर से मरोड़ते थे, उससे बहुत ही दर्द होता था, एक बार तो उस औरत की शिकायत पर मेरे हाथ भी ऐसे ही मरोड़े थे, इतना-इतना दर्द हुआ था कि आज भी मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं ! ऐसे में बेचारे भैया दीदी को कितना दर्द होता होगा ! दीदी मुझे मां की तरह संभालती, बेचारी खुद ही तो बच्ची थी ! इस तरह के माहौल में हम पले-बढ़े बहन-भाइयों की जिन्दगी कभी भी नोर्मल नहीं रही ! उस औरत का दहशत भरा साया पल-पल हावी रहा इसलिए शादी के बाद नये परिवार में प्रवेश करने के बाद भी मानो नोर्मल लाइफ हमारे लिए कभी रही ही नहीं ! मेरे दोनों बहन-भाई उस औरत की दी हुई ज़िन्दगी भोग रहे थे और अपने-अपने परिवारों के लिए अभिशाप थे तथा उन्हें बर्बादी के रास्ते पर धकेल रहे थे मगर मेरा मन इन सब के लिए कतई तैयार नहीं था इसलिए उस औरत से मुझे अक्सर शिकायत रहती, अपनी इस हालत की ज़िम्मेदार उसे समझती।

आज जब कहीं रेल या बस में अथवा बस या रेल के बाहर लिखा देखती हूं- अपने सामान के जिम्मेदार यात्री खुद हैं तो यह बड़ा गलत लगता है अगर ऐसा होता तो मेरे बहन-भाई या मैं इस तरह की अभिशापित जिन्दगी नहीं जी रहे होते ! आज सब यूं न बिखर गया होता कि अब कुछ समेटा भी न जाय, एक तरह से सब नामुमकिन-सा हो गया है ! जिन्दगी का हर रास्ता दुर्गम-कठिन लगता है, इतना-इतना कि कहीं से भी कुछ भी नज़र नहीं आता और ना ही कहीं कोई मुहाना ही दिखाई देता है, अगर कुछ नजर आता भी है तो सिवा उलझनों के, धुंध के, बस इसके सिवा कहीं कुछ भी तो नहीं ! 

मुझे आज भी अच्छी तरह से याद है जब मैं बाहर साल की थी तब उस औरत का चचेरा भाई आया हुआ था वो मेरे और दीदी के साथ बहुत ही भद्दे मज़ाक करता था, दीदी डरते हुए मुझे वहां से ले जाती, किचन में अपने साथ काम पर लगा लेती थी लेकिन वो वहां भी आ जाता था, कभी दीदी के कंधे पर हाथ रखता कभी गाल पे हाथ फेरते हुए पता नहीं क्या बकवास करता जिसका अर्थ आज समझ में आता है तो पूरे जिस्म में घृणा की लहर दौड़ जाती है। भैया ने एक दिन दबे हुए गुस्से में कहा- मामाजी, आपको जो चाहिए मुझे कहिये मैं ला दिया करूंगा, दीदी को किचन के साथ-साथ दूसरे काम भी रहते हैं ना !

भानजे, जो तेरी दीदी कर सकती है वो भला तू कहां कर पायेगा रे मुन्ने ! 

कर लूंगा मामाजी, आप बताइए तो सही।

कहा ना तेरे बस का नहीं।

ऐसी कोई बात नहीं, मैं कर लूंगा।

तो ठीक है तू इतनी ही जिद करता है तो रात को आ जाना मेरे बिस्तर पे। इतना सुनना था कि भैया ने मामा को छीः कहते हुए थपड़ मार दिया तो मामा गाली देते हुए चिल्लाया आवाज़ सुनकर वो औरत आई और बिना कुछ सोचे-समझे, जाने व पूछे भैया को मारने लगी। फिर मामा क्यों पीछे रहता, ऐसा जोर से धक्का दिया कि सिर जाकर दीवार से टकराया, उसी वक्त मेरे भैया ने दम तोड़ दिया।

इसका इल्जाम आया मेरी बहन पर। लाख सफाई दी पर ऐसी पट्टी पढ़ाई पिताजी को कि पिताजी मानने को तैयार ही नहीं, मानते भी कैसे इतना गन्दा आरोप जो भैया पर लगाया- बहन के साथ बदतमीजी जो की भाई ने, मैंने बहुत कहा पर नतीजा भाई की मौत ! ऊपर से उस औरत ने ऐसी उल्लू की लकड़ी फेरी कि बहन को आनन-फानन में एक बूढ़े के साथ ब्याह दिया और मामे का रास्ता और भी आसान हो गया। अब मेरे साथ बदतमीजी करने का ! पिताजी तो उस औरत के दिवाने थे। उसी की बात सही लगती, मैंने दो-चार बार मामे की बदतमीजी पापा को कहने को कोशिश की, वो औरत बीच ही में बात को मरोड़ देती, मुझे बोलने ही नहीं देती थी एक बार वो बाहर गई हुई थी कि पापा आ गये तो मैंने उनसे कहने की कोशिश की मगर इतने में वो आ गई मेरी बात यूं ही रह गई। अब मामे की हिम्मत दिन-प्रतिदिन बढ़ती गई, फिर तो उसे जब भी मौका मिलता बदतमीजी करता, वो औरत सब अच्छी तरह से जानती थी फिर भी वो उसके साथ मुझे अकेला छोड़ जाती।

मैं उसकी बेटी जो नहीं थी, वह मां तो दो बेटियों की मां बन गई थी फिर भी वो मां होकर भी मां न बन सकी, नतीजा, मेरा तन-मन रोज छलनी होता रहा बच्ची का बचपन छिनता रहा, आबरू लुटती रही, भीतर की औरत जख्मी होती रही मैं टूटती रही, अफसोस तो इस बात का है बाप, बाप न रहा, वो औरत मां होकर भी मां हो न सकी, मातृत्व तो उसमें था ही नहीं पर उसने तो अपने स्त्रीत्व को भी शर्मिंदा कर दिया, मेरा मुझसे मुझत्व छीन लिया, आज कितनी-कितनी खाली हूं ! पत्नी हूं पर सही अर्थों में पत्नी बन न पाई, मां हूं पर ममता दे न पाई, तमाम कोशिशों के भी आज तक खुद से मिलने में असफल रही, सिर्फ, सिर्फ उस औरत के कारण ! काश मेरी जिन्दगी में वो औरत न होती !


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