वंडर वुमन : जीवनदायिनी 1
वंडर वुमन : जीवनदायिनी 1


ये कहानी किसी और कि नहीं बल्कि मेरी ही है । साल था 1995, जुलाई के महीना और तारीख 8 जब मेरा जन्म हुआ ।
घर में जब लड़का पैदा होता है तो बहुत खुशी मनाई जाती है हमारे यहां गांव - देहात मेंं । पर मेंरे जन्म के साथ ऐसा कुछ नहीं हुआ क्योंकि मेंरे पैदा होने की खुशी से ज्यादा सबको इस बात का गम था कि मेंं विकृत हूँ। वो इंग्लिश मेंं कहते है ना "स्पेशली एब्लेड" क्योंकि अब लोगो को बुरा लगता है लेकिन तब सब मुझे कोस रहे थे और मेरी जन्मदायिनी को गाली दे रहे थे । हमांरे यहां कोई दिव्यांग नहीं बोलता था।सब बोलते थे कि लंगड़ा है क्या ही करेगा जीवन में।
ताने सुन सुन के मेरी मांँ परेशान हो चुकी थी । वो ना शेरा वाली को बहुत मानती थी । हम सब ही मांनते है पर वो कुछ ज्यादा ही मानती थी कि सब मांं शेरोवाली ही करेगी।तो मेरी मांँ जगत मां से मांंगती है कि या तो इसे चलने के लायक बना दो या फिर इसे अपने पास बुला लो।
हैं अभी तक सब फिल्मी जैसा लग रहा होगा पर आगे ऐसा कुछ भी फिल्मी नहीं है । मांँ मेरी ने हार नहीं मानी और खुद ही पता करना शुरू किया कि कैसे ठीक होगा, कहाँ से होगा ये सब पता कर ही रही थी कि पता चला पास के गांव मेंं एक दाई मां है वो हड्डियां वगेरह ठीक करती है । दाई मां को बुलाया गया मुझे उनके साथ एक कमरे मेंं बंद कर दिया गया पता नहीं उन्होंने क्या किया पर जैसा मुझे बाद मेंं पता चला कि उन्होंने ताकत लगा कर मेंरे नाजुक से पैर मोड़ कर सीधे कर दिये है । पर मैं चिल्ला ही रह था । शायद मुझे बहुत दर्द हो रहा होगा । इस घटना के बाद एक दो दिन बीत गया सब चिंता मेंं थे कि ठीक होगा भी या नहीं । तभी नानी की चिठ्ठी आती है और वो हमेंं शहर मेंं जाने को बोलती है अब सबसे बड़ा सवाल ये कि जाएगा कौन मुझे लेकर ?
पिताजी उस समय छोटी सी दुकान चलाते थे वो टाल मटोल कर रहे थे जाने मेंं. तो आखिर मेंं जब कोई रास्ता ना बचा मांँ खुद ही मुझे लेकर जाने को तैयार हुई ।
पर उनके लिए ये काम कम मुश्किल नहीं था, पहले सबके लिए खाना बनाओ फिर गाड़ी पकड़ो और मुझे शहर लेकर जाओ। पर मेरी मांँ तो सच में वो डेयर वुमन थी उन्होंने हर नहीं मांनी। पहले पूरा घर का काम किया और उसके बाद मुझे डॉक्टर के पास ले गयी।........
आगे की कहानी भाग 2 में आएगी