जीवनदायिनी : अध्याय 2
जीवनदायिनी : अध्याय 2


करीब 2 बज रहे थे दोपहर के, जब वो डाक्टर के यहां पहुंची। बहुत थकी हुई थी क्योंकि ये वो वक़्त था, जब आवागमन के साधन उतने ज्यादा उपलब्ध नहीं थे, और जो थे वो उतने सुविधजनक नहीं थे। जब तक डॉक्टर से मिलने के लिए अपॉइंटमेंट लिया तब तक लंच का वक़्त हो चला था और डॉक्टर लंच पे चले गए थे। उसकी एक नज़र घड़ी की तरफ बानी हुई थी जो दौड़े जा रही थी। उसे पता था कि उसके गाँव जाने वाली आखिरी बस 6 बजे जाएगी तो उस से पहले उसको अपने बच्चे को दिखा कर वापस बस अड्डे जाना था। आखिरकार 4 बजे डॉक्टर लंच करके वापस आये और कुछ वक्त में उसका नंबर आ गया। डॉक्टर से सारा कुछ जानने के बाद वो असमंजस में थी कि क्या होगा, क्योंकि डॉक्टर ने जो बोला था वो उसके मन को कुरेद रहा था। कि इलाज मुमकिन है पर सफल होगा या नहीं कह नहीं सकते और सस्ता नहीं होगा इलाज कराना।
वो थकी हारी अपने बच्चे को लिए घर पहुंची और जाकर सारा हाल के सुनाया। तो उसकी सास(husband's mother) बोली कि "हाँ, हाँ वो सब हम बाद में देखेंगे अभी तेरा घूमना हो गया हो तो जल्दी चूल्हा जला ले सबको भूख लग रही होगी सब तेरे तरह पूरे दिन घूम नहीं रहे थे। वो बेचारी बच्चे को बोरे पर लिटाकर दोबरा से वही चूल्हे चौके के काम मे लग गयी। पर उसका दिमाग अभी भी इस बात की ही उधेड़ बुन में लगा था कि कैसे होगा इलाज उसके बच्चे का। खाना बनाकर फुरसत हुई तो पता चला कि उसके लिए खाना को सिर्फ एक रोटी ही बची है।
पर उसका हौसला नहीं टूटा। उसने उसी दिन अपनी माँ को एक चिट्ठी लिखी क्योंकि उसके पिताजी रेलवे में जॉब करते थे और उन्होंने ज्यादा दुनिया देखी थी। तब तक उसके पति आ जाते हैं और उनको सारा हाल कहते कहते उसकी आँखें भर आती है। वो दोनों फिर ये निर्णय लेते है कि परिणाम जो भी हो वो अपने बच्चे का इलाज करवाएंगे।
दो दिन बीत जाते है और फिर वो दोनों अपने बच्चे को लेकर डॉक्टर के पास जाते है जहां पर उस बच्चे के पैरो का इलाज शुरू होता है।
प्लास्टर चढ़ाने के बाद डॉक्टर उनको सावधानियाँ बताता है कि क्या करना है क्या नहीं करना है। वो सब अच्छे से समझकर वहां से तीनों लौट आते है। आज फिर से वही वो दोबारा चूल्हे चौके में लग जाती है।
सच में ये जीवनदायिनी कोई सुपर ह्यूमन ही थी जो इतना सब एक साथ संभाल रही थी।
आगे की कहानी अगले अंक में आएगी ।