विवाह की अनूठी परम्परा
विवाह की अनूठी परम्परा
विवाह के बारे में यह कथन आज कितना सही प्रतीत होता है कि ‘‘विवाह एक ऐसा लड्डू जो खाये वह भी पछताये और जो ना खाये वह भी पछताये’’, लेकिन भारतीय समाज में हर कोई लड्डू खाकर पछताना पसंद करता है। विवाह को दो शरीर का मिलन नहीं, अपितु दो आत्माओं का मिलन कहा गया है। इसे सात फेरों का बंधन नहीं अपितु इसे सात जन्मों के अटूट बंधन से जोड़ा गया है।
सतपुड़ा अंचल में अनेक समाज यहाँ की संस्कृति में घुल मिल गये हैं। अतः यहाँ की संस्कृति को सभी ने आत्मसात किया है। पवार और कुंबी बाहुल्य क्षेत्र और आदिवासी जिले में शादी की अनेक परम्परायें एक दूसरे के करीब है। प्राचीन समय में विवाह, उत्सव से कम नहीं होता था। वह लगभग सात दिनों तक चलता था। लेकिन अब यह सिमटकर दो या तीन दिनों का आयोजन हो गया है लेकिन इन विवाह के कई आयोजन आज भी जस के तस है तो कई विलुप्त होते जा रहे हैं।
देखा जाये तो विवाह संस्कार से लेकर सारे सोलह संस्कार का अपना महत्व है। इनके आयोजन के पीछे भी कई महत्वपूर्ण कारण छिपे होते थे, कुछ परम्परायें कम होने से समाज को मिलने वाली सीख पर भी असर पड़ा है।शहरी जीवन में ये परम्परायें बेशक विलुप्त हो रही है, लेकिन इसके बावजूद ग्रामों में आज भी प्राचीन पद्धति से विवाह की रस्म अदायगी से उन परम्पराओं को जीवित रखने का प्रयास किया जाता है। जिससे विवाह जैसी संस्था को बल मिले एवं पति-पत्नी का बंधन अटूट रहे और जीवन जीने के सबक भी सीखने को मिले।
वधू पक्ष के यहाँ विवाह की एक रस्म पाणिग्रहण संस्कार में, यहाँ हार पहनाने के भी अलग-अलग मायने हैं। विवाह में वर-वधू इस रस्म में एक-दूसरे को हार पहनाते हैं। वे हार पहनाकर एक-दूसरे को हार जाते हैं। यही हार उनके लिए उपहार बन जाता है। वे दोनों एक-दूसरे के गले के हार (प्रिय) बन जाते हैं और सात फेरे से वे अटूट बंधन में बंधकर जीवन भर हार न मानने के लिए भी कृत संकल्पित हो जाते हैं।
इसी परम्परा की अगली कड़ी के रूप में वर परिवार के घर में वर एवं वधू के बीच एक विशेष प्रतिस्पर्धा रखी जाती है। जिसे उन्ना -पूर्रा (विषम-सम) का खेल होता है। (यह ठीक उसी पुराने गाने की याद दिलाता है कि नन्हे मुन्ने बच्चे मेरी मुट्ठी में क्या है।) इस खेल द्वारा वर एवं वधू को हार-जीत का मजा चखाया जाता है। जीवन के लंबे सफर में हार एवं जीत को सहजता एवं सरलता से स्वीकार करना ही इस खेल की सीख है। दूल्हा-दुल्हन को ऐसे छोटे-छोटे मंनोरंजक खेल से एक-दूसरे से सीखने को मिलता है वहीं परिवार जनों को विवाहोत्सव जैसा लगता है।
इस खेल में इमली के बीजों का उपयोग किया जाता है। क्रमशः 1,3,5,7 यानी विषम संख्या को उन्ना और 2,4,6,8 यानी सम संख्या यानी पूर्रा कहा जाता है। इसमें दूल्हा-दुल्हन क्रमशः अपनी मुट्ठी में इमली के बीजों को रखकर अज्ञात बीजों की संख्या पूछते हैं। यदि सही बता देते है तो उसे विजयी माना जाता है लेकिन हारने पर विजयी को इमली के बीजों को देना पड़ता है। कभी-कभी जानबूझकर भी इसे रोचक बनाने के लिए मुट्ठी को खाली रखकर भी उन्ना या पूर्रा पूछते हैं। वास्तव में यह उस समय के लोगों के बीच व्यावहारिक गणित के ज्ञान के जैसा ही था जिसे मंनोरंजन के लिए खेला जाता था। संभव है इस खेल को बाद में शादी में जोड़ करके विवाहोत्सव को रोचक बनाया गया होगा।
इस खेल के अलावा पानी की परात या पीतल की डेग में अंगुठी ढूंढ़ने की कवायद भी दूल्हा-दुल्हन करते हैं। इस खेल में दूल्हा अपनी ताकत से जीतने में कामयाब भी हो जाता है। आमतौर पर नई दुल्हन सकुचाती है और प्रारंभ में दूल्हा अपनी ताकत से नई दुल्हन पर प्रारंभ में बढ़त भी बना लेता है लेकिन नई-नवेली दुल्हन के अपने परिवार में समर्थक न होने एवं उपहास से बचाने के लिए दूल्हा स्वयं दुल्हन को जीतने के अवसर प्रदान करता है।
यह खेल वास्तव में दोनों में भावनात्मक प्रगाढ़ता बढ़ाता है। हार को अंगीकार करने का सबक भी सीखाता है। आज भी यह सारी परम्परायें सतपुड़ा अंचल में आज भी जस की तस है लेकिन तकनीक के युग में अब पुराने पारंम्परिक वाद्य यंत्र, विवाह गीत आदि अनेक आज भी विलुप्त होते जा रहे हैं लेकिन देखा जाये तो विवाह में होने वाले ये मनोरंजक व शिक्षाप्रद आयोजन विवाह को विवाहोत्सव का रूप प्रदान करते हैं। दूल्हा-दुल्हन को इस तरह के जीवन उपयोगी खेल से बहुत कुछ सीखने को मिलता है, वहीं ये बरसों से चली आ रही परम्परायें साल दर साल हस्तांतरित होकर अपने को अक्षुण्य बनाये हैं।
