वीर सिद्धू -कान्हू
वीर सिद्धू -कान्हू
सिद्दू -कान्हू नाम के दो भाई 1855 ईस्वी के ‘सन्थाल हुल विद्रोह‘ के नायक थे। सिद्दू -कान्हू अंग्रेज़ सत्ता पोषित साहूकारी व्यवस्था के खिलाफ हथियार उठाने और उनका मुंहतोड़ जवाब देने वाले पहले नायक थे।
अंग्रेजों ने एक शोषणकारी व्यवस्था बनाई,'झूम खेती' इसमें प्रतिवर्ष जंगल काटकर वृक्षों वनस्पतियों को जला देते थे और फिर भूमि पर खेती करते थे। आदिवासियों के जंगल से कोई भी संसाधन निकालने और शिकार पर रोक थी। 'झूम खेती’ आदिवासियों के लिए उलझन भरी थी, उनके कबीलों घोर संकट में थे। यह अंग्रेजों द्वारा बनाई गई शोषणकारी व्यवसथा थी।
सिद्धू कान्हू अंग्रेजों की नीतियों से नाराज थे क्योंकि फसल अच्छी हो न हो किसानों को लगान देना पड़ता था। ऐसी स्थिति में वे कर्ज़ लेकर लगान चुकाते थे। जरूरतमंद मज़बूर थे। साहूकार उनसे सादे कागज़ पर अंगूठे के निशान लगावा लेते थे और मनमानी वसूली करते थे,उनसे दुर्व्यवहार करते, कई बार तो हत्या तक कर देते थे और स्थानीय शासन भी उनकी ही पैरवी करता था।
आदिवासियों के साथ साहूकारों की बर्बरता का एक खास साथी था,
महेश लाल दत्त, वह पंचकठीया तहसील का थानेदार था। औरतों के उत्पीड़न के मामले में वह सबसे आगे रहता था। ‘पंचकठीया’ बाजार में अपने रोजमर्रा की चीजें खरीदने-बेचने वाले आदिवासियों को आतंकित करता। जब सिद्धू कान्हू ने यह खुद अपनी नज़रों से देखा
तो उनका खून खौल उठा। उन्होंने विद्रोह का मन बना लिया। उनके छोटे भाई चाँद और भैरव और दो बहनें भी उनके साथ हो लिए। सिद्धू कान्हू अभी किशोर ही थे। उनके सामने संगठन बनाया कैसे जाए यह सवाल उठ खड़ा हुआ।
30 जून 1855 की रात पंचकठीया में करीब 60,000 आदिवासी युवक जमा हुए, उनके हाथों में तीर कमान, दरांती, भाले और फरसे थे और मन में अपनी धरती को शोषण से मुक्त कराने का संकल्प।
इस विद्रोह की खबर दारोगा महेश लाल दत्त ने तुरंत क्विसलेण्ड को दी। उसने तुरंत दरोगा महेश लाल को आदेश दिया कि वह सिद्धू कान्हू को गिरफ्तार कर ले। दरोगा के पंचकठीया पहुंचते ही उसकी हत्या कर दी गई, इसके साथ ही ‘सन्थाल हुल’ की घोषणा हो गई।
महेश लाल की हत्या के बाद उग्र भीड़ ने महाजनों के घरों पर हमला कर दस्तावेज़ जलाने के साथ कइयों को मौत के घाट उतार दिया।
इसके बाद आदिवासी सेना पंचकठीया से निकलकर साहेबगंज की ओर बढ़ी। महेश लाल की हत्या की सूचना पाकर क्विसलेण्ड कप्तान मर्टीलो के साथ भागलपुर से सेना सहित विद्रोह को दबाने आ पहुंचा।
आदिवासी विद्रोहियों और क्विसलेण्ड की सेना के मध्य वर्तमान पाकुड़ जिले के संग्रामपुर नामक जगह पर भीषण युद्ध हुआ।
शुरुआती लड़ाई में आदिवासी भारी पड़े। सिद्धू कान्हू ने गुरिल्ला युद्ध कला से अंग्रेज़ी सेना को जमकर नुकसान पहुंचाया।
कैप्टेन मर्टीलो आदिवासियों की ताक़त समझ गया , इसलिए उसने नई रणनीति अपनाई। उसने आदिवासी विद्रोहियों को मैदानी इलाके में उतरने पर मजबूर किया,जैसे ही ये विद्रोही पहाड़ों से उतरे, अंग्रेज़ी सेना इन पर हावी हो गई।
यह लड़ाई बराबरी की नहीं थी, विद्रोहियों के पास परंपरागत हथियार थे जबकि अंग्रेजी फौज आधुनिक हथियारों से लैस थी। बड़ी संख्या में आदिवासी लड़ाके मारे गए। सिद्धू कान्हू के छोटे भाई चाँद और भैरव भी मारे गए। इस विद्रोह ने अंग्रेजी हुकूमत की जड़ें हिला दीं। कार्ल मार्क्स ने इस विद्रोह को ‘भारत की प्रथम जनक्रांति’ कहा।
युद्ध अब व्यापक पैमाने पर फैल गया और झारखंड के पाकुड़ प्रमंडल के अलावा, बंगाल का मुर्शिदाबाद और पुरुलिया इलाका भी इसके प्रभाव में आ गया।
26 जुलाई 1855 की एक रात जब सिद्धू कान्हू अपने साथियों के साथ अपने गांव आए हुए थे और आगे की रणनीति पर चर्चा कर रहे थे, तभी एक मुख़बिर की सूचना पर अचानक से धावा बोलकर अंग्रेज़ सिपाहियों ने दोनों भाइयों को गिरफ़्तार कर लिया। उन्हें घोड़े से बांधकर घसीटते हुए पंचकठीया ले जाया गया और वहीं बरगद के एक पेड़ से लटकाकर फाँसी दे दी गई।
सन्थाल हुल के नायक सिद्धू कान्हू मौत की गोद मे सदा के लिए सो गए, किंतु विरोध और आज़ादी की अंतहीन जंग जारी रही।
आज भी पंचकठीया का वो बरगद का पेड़, पाकुड़ के पास रणस्थली संग्रामपुर और कैप्टेन मर्टीलो द्वारा पाकुड़ में बनाया गया मर्टीलो टॉवर, अंग्रेज़ी सत्ता के खिलाफ सिद्धू कान्हू की गौरव गाथा सुनाते हैं। आज भी 30 जून को भोगनाडीह में उनके सम्मान में हूल दिवस पर सरकार द्वारा विकास मेला लगाया जाता है। सन २००२ में सिद्धू-मुर्मू की स्मृति में भारत सरकार द्वारा एक डाक-टिकट भी जारी किया गया था।
जनमानस में वीर सिद्धू कान्हू’ आज भी जिंदा हैं।
