विदाई

विदाई

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माँ-बाबू जी के आकस्मिक निधन के बाद बचपन से बड़ी दीदी ने ही मुझे पाला। अपनी टूटी शादी के बिखरे टुकड़े समेटना नहीं चाहतीं थीं वह। मेरी परवरिश को ही अपना एक मात्र लक्ष्य बना लिया। दिन रात मेहनत करतीं और रात को मैं उनके पैर दबाता। मेरी बेटी की शादी उसी घर से करने का निश्चय किया, बड़ी दीदी ने सबको बुलाया और बार-बार मना करने पर भी सब खर्चा भी स्वयं ही किया।

हल्दी वाले दिन रात को उनके पैर दबा रहा था कि वो मुझे एकटक देखे जा रहीं थीं, पूछने पर सिर्फ इतना ही कहीं, "लल्ला तू, तेरी बहू और तेरे बच्चों ने मुझे बहुत प्रेम दिया है, कल ये आये थे, मेरा हाथ पकड़ कर बहुत रोये और अपनी गलतियों की माफी भी मांगी। अपने साथ चलने को कह रहे थे कि बची हुई सांसें मेरे साथ के साथ महकाना चाहते हैं। मैं फैसला नहीं कर पा रही हूँ... बता क्या करूँ?"

मैं बड़ी दीदी की आँखों में एक चमक देख रहा था, फौरन उठ कर उनकी पसंद की सारी धोतियाँ एक अटैची में सजा दीं और उनसे कहा, "दीदी अब तुम्हारी बारी है, देर से ही सही पर कल सुजाता के साथ-साथ तुम्हारी भी विदाई धूमधाम से होगी। खुश रहो दीदी, तुम्हारी तपस्या का फल मिल गया।"


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