Prafulla Kumar Tripathi

Drama

5.0  

Prafulla Kumar Tripathi

Drama

व्हाइट कालर !

व्हाइट कालर !

7 mins
360


आर्य सभ्यता और संस्कृति के कुछ इने गिने शहरों में से एक है मुख्य पात्र, मेरी इस कहानी का शहर ! वह रोमांचक दौर था जब देश अंगडाई ले रहा था,अपनी दूसरी आजादी के लिए लेकिन मेरे इस कथानायक शहर में कुछ और ही चल रहा था। जानना चाहेंगे आप ? बताता हूँ ...बताता हूँ। पहले थोड़ा और जान लीजिये इस शहर को ! यह शहर कोशल के प्रसिद्ध राज्य का एक हिस्सा ही नहीं छठवीं सदी में सोलह महाजनपदों में भी शुमार होता था। क्षत्रिय के सौर वंश, हर्ष राज वंश और कुछ थारु राजाओं ने भी यहाँ शासन किया था। इतना ही नहीं मुस्लिम शासन में अवध के नवाब ने वर्ष 1801 में इसे जब ईस्ट इंडिया कम्पनी के हवाले किया तो अंग्रेजों ने भी इस शहर को बहुत पसंद किया। इस शहर की ज़िन्दगी ने ढेर सारे रंगीन और काले पन्ने अपने इतिहास में जोड़े हैं। कभी यहाँ के पहलवान ने पूरे देश में अपना नाम कमाया तो कभी यहाँ के संत ने अपनी हठयोगी मुद्राओं से पूरे विश्व को लुभाया। बताते हैं कि महाभारत के बाद राजसूय यज्ञ में युधिष्ठिर ने जब भीम को यहाँ के एक हठयोगी को निमंत्रित करने के लिए भेजा तो वे योगी हठयोग में लीन थे। भीम ने तनिक सुस्ताने का मन क्या बनाया कि उन्हें गहरी नींद आ गई और वहीँ सो गए। उस जगह को आज भी लोग सहेज कर रखे हैं क्योंकि वहां उनके वज़न से गड्ढा बन गया और पानी की अंत:सलिला बह उठी थी। तो ऐसे शूरवीरों की जगह को सात समंदर पार करके आये अंग्रेज़ भी यदि पसंद करने लगे तो असम्भव की बात क्या !

लेकिन लगभग दो दशक तक इस खूबसूरत शहर ने खून के आंसू भी रोये थे। कब कहाँ किस बात पर गोली चाल जाय, सामूहिक नर संहार हो जाय कोई नहीं जानता था। उद्दंडता,हिंसक प्रवृत्ति,अराजकता का पर्याय बनता जा रहा था यह शहर। जैसे छात्रों की एक दुकानदार से बहस क्या हुई कि दुकानदार ने पिस्तौल निकाल ली। डर के आगे जीत है, का स्लोगन तो बहुत बाद में चला इस शहर में उन्हीं दिनों यह सच बन चुका था। भीड़ गए दुकानदार से छात्र और दिन दहाड़े हो गया क़त्ल। आलम यह कि कट्टे की नोंक पर जो चाहता वह अपनी मनमानी कर लेता !

कोई अपने को शेर कहता तो कोई सवा सेर ! जिस इलाके से मेरी कथा का नायक आता है वह नदी की ऊबड़ खाबड़ कटार, इंडस्ट्री विहीन इलाका था। 1957 में यूनिवर्सिटी बन चुकी थी और नौजवानों को राजनीति ककहरा वहां सीखने को मिलने लगा था। उसी दौरान बलिशंकर ने अपनी पहचान बनानी शुरू कर दी। बलिशंकर एक जाति विशेष से थे और उनको उस समय के कुछ बड़े लोगों का आश्रय मिलता था। अभी वह उठान पर थे ही कि दूसरी समर्थ जाति से एक और नौजवान जसवंत आ गए। छात्रसंघ की लड़ाई अब सड़कों पर उतरने लगी। उन दिनों उस छोटे शहर की चौहद्दी भी छोटी ही लेकिन इन दोनों ग्रुपों की कारिस्तानी आसमान छूने को तत्पर थीं। अब कोई एक ग्रुप किसी की जमीन हड़पता तो दूसरा ग्रुप अपना वर्चस्व दिखा कर उसे खाली करवाता। उत्पातियों का एक ग्रुप पेट्रोल भरा कर पैसा नहीं देता तो दूसरा रेलवे स्क्रैप की ठेकेदारी के लिए तडाताड़ गोलियां दागता। दोनों गैंग अपने अपने ग्रुप में मारपीट में कुशल लड़के जुटाने लगे थे, हथियार जुटाने लगे थे और इटली के माफियाओं की तर्ज पर गैंग भी बना लिये। दोनों गैंग के बीच ही पहली बार जब उस सुबह रेलवे स्टेशन पर गोलियों की तड़तडाहट हुई और एक छात्र नेता मारा गया तभी शहरवासियों ने अनुमान लगा लिया कि अब यह सिलसिला थमने वाला नहीं है।

घबराए राम भरोस अपने बाबूजी से पूछ ही बैठे -

"बाबू जी क्या होगा इस शहर का ?"

बाबू जी चिंतित मुद्रा में तनिक सोचते हुए बोले -

"होना क्या है ! अब यह शहर माफिया राज से पूरी तरह रूबरू हो चला है। आगे आगे देखो होता है क्या ? "

सचमुच उन दिनों में उस शहर का सरकारी सिस्टम पूरी तरह फेल हो चुका था। राजधानी में इन दोनों गुटों ने अपनी-अपनी एक समानांतर सरकार बना ली थी।बलिशंकर और जसवंत दोनों जगह दरबार लगने लगा था। जमीनों के मुद्दे इनके दरबार में आने लगे। लोग कोर्ट जाने से बेहतर इनके दरबार को समझने लगे। इन दोनों के आशीर्वाद से तमाम छोटे-बडे़ माफियाओं का उदय होने लगा। वर्ष 1990 का दशक आते-आते अपराध राजनीति और बिजनेस में तब्दील हो चुका था।

पंडित प्यारेलाल भी इन सब घटनाओं से दुखी और संतप्त थे। एक दिन किसी के साथ उनकी तू - तू मैं- मैं क्या हुई कि अगले ने धमकी दे डाली कि जानते नहीं हो मैं बलिशंकर दादा के यहाँ का हूँ। पंडित प्यारेलाल को बड़ा ताव आया ..वे कहना चाहते थे कि बच्चे तुम नहीं जानते हो कि बलिशंकर को मैंने पढ़ाया है ..लेकिन वे चुप रह गए और मन ही मन बुदबुदाए -" देखना ये जो तुम नाम ले रहे हो ना ये सारे लकड़बग्घे एक साथ नहीं रह सकते ........कभी ना कभी तो इनका अंत होगा ही। " पूरे शहर में अपराधियों की ही चर्चाएँ होने लगीं। सुपारी ले ले कर हत्याएं होने लगीं। सबसे बुरी बात यह होती कि असल व्यक्ति के साथ साथ ढेर सारे निरपराध लोगों की जान भी चली जा रही थी।

इतना ही नहीं अब तो ये नृशंस हत्यारे युवाओं के आइकान बनते जा रहे थे। बगल के ही एक जिले में पता चला कि अपने पिता की हत्या होने के बाद एक और युवा अपराधी बन बैठा। एक ग्रुप ने ना जाने कहाँ से अपने लिए कुछ शार्प शूटर तैयार कर लिए जिनके पास टेलीस्कोपिक राइफल भी आ गई।

शहर में कई बार आमने-सामने भी गोलियां चलने लगी थीं। पंडित प्यारेलाल इन सब गतिविधियों पर बहुत गहरी नज़र रखे हुए थे। एक दिन उनसे नहीं रहा गया तो वे उस आलीशान हाते में पहुँच ही गए जहां बलिशंकर का दरबार लगा करता था।

"आइये आइये गुरु जी, कैसे आना हुआ ? "आगे बढ़ते हुए बलिशंकर ने पाँव छूते हुए कहा।

"अरे भाई तुम्हारे लौंडों ने बहुत उत्पात मचा रखी है। एक दिन तो मुझे ही तुम्हारा नाम लेकर धमका रहे थे ...!"पंडित जी का गुस्सा उनके चेहरे से उतर रहा था।

'कौन है रे मादर....!" एक भद्दी सी गाली जुबां पर लाते बलिशंकर आगे बोले - "नहीं गुरु जी,कतई नहीं कौन था आप- आप नाम तो बताइये ?"

फिर बड़ी देर तक पंडित जी और बलिशंकर में बाते होती रहीं। पंडित जी ने ढेर सारे उदाहरण देते हुए अपने भरसक बलिशंकर को अपनी गुंडई छोड़ने के लिए प्रेरित भी किया और अनदेखे और अनजाने समय पर उसका परिणाम छोड़कर चलते हुए। गेट तक उन्हें छोड़ने बलिशंकर आए।

आतंक के पर्याय बन चुके बलिशंकर ने और उस क्रूर समय ने पंडित प्यारेलाल की बात सुनी अवश्य लेकिन तब तक ढेर सारे युवा अपराधियों की फ़ौज उस गढ़ में एक दूसरे को चुनौती देने लगे थे। अब उनका कोई उसूल नहीं रह गया था और ये लोग अपने आकाओं के हाथ से बाहर हो चुके थे। ये लड़के इतने उद्दंड थे कि किसी को भी अपने सामने किसी चीज में खड़े नहीं होना देने चाहते थे। इनके टारगेट पर हर वो छुटभैया था जिसके आगे चलकर बदमाश बनने की संभावना थी। इन मनबढ़ू लड़कों ने छोटे-छोटे गुंडों को ठिकाने लगाना शुरू किया और आगे चल कर इनके टारगेट में राजनीतिक आका आ गये। नौबत यहाँ तक आ गई कि एक उभरते अपराधी ने बलिशंकर को ही चुनौती दे दी।

बलिशंकर को अब अपने गुरु पंडित प्यारेलाल की बातें याद हो आईं जिसमें उन्होंने उनसे गुंडई छोड़कर अलग राह बनाने के लिए प्रेरित किया था। सूबे में चुनाव का शंखनाद होते ही बलिशंकर एक दिन सीधे एक बड़ी राजनीतिक पार्टी के कार्यालय पहुंचे और उन्होंने उसकी सदस्यता ग्रहण कर लीअब बलिशंकर सूबे के रसूखवाले नेता बन चुके हैं और उनकी झकाझक सफेद कालर पर किसी भी तरह का कोई भी दाग नहीं दिखाई दे रहा है। लोग बाग़ उनको व्हाईट कालर क्रिमिनल कहते हैं तो कहा करें, उनकी सेहत पर कोई असर नहीं पड़ता है। वे भारतीय राजनीति के स्वीकार्य पुरुष बने बैठे हैंं।


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