अर्चना राज चौबे

Drama

4.2  

अर्चना राज चौबे

Drama

वैशाली

वैशाली

17 mins
411


मीरा ....

तुम मीरा ही हो न ?

ये सवाल कोई मुझसे ही पूछ रहा था जब मैं अपने शहर के एक प्रसिद्द मॉल में शोपिंग के लिए गयी हुयी थी ...मैं चौंक उठी थी ....आम तौर पर कोई इस बेबाकी से मुझसे इस शहर में नहीं मिलता न बुलाता है क्योंकि एक लम्बा अरसा गुजारने के बाद भी इस शहर से मेरा रिश्ता बड़ा औपचारिक सा ही है ...न तो मैंने और न ही इस शहर ने कभी मुझे अपना बनाने में दिलचस्पी दिखाई पर खैर ...हलके आश्चर्य के साथ सौजन्यतावश मैंने पलटकर देखा ....हाँ, मैं मीरा ही हूँ पर माफ़ करें मैंने आपको पहचाना नहीं।


मेरे सामने लगभग मेरी ही उम्र की एक महिला खड़ी थी ...हल्का भरा शरीर, गोरी रंगत, गंभीर आँखें पर किंचित हलकी मुस्कान लिए ...नीले रंग के पश्चिमी परिधान में जो उस पर खूब फब रहा था। तुमने मुझे पहचाना नहीं ...मैं वैशाली हूँ ....वैशाली आर्या ...याद आया ....हम साथ पढ़े हैं ....इस शब्द के साथ ही मेरी स्मृतियों के लम्बे गलियारे का रास्ता कुछ ही पलों में खट करके खुल गया ...मुझे ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी ...मैंने उसे तुरंत ही पहचान लिया ....अरे, वैशाली तुम ....यहाँ ? मुझे ख़ुशी भी थी और कुछ आश्चर्य भी। पहचान लिए जाने के सुकून के बाद उभरी मुस्कुराहट के साथ उसने कहा ....हाँ यार ...यहाँ एक दोस्त के पास आई थी और देखो कि तुमसे भी मुलाकात हो गयी ...कहकर उसने मेरा हाथ पकड़ लिया। ईमानदारी से कहूं तो उसका ये अपनत्व अप्रत्याशित था मेरे लिए जिसके लिए मैं तैयार नहीं थी फिर भी अपनेपन की बड़ी गुनगुनी सी अनुभूति हुयी ...इसलिए नहीं कि वो मेरी बड़ी अच्छी दोस्त रही थी { बल्कि वो तो मेरी दोस्त भी नहीं थी बस क्लासमेट भर थी } पर मेरे लिए वो हमेशा से ही एक आकर्षण का केंद्र रही थी ...क्योंकि उस वक्त भी मुझे हमेशा महसूस होता रहा था कि दरअसल वो ठीक वैसी ही नहीं है जैसा वो खुद को दिखाया करती थी { आज भी उसे देखकर यही भाव मैंने महसूस किया } ....वो हमेशा ही बहुत बिंदास ...मस्ती करने वाली और लड़कों से टक्कर लेने के लिए हरदम तैयार नज़र आती थी ...उसके व्यक्तित्व में कुछ तो अलग और चुम्बकीय सा था जो मुझे आकर्षित करता था ...पर क्या ...ये मैं ठीक-ठीक नहीं समझ पाती थी और फिर इसी दर्मियान एक दिन अचानक ही पता चला कि वो कहीं और चली गयी अपने माता-पिता के साथ ....मेरे मन में तब बहुत सारे प्रश्न अनुत्तरित ही रह गए थे ... तमाम उलझनों और जवाब न जान पाने की झल्लाहट भरी टीस के साथ। धीरे-धीरे इस घटना पर वक्त की धुल जमती गयी और उसका अक्स भी धुंधलाता चला गया पर कई वर्षों बाद जब वही वैशाली आज इस तरह अचानक मिली तो सच मानिये बड़ा अच्छा सा लगा।


गुजरे वर्षों में कभी-कभी मुझे उसकी बहुत याद आती रही थी ...उसकी आँखें जो अपेक्षाकृत बड़ी और खाली-खाली सी थीं मुझे बहुत आक्रामक लगतीं थीं ....एक किस्म का विद्रोह नज़र आता था उनमे जैसे दुनिया -समाज को टक्कर देने के लिए हमेशा तैयार बैठी हो ...मैं अकसर सोचती थी कि उसके बारे में उसी से कुछ जानूं ...उससे बात करूँ पर पता नहीं क्यों जब भी उसके पास जाने को होती तो यूँ लगता मानो उसने अपने चारों तरफ एक अभेद्य लोहे की दीवार सी कड़ी कर राखी है जिसे तोड़ना लगभग नामुमकिन है और ये भी कि उसके बारे में हम सिर्फ उतना ही जान सकते हैं जितना वो खुद बताना चाहे ...उससे न एक शब्द कम और न एक शब्द ज्यादा ...उसके व्यक्तित्व की यही विशेषता या कहूं विचित्रता मुझे आकर्षित करती रही थी और जो आज तक भी वैसे ही कायम है ... भले ही उस पर वक्त की कितनी भी धूल चढ़ी हो पर उसके नीचे उसका व्यक्तित्व एक बड़े से प्रश्न चिन्ह के साथ बिलकुल सुरक्षित था और सुलगता हुआ भी कि जो पहली ही दस्तक में अपनी सम्पूर्णता के साथ उठ खड़ा हुआ था।


वैशाली जब आज इस तरह अचानक मुझे मिली तो यूँ लगा कि जैसे कोई वर्षों पुरानी बिछड़ी हुयी सबसे अच्छी दोस्त मिल गयी हो ...ये लगभग वैसी ही अनुभूति थी मानो विदेश में अचानक ही आपके जिले या राज्य का भी कोई व्यक्ति मिल जाए तो बड़ा अपना सा लगता है फिर हम तो साथ पढ़े थे। जब ध्यान से उसके चेहरे की तरफ देखा तो उसमें कुछ हल्का सा ही सही पर बदलाव भी आया था जो सुखद और सकारात्मक था ...मुस्कुराता चेहरा हालांकि गंभीरता की झलक अब भी थी ...थोड़ा भर आया शरीर जो अच्छा लग रहा था पर सबसे महत्वपूर्ण थीं उसकी आँखें जिनमे खालीपन की बस यादें ही नज़र आ रही थीं और आक्रामकता की जगह एक ठहराव और परिपक्वता थी ...उसका व्यक्तित्व आज भी उतना ही चुम्बकीय महसूस हो रहा था जितना तब था।


औपचारिक बातों के बाद मैंने उससे लगभग इसरार किया कि कहीं बैठकर ढेर सी बातें करते हैं ...मुझे तुमसे बहुत कुछ जानना है ...उसकी आँखों में हल्का सा विस्मय कौंधा पर शायद वो भी मेरे चेहरे से मेरा मन पढ़ने और समझने की कोशिश कर रही थी जो मैंने की थी { शायद उसे ये लगा हो कि मैं तो उसकी इतनी अच्छी दोस्त नहीं थी जो उस पर ऐसे हक जटाओं }और फिर वो शालीनतावश मेरे मनोभाव को समझकर धीरे से मुस्कुरा दी ...कुछ एक बार स्वभावतः ना नुकुर करने के बाद वो तैयार तो हो गयी पर उसका असमंजस भी उसके चेहरे पर स्पष्ट दिखा ...उसने पलटकर अपने मित्र की तरफ देखा ...मैं हौले से चौंक उठी { हालांकि ये चौंकना बेमानी था पर फिर भी मुझे अब जाकर ये पता लगा कि उसका मित्र कोई लड़की नहीं बल्कि एक लड़का है जो साथ ही है और जिसके साथ जल्द ही उसकी मंगनी होने वाली है } मेरे लिए अब स्थिति थोड़ी असहज हो गयी क्योंकि मैंने उसकी किसी सहेली की उम्मीद कि थी जिससे कुछ समय के लिए वैशाली को मांगना शायद अनुचित नहीं होता पर यहाँ तो माजरा ही बिलकुल उलट था फिर भी मैंने हिम्मत नहीं हारी { यही शब्द उपयुक्त होगा यहाँ क्योंकि मेरी जिज्ञासा मेरी सभ्यता पर हावी होने लगी थी औए मैं इस मौके को कत्तई गंवाना नहीं चाहती थी }...बहुत संकोच के साथ ही पर मैंने उसे उसके मित्र से कुछ समय के लिए उधार ले लिया था ...सच कहूं तो हालांकि उसके मित्र को ये अच्छा नहीं लगा ...हालांकि नाराजगी भी उसके चेहरे पर स्पष्ट थी पर शायद सौजन्यतावश वो मना नहीं कर पाया या फिर शायद वैशाली को उसकी मित्र से मिलने से वो रोकना नहीं चाहता था ...बावजूद इसके कि सभ्य समाज में इस तरह के रिश्तों में और वो भी इस दौर में किसी एक को कुछ समय के लिए ही सही जुदा करना असभ्यता मानी जाती है पर वैशाली को पूरी तरह से जानने के लिए मैं असभ्य बनने को भी तैयार थी।


तो इस तरह आज मैं फिर मिली वैशाली से ....बड़े इत्मीनान से पहले हम कैफे गए ...कॉफ़ी वगैरह पीने के साथ-साथ कॉलेज के दिनों की यादें ताज़ा होती रहीं ...उन दिनों मशहूर रहे अफेयर्स के बारे में हंसी मज़ाक चलता रहा ...कुछ समय के बाद जब इधर -उधर की सारी बातें चुक गयीं तब लगा कि यहाँ अब और बैठना मुफीद या मुनासिब नहीं होगा क्योंकि शोर बहुत था और दिलों के खुलने व स्मृतियों को कुरेदने के लिए तो शांति और एकांत की जरूरत होती है ....हम पास ही मौजूद एक पार्क में गए जहाँ का माहौल मनमाफिक था ...वहीं एक कोने की बेंच पर हम बैठे ....मैंने महसूस किया कि वैशाली अब कुछ असहज महसूस कर रही है { शायद उसे भी आभास हो गया था मेरी मंशा का और अपनी तकलीफदेह नितांत निजी स्मृतियों से गुजरना और एक लगभग तथाकथित दोस्त को उसकी सच्चाई से रूबरू कराना आसन तो नहीं ही होता है } मैंने उसे कुछ वक्त दिया और खुद को भी क्योंकि मेरे लिए भी ये सहज नहीं था ....किसी कि निजी जिन्दगी में ये एक किस्म की दखलंदाजी ही थी ...ये भी संभव था कि वो मन कर देती कुछ बताने से या नाराज़ हो जाती ...शायद कुछ ऐसे शब्द भी कह देती जो मुझे चोट पहुंचा सकते थे { मुझमें डर पनपने लगा था बावजूद इसके कि मैं तो खुद ही उस पर इससे भी बड़े सवालों की चोट करने वाली थी } अंततः हर संशय को दरकिनार कर मैंने उसकी तरफ देखा ...वो हौले से मुस्कुरा दी ...मैं भी ...यों लगा कि कुछ पलों के लिए जो एक चट्टान हम दोनों के बीच आ गयी थी वो इस मुस्कान के साथ स्वतः हट गयी। पहल उसने ही की ...मुझसे मेरे बारे में पूछती रही ...जानती रही ...मुस्कुराहट के साथ संतोष दिखा उसके चेहरे पर और अब मेरी बारी थी ...मैंने भी उससे उसके घर और घरवालों के बारे में पूछा ...माँ के बारे में पूछा ...उसने कहा वो ठीक हैं ...मैं उन्हीं के साथ रहती हूँ ...बस उम्र की दुश्वारियां थोड़ा हावी होने लगी हैं उन पर लेकिन ये तो स्वाभाविक ही है ...अब मैंने उसके पिता के बारे में पूछा ...उसने बड़ी सहजता से कहा कि वो नहीं रहे ...तकरीबन छ महीने पहले ही हार्ट अटैक आया था ...और फिर ...इतना ही कहकर वो चुप हो गयी ....पिता के जाने को इतनी सहजता से स्वीकार किया जाना और कहा जाना मुझे थोड़ा अजीब सा लगा ...मैंने दुःख प्रकट किया ....वो फिर हौले से मुस्कुरा दी ...इस बार उसकी मुस्कान किंचित गंभीर थी ... एक पल की चुप्पी के बाद उसने कहा हंसकर ...और बता ...क्या जानना चाहती है ? मुझे सूझ ही नहीं रहा था कि शुरुआत कैसे करूं पर फिर हिम्मत करके कह ही दिया ....वैशाली , जब हम कॉलेज में पढ़ते थे तब तू बहुत बिंदास थी ...सबसे घुली-मिली ...पर पता नहीं क्यों मुझे तेरी आँखें बड़ी वीरान नज़र आती थीं ...कई बार बात करने के बारे में सोचा ...कोशिश भी की पर पता नहीं क्यों कभी खुलकर तुझसे बात नहीं कर पायी और फिर एक दिन अचानक पता चला कि तुम लोग वहां से चले गए ...तब से ही तुझे मैं कई बार याद करती रही हूँ क्योंकि तुझमे जो था वो सबसे अलग था जो मुझमें प्रश्न जगाता पर जिसका उत्तर मैं तुझसे कभी नहीं पूछ पाई ....हर बार ऐसा लगता था कि तूने बड़ी कोशिशों से खुद को नियंत्रित किया हुआ है और तू कभी भी किसी से भी कुछ नहीं कहना चाहेगी इसीलिए तुझे न समझ पाने कि अधूरी चाहत मुझे अब तक चुभती रही है .... आज जब इस तरह तू अचानक मिली तो मैं खुद को रोक नहीं पाई ...इतना कहकर मैं हौले से मुस्कुरा दी {यूँ लगा जैसे मनों बोझ दिल से उतर गया हो } साथ में मैंने अनायास ही ये भी जोड़ दिया कि अगर न बताना चाहे तो कोई बात नहीं ...मैं जिद्द नहीं करूंगी ...बुरा भी नहीं मानूंगी ...आखिर ये तेरी जिन्दगी है और उसे बांटने का निर्णय भी सिर्फ तेरा ही होना चाहिए { दूसरी वाली बात मैं कहना नहीं चाहती थी क्योंकि मैं तो बड़ी शिद्दत से उसके बारे में जानने की ख्वाहिश रखती थी पर पता नहीं कैसे ये बात कह गयी पर उसके जवाब ने तो मुझे हैरान कर दिया }


पहले वो मेरी तरफ देखकर हौले से मुस्कुरायी फिर खामोश हो गयी ...कुछ पलों तक चुप रही मानो अंदर ही अंदर जो सब इकट्ठा है उसे एक सूत्र में पिरोने की कोशिश कर रही हो ...मैं ख़ामोशी से इंतज़ार कर रही थी उसके कुछ कहने का ....फिर उसने धीरे से कहा ...तुम्हें पता है तुम दूसरी वो शख्स हो जिसे मैं अपने बारे में कुछ बताने वाली हूँ ...मैं इस बारे में किसी से बात नहीं करती और हाँ तुम पहली भी हो सकती थी क्योंकि उन दिनों मैंने ये कई बार नोटिस किया था कि तुम मुझसे बातें करना चाहती हो ...अगर तुम एक बार भी इस बारे में बात करतीं तो मैं जरूर तुमसे सब कुछ शेयर करती क्योंकि मैं खुद भी तुम्हें ही सब कुछ बता सकती थी पर शुरुआत नहीं कर पायी ...मुझे महसूस होता था कि तुम मुझे कहीं न कहीं समझती हो { मुझे अफ़सोस तो हुआ न पूछने का पर ये जानकर मैं आश्चर्य से भर गयी कि बिना कहे भी वो उस समय मेरे अंदर कि बात समझ गयी थी } कुछ पलों के मौन के बाद उसने कहना शुरू किया .......


पता है मीरा , मेरी जिन्दगी को समझने कि कोशिशें तब से ही चालू हो गयी थीं जब ये पता भी नहीं था कि आखिर समझना क्या है ...आज मैं अपनी उस उम्र की तमाम उलझनों को महसूस कर सकती हूँ इसलिए अब समझ पाती हूँ कि वो उम्र एक ख़ास तरह के अकेलेपन और मनोवैज्ञानिक जद्दोजहद से गुजरती है ...मेरे लिए संधिकाल बचपन की मासूमियत के ख़त्म होने का सन्देश नहीं था बल्कि वो तो उससे कहीं पहले कौले बचपन में ही परिपक्वता कि तरफ बढ़ चली थी मैं ....गंभीर किस्म की सोचों ने मेरे ज़हन में दस्तक दे दी थी बड़ी बेरहमी और क्रूरता से ...फिर मुझे उसके बुदबुदाने की आवाज़ आई कि हाँ ....यहाँ यही शब्द ठीक है।


सब बच्चे जब खेल-कूद और मस्ती में लगे रहते तो उस वक्त मैं उन सबके बीच अपने खुद के होने को तलाशती रहती थी जबकि वास्तव में मुझे पता ही नहीं होता था कि मैं क्या तलाश रही हूँ या ठीक-ठीक क्या करना चाह रही हूँ ...व्यक्तिगत तौर पर भी मैं उनमें कहीं नहीं होती थी और क्योंकि जब मैं खुद के लिए ही नहीं होती थी तो ज़ाहिर सी बात है कि मैं दूसरों के लिए भी नहीं होती थी या फिर शायद उनके लिए मेरा होना या न होना ही कोई मायने नहीं रखता था ...ये बोध एक बालमन को धीरे-धीरे अकेला और तनावग्रस्त कर देता...परिणामस्वरूप हीनता का जबरदस्त बोझ मुझ पर हावी होने लगता ...कभी कभी ये अहसास इतना भरी होता था कि लगता मानो मेरा बचपन ज़बरदस्त घुटन के दौर से गुजर रहा है ....दरअसल मेरे पिता जो एक बहुत ही अच्छे इंसान थे ...ईमानदार, मेहनती, सच्चे , प्रतिष्ठित व्यक्ति और मेरी माँ जो अपेक्षाकृत बड़े घर से थीं उनका आपसी सामंजस्य ठीक नहीं था ...जहाँ मैंने पिता को हर वक्त क्रोधित, मन माना और और बस आदेश देते हुए ही देखा था वहीं माँ को हमेशा स्थितियों को संभालते , चुपचाप सहते और हर वक्त इस कोशिश में लगे देखा कि घर की बात घर में ही रहे ....किसी भी कीमत पर घर की बेइज्जती न होने पाए चाहे भले ही इसके लिए कितने भी झूठ क्यों न बोलने पड़ें ...यहाँ एक बात और कहना जरूरी है कि अपनी अवहेलना, अपमान और खुद को प्रताड़ित किया जाना तो माँ चुपचाप सह लेतीं पर जब कभी भी मेरे पिता मुझ पर नाराज़ होते या आघात करते तो माँ की विवशता और उस वक्त कुछ पलों के लिए ही सही पर उनकी आँखों में उठता विरोध भी मैं साफ़ पढ़ लेती थी ...उनकी ये विवशता मुझे उत्तेजित और अनियंत्रित कर देती थी ...विरोध के लिए कई बार मैं मुखर होती पर माँ हर बार मुझे अपने में समेट लेतीं ...थाम यतिन ...ये उनका अपना तरीका था मुझे शांत करने का परन्तु धीरे-धीरे यही पारिवारिक माहौल मुझे कहीं न कहीं दुर्भाग्य पूर्ण तरीके से प्रभावित भी कर रहा था ...मेरे अंदर अनजाने ही एक घुटन बढ़ने लगी थी ...मेरा व्यक्तित्व दबने लगा था ...एकांगी होने लगा था ...मैं सबके साथ खुद को एडजस्ट नहीं कर पाती थी ...दरअसल मैं दिनों दिन हीनता और अकेलेपन का शिकार हो रही थी और इसी के परिणामस्वरूप बेहद जिद्दी और विद्रोही भी ...मेरा बचपन धीरे-धीरे मर रहा था मीरा जिसे मैं और मेरी माँ मिलकर भी नहीं बचा पा रहे थे ...माँ के चेहरे पर एक ख़ास किस्म की पीड़ा मैं कई बार देखती थी पर सही तरह से न समझ पाने कि वजह से खुद को बहुत लाचार महसूस करती थी ...पर खैर।


एक घटना का जिक्र यहाँ जरूरी मालूम देता है ...सभी बच्चे दीवाली उत्सव की तैयारी कर रहे थे ...उस दौरान एक सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन होता था जिसमें ज्यादातर बच्चे भाग लेते थे ....मुझे भी एक डांस के लिए चुना गया पर जब प्रैक्टिस करवाई जाने लगी तो मैं कुछ कर ही नहीं पा रही थी ...मेरा हीनता बोध बुरी तरह से मुझे प्रभावित कर रहा था ...दो-तीन बार सिखाने के बावजूद भी जब मैं ठीक तरीके से नहीं कर पाई तो सिखाने वाली आंटी ने स्वभावतः झुंझला कर कहा ...बेटे, ऐसे नहीं इस तरह करो ...देखो ----- कितना अच्छा कर रही है ..उसे देखकर करो ...मैंने जब उसकी तरफ देखा तो वो मुस्कुरा रही थी ...हो सकता है कि वो एक सहज मुस्कान रही हो और आज ये ये लगता भी है कि वो एक सामान्य दोस्ताना मुस्कान ही थी पर उस समय मुझे लगा कि मानो वो मुझ पर हँस रही है ...मेरा मज़ाक बना रही है ...क्रोध और शर्मिंदगी के अतिरेक से मैं रो पड़ी ...इतना कि मेरी हिचकियाँ बंध गयीं ...वो लड़की ..आंटी और बाकी सब भी घबरा गए कि अचानक मुझे क्या हो गया ...काफी समझा-बुझाकर मुझे इस आश्वासन के साथ घर भेज दिया गया कि आज रहने दो कल से आ जाना प्रैक्टिस के लिए ...तुम डांस में अब भी हो ....घर पहुँचाने पर मेरी अवस्था देखकर माँ घबरा गयीं कि क्या हुआ ...तुम रो क्यों रही हो और फिर मुझे अपनी बाहों में भर लिया { इस बार उनका मुझे शांत करने का ये तरीका कारगर नहीं हुआ }मुझे अपनी नाकामी पर और शर्म आने लगी और मैं जल्दी से अपने को छुड़ा कर कमरे की तरफ भागी और अंदर जाकर दरवाजा बंद कर लिया ...दरअसल मैं उस समय अकेले रहना चाहती थी और किसी को भी सवाल करने का मौका नहीं देना चाहती थी ...माँ को भी नहीं।


असफलता इंसान को अकेला कर देती है ये पहली सीख थी उस दिन मेरे लिए मीरा ...ये कहकर वैशाली हँस पड़ी ...पर मेरे अंदर जैसे झन्न से कुछ टूट गया ...मैंने उसकी तरफ देखा पर वो शांत थी फिर उसने कहना शुरू किया....इस तरह कि कुछ घटनाओं ने ही मेरे अंदर हीनता का बीज बोया था शायद ...बाहर से मुझे अपनी माँ और साथ बैठी कुछ आंटियों की आवाज़ आई कि कोई बात नहीं ...घबरा गयी है शायद ...नहीं करना चाहती है तो न करे क्या फर्क पड़ता है और मैं अंदर बैठी ये सब सुनकर कुढ़ रही थी क्योंकि मैं उन्हें बताना चाहती थी कि फर्क पड़ता है ...बहुत फर्क पड़ता है ...मैं भी करना चाहती हूँ ...मैं भी चाहती हूँ कि ये कहा जाए कि मैं ये अच्छा करती हूँ या मेरे बिना ये नहीं हो सकता ...प्रशंसा और आत्मगौरव के उस अहसास को मैं भी महसूस करना चाहती हूँ पर मैं नहीं कह पायी ...कुछ भी नहीं कह पायी और न ही वापस जा पाई तो वो जगह मेरे बगल में रहने वाली एक दोस्त को दे दी गयी ...इस घटना ने मुझे गहरी चोट दी थी और फिर मैंने अपनी पड़ोस वाली दोस्त से कभी बात नहीं की ...निकाले जाने के अपमान व् शर्मिंदगी को मैं अनायास ही विद्रोह और उद्दंडता के सांचे में ढालती चली जा रही थी ...कुछ न कह पाना और घुटते रहना मेरी जिन्दगी का एक अटूट हिस्सा बनता चला जा रहा था ...ये पहली घटना तो नहीं थी पर शुरुआती घटनाओं में से एक जरूर थी पर मेरे पिता के लिए तो ये कोई घटना ही नहीं थी जिसका मलाल मुझे आज तक है।


अब मुझमें एक चुप और विद्रोह दोनों ही पनपने लगे ...मैं जिद्दी होती गयी ...तवज्जो नहीं मिलने पर मैं बदतमीजियों पर उतर आती जैसे बात न मानना या चीजों को तोड़ना -फोड़ना ...वजह साफ़ थी कि मुझे भी महत्वपूर्ण समझा जाए पर ये तरीका बेहद अफसोसनाक तरीके से विफल रहा और बदले में मेरी माँ की निराशा बढ़ गयी जिससे मुझे बहुत चोट पहुंची पर मैं विवश थी क्योंकि और कुछ कह, कर या सुन पाने की समझ नहीं थी उस उम्र में मुझे। इतना कहकर वैशाली चुप हो गयी ...ऐसा लगा मानो उसका अन्तरमन रिस रहा हो ...ज़ख्म भी तो छिल रहे थे ....मैंने उसकी हथेलियाँ थाम लीं और हलके से दबाया ...वो सजग होकर धीरे से मुस्कुराई और कहना शुरू किया .....पिता के साथ मेरा लगभग रोज ही कुछ न कुछ ऐसा होता कि दिनों दिन मैं उन्हें ज्यादा से ज्यादा नापसंद करती जा रही थी ....उस वक्त मुझे उनसे घोर नफरत का अहसास होता जब वो मेरी माँ को मानसिक या शारीरिक प्रताड़ना देते ...सच कहती हूँ मीरा अपने साथ - साथ मुझे माँ की चुप्पी और लाचारी भी बुरी तरह चुभती और मैं भयंकर क्रोध से भर जाती पर सिवाय छटपटाहट के कुछ हाथ नहीं लगता। अब मैं कभी-कभी माँ से जिद्द करती कि हम नाना के यहाँ क्यों नहीं चलते ...माँ पहले तो टालती रहीं फिर एक रोज मुझे समझाया कि हम क्यों वहां नहीं जा सकते कि हम वहां के लिए बस मेहमान हैं कि वहां हमारा कोई हक नहीं है कि ये समाज ऐसा ही है ...मैं कुछ समझती कुछ नहीं पर ज्यादा सवाल नहीं कर पाती..


यूँ ही दिन कटते रहे और कुछ सालों के बाद धीरे-धीरे जब मैं और पिता भी एक दूसरे के प्रति लगभग सामान्य हो ही रहे थे कि पिता को हार्ट अटैक हुआ ...पिता को अस्पताल में भारती करना पड़ा और अविनाश ...वही जिनसे तुम मिली थी अभी वो वहां डॉक्टर थे ...उन्होंने हमारी बहुत मदद की यहाँ तक कि जब पिता नहीं रहे तब भी सारे संस्कारों का कार्य भर उन्होंने स्वेक्षा से खुद पर ले लिया क्योंकि मैं तो माँ को ही सँभालने में बुरी तरह व्यस्त थी जो पिता के जाने से लगभग टूट गयी थीं .....तकरीबन महीने भर बाद ही माँ ने बताया कि अविनाश के माता-पिता नहीं हैं ...अनाथ आश्रम में पले बढ़े और अपनी मेहनत से ही डॉक्टर बने हैं ...फिर कुछ पलों बाद धीरे से बोलीं कि बेटा, अविनाश से शादी कर लो ...तुम्हारे पिता यही चाहते थे और उन्होंने तो अविनाश से इसकी बात भी कर ली थी ...मैं पहले तो चौंकी पर फिर कोई कमी नहीं ढूंढ पायी तो हाँ कह दिया ये कहकर वो हँस पड़ी ...मैं भी मुस्कुरा दी ...तो ये थी अब तक की वैशाली ...ये कहकर उसने मेरी हथेली थाम ली फिर फोन करके अविनाश को बुलाया जो अधीरता से उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे और शायद कहीं आस-पास ही थे इसलिए झट से आ गए ....जाते समय वैशाली कि आँखों में ख़ुशी की चमक थी और मेरे मन में संतोष और उसकी आगे आने वाली नयी जिन्दगी की ढेरों दुआएं भी।



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