अर्चना राज चौबे

Romance

4  

अर्चना राज चौबे

Romance

शामिल

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केबिन में जैसे ही कुछ देर के बाद हवाई जहाज के लैंड करने की उद्घोषणा हुयी एकबारगी मन धक् से हो गया राधिका का। लगा जैसे भीतर धीरे-धीरे रिसता सा कुछ सोता बनकर फूट पड़ा हो मन के। यूँ तो जब-जब भी वो इस शहर से गुजरती उसका मन कसक उठता पर वो खुद को जब्त किये रहती थी। भुलाने की तमाम कोशिशों को दरकिनार कर ये टीस अब तक भी जस की तस है। दरअसल एक वो शख्स जो बीते कुछ सालों से इस शहर का बाशिंदा है उससे जुड़ा अतीत और उस अतीत से जुड़ी उसकी यादें ख़ुशी और गम दोनों का एक ऐसा मिला-जुला कॉकटेल हैं जो उसे अस्थिर कर देता है। यादें जब इस तरह दस्तक देतीं तो खुद को सँभालने में उसे खासी मशक्कत करनी पड़ती थी। यादों का ज़खीरा तो यूँ भी बड़ा सख्त होता है ..जो टकराए तो फिर बहुत कुछ टूटकर बिखरना तो लाजिमी है और यही कड़े इम्तेहान की पैमाइश भी है जिससे अब तक तो वो किसी तरह निकलती आई है पर आज ....आज जाने क्यों लग रहा है कि वो कहीं ज़रा सी कमजोरी सी झलक उठी है उसके इरादों में और ये सोचकर ही जिस्म ठंडा हुआ जा रहा था उसका पर अब करे भी तो क्या कि जो नियति है वो तो होकर ही रहेगी न। सुना था कि अब वो यहीं रहता है ....इसी शहर में बस गया है। जब सुना था तो बड़ी शिद्दत से ये दुआ की थी कि उसे कभी भी न तो उस शहर में जाना पड़े न ही और किसी तरह का वास्ता हो पर किस्मत का लिखा कौन टाल सका है भला तो उसे भी इस शहर से आखिरकार गुजरना ही पड़ा ...भले ही एअरपोर्ट तक पर फिर भी पूरी प्लानिंग से लेकर वापस घर लौटने तक ये शहर उसके भीतर कहीं दुबका रहता है और वो उसके नाम में थमी रहती है। पिछले दो-तीन सालों से ये सिलसिला चल रहा है और हर छ - आठ महीने में उसे एक बार तो आना ही पड़ता है तो फिर ज़ब्त भी कितना हो मुहबत में और किस कदर भला ?


अरहान यहीं रहता था , जो इस सारी बेचैनी ,कशमकश और उलझन की वजह था कि जिसे पहली बार उसने अपने ननिहाल के एक कार्यक्रम में कई बरस पहले देखा था और फिर उससे मिलने के बाद कुछ ही समय में उसकी दुनिया पूरी तरह तब्दील हो गयी थी। जिसका पता तब दोनों को ही नहीं था। शुरुआत तो गुलाबी पन्नों में सुर्ख तितलियों सी हुयी पर इसका अंजाम उतना खुशकिस्मत नहीं रहा। उसका ननिहाल एक खांटी कस्बाई जगह में था जहाँ हर कोई एक दूसरे को अच्छी तरह जानता -पहचानता और दुआ -सलाम करता था। इन छोटे जगहों की अपनी खासियत होती है और उस पर भी दो तरफ से पहाड़, एक तरफ नदी और एक तरफ जाती थोड़ी उबड-खाबड़ सी सड़क वाले इस कस्बे की खूबसूरती लाजवाब थी और इश्क के लिए बेहद मुफीद भी। इसी जगह पर पहली बार उनका आमना-सामना हुआ था ...उम्र थी वही जाते बचपन और आती जवानी के बीच वाली जब देह, मन और मनोविज्ञान तीनों में एक अजब ,अबूझ हलचल मची रहती है। भावनाएं उफान पर होतीं हैं और ऐसा लगता है कि क्या कुछ तो है इतना सारा जो पकड़ में नहीं आ रहा ...नहीं आ पा रहा। यूँ तो वो सामान्यतया कम बोलने वाली ,अपने में ही सिमटी रहने वाली शांत मिजाज़ लड़की थी पर उस रोज़ जब ममेरे-मौसेरे भाई बहनों ने उसको एक नए और लगभग हमउम्र लड़के से मिलवाया तो वो अचानक ही वाचाल हो उठी और उससे परिचय के साथ ही वे दोनों एक-दूसरे के शौक ,पसंद-नापसंद आदि के बारे में देर तक बात करते रहे। । कुछ समय के बाद जब वो उठकर जाने लगा और वो उसको जाता देख ही रही थी कि तभी "सुल्ताना का कजिन है "तान्या जो उसकी चचेरी हमउम्र बहन थी, ने धीरे से टहोका मारते हुए मुस्कुराकर कहा उससे। राधिका ने चौंककर प्रश्नवाचक नज़रों से उसे देखा तो इशारा समझकर फिर चहकी तान्या ...अरे वही , जिससे तू इतना हंस-हंसकर बात कर रही थी उसका नाम अरहान है ...बगल वाली ( पड़ोस ) सुल्ताना का मामूजाद। वो क्या है न कि आज तक तुझे कभी किसी अजनबी लड़के से इस तरह इतनी देर तक बात करते नहीं देखा था तो सोचा बता दूं ,कहकर वो फिर उसी अर्थपूर्ण लहजे में मुस्कुराई। ओह्ह तान्या कुछ भी ... वो तो मैं बस यूँ ही कहकर उसने टालना चाहा पर तान्या कहाँ उसका पीछा छोड़ने वाली थी इसलिए उसे छेड़ती रही और इस बीच उसका पूरा परिचय भी दे दिया था। ये अरहान का ननिहाल था ( ओह्ह , क्या कोइन्सीडेंस..सोचकर राधिका मन ही मन मुस्कुरा दी पर जाहिर नहीं होने दिया ) अरहान की माँ उसके बचपन में ही गुजर गयी थीं। बाप - बेटा दो ही थे। उसकी माँ के जाने के बाद पिता कभी अपनी ससुराल आना नहीं चाहते थे तो उसका भी यहाँ आना-जाना बहुत कम होता था पर कभी-कभी ख़ास मौकों पर ससुरालवालों के बेहद इसरार और खासकर अरहान की मर्जी समझकर वो यहाँ आ जाते थे। ये भी एक ऐसा ही मौका था। आज राधिका के कजिन की बारात आई थी और तीन - चार दिन बाद ही अरहान के कजिन यानि सुल्ताना की बहन ऐमन की भी शादी थी तो ये तकरीबन एक हफ्ता काफी व्यस्त और खुशगवार रहने वाला था। अडोस-पड़ोस के घर थे और छोटी जगहों में आमतौर पर जैसा होता है वैसे ही उनमें भी इतना लगाव और अपनापन था , सम्बन्ध इतने घरेलू थे कि ऐसा लग रहा था मानों एक ही घर में दो शादियाँ हो रही हों।



अगले रोज़ भी विदाई के वक्त अरहान मौजूद था। वो यहाँ ज्यादा किसी से घुला-मिला नहीं था तो एक ओर किनारे खड़ा होकर सबकुछ देख रहा था। राधिका ने जब उसे ऐसे देखा तो वो उसे कुछ असहज लगा। वो उसके पास गयी और फिर धीरे-धीरे दोनों कुछ बातें करने लगे मानों राधिका उसे समझा रही हो कि ये सब क्या हो रहा था और वो एक बच्चे की तरह सब कुछ समझते हुए सर हिला रहा था ....एक बारगी तो ये देखकर राधिका भी मुस्कुरा उठी जिसे अरहान ने देख लिया और इशारे से पूछा भी पर राधिका ने सर हिलाकर कुछ नहीं में जवाब दिया और फिर सौम्या दीदी की विदाई में शामिल होने भीड़ में खो गयी।


अगले दिन से इस घर की गहमागहमी पड़ोस के घर में नज़र आने लगी यानि यहाँ से तो मेहमान धीरे-धीरे रुखसत हो रहे थे और उस घर में मेहमानों का आना शुरू हो गया था। दोनों ही अपने-अपने मसअलों में मसरूफ हो गए थे पर न जाने क्यों दोनों को ही बीच-बीच में एक दूसरे का ख़याल आ जाता। ऐमन की मेहँदी और संगीत के दौरान फिर वे एक दूसरे से मिलते रहे , बातें भी होती रहीं और इसी के साथ दोनों ने ही एक-दूसरे के प्रति मन में कुछ खिंचाव सा महसूस किया था। अरहान जिसे समझने की कोशिश कर रहा था राधिका उसी से बचना चाह रही थी पर फिर इस अजब सी कशमकश के चुंबक में हुआ कुछ यूँ कि दोनों ने ही खुद को इस रवानी में आहिस्ता से आँखें मूँद चुपचाप बह जाने दिया कि इसमें ही दोनों नें सुख महसूस किया था कि इससे वे खुद को रोक नहीं सकते थे कि एक-दूसरे का साथ अब उन्हें अज़ीज़ लगने लगा था और यही तो इस उम्र का तकाज़ा व खासियत दोनों थी। अब राधिका की नज़रें जब भी अरहान से मिलतीं या उसे अरहान अपनी तरफ देखता महसूस होता तो उसकी पलकें बोझिल हो जातीं ...एक किस्म की गुलाबियत उस की आँखों में पसरने लगती और वो अचकचाकर इससे बच निकलना चाहती। उधर अरहान उस बेचैनी को महसूस कर रहा था जो उसने पहले कभी महसूस नहीं की थी। यूँ तो अपने दोस्तों के अनेकों किस्सों -अनुभवों का वो साझीदार था पर खुद के लिए वो इसे उम्र का फितूर ही समझता रहा था पर अब जो उसने खुद को अंदर से बदलते देखा तो फिर उसे उन्हीं दोस्तों की याद आई , उनसे सब कुछ कहने का मन हुआ पर वे सभी तो दूर थे और यहाँ वो किसी से इस बात का ज़िक्र नहीं कर सकता था। ऐसे ही छुपते-बचते बेकरारी में दो-तीन दिन निकल गए। ऐमन की शादी से ठीक पहले वाली रात दोनों के ही लिए खासी मुश्किल और आँखों-आँखों में कटने वाली रही। दरअसल शाम को जल्दबाजी में अपनी एक और कजिन नीतिका के साथ सुल्ताना के घर जाते हुए सहन में वो किसी से टकरा गयी , जब सर उठाकर देखा तो वो अरहान था ...इस टकराने से उसके हाथ में पकड़ा दुपट्टा छूटकर नीचे गिर गया था जिसे नीतिका " क्या अरहान भाई " कहते हुए उठाकर आगे बरामदे की तरफ बढ़ गयी पर राधिका ,वो तो पल भर को उन नज़रों में ऐसी उलझी कि वहीँ जड़ हो गयी। अरहान सीधा उसकी आँखों में देख रहा था और ठीक अभी-अभी स्पर्श की जो कोमल और कम्पित कर देने वाली अनुभूति हुयी थी दोनों को उसने राधिका और अरहान दोनों को मोहाविष्ट कर दिया था। " राधिका आ न " नीतिका ने आवाज़ दी और राधिका फिर जैसे-तैसे उसके पास गयी और उसके बाद फिर क्या हुआ ,कैसे हुआ ,किसने क्या कहा ,वो कैसे वापिस आई लगा जैसे सब नीम बेहोशी में हो रहा हो उसके साथ। उधर अरहान भी बेचैन सा यहाँ-वहां फिर रहा था। कहावत है न कि इश्क और मुश्क छुपाये नहीं छुपते तो वो यहाँ भी चरितार्थ हुयी। ये दोनों जिसे राज़ समझ रहे थे वो दर असल राज़ था ही नहीं। इन दोनों के हर क्रियाकलापों पर दोनों घरों की भाई-बहनों वाली चांडाल चौकड़ी अपनी स्कैनर वाली नज़रें टिकाये बैठी थी और जैसे ही उन्हें ये लगा कि अब बस यही बीच में कूदने का सही वक्त है उन्होंने छलांग लगा दी। सबसे पहले आगे आई एक बार फिर तान्या। आधी रात से कुछ मिनटों ही घड़ी की सुई आगे बढ़ी होगी कि तभी तान्या जो उसके बगल में लेटी थी ..असल में सोने की एक्टिंग कर रही थी वो धीरे से उसका हाथ पकड़कर फुसफुसाते हुए उसे उठने का कहने लगी। चौंककर ख्यालों से बाहर आते हुए जब राधिका ने अँधेरे में ही उसकी तरफ आँखें गड़ाकर देखने की कोशिश की तो खिडकी से छनकर आती स्ट्रीट लाइट की हलकी रौशनी में तान्या नें शरारत से मुस्कुराते हुए उसे एक बार फिर उठने का इशारा किया और इस बार लगभग ज़बरन ही उसको खडा कर धीरे-धीरे छत पर जाती सीढ़ियों की ओर बढ़ने लगी। उलझन में धुकधुकी संभाले वो उसके पीछे-पीछे मानो खिंचती हुयी सी सीढियां चढ़ने लगी। अक्टूबर -नवंबर के बीच का समय था और हलकी सर्दियां महसूस होने लगी थीं ......अनजाने ही किसी होनी की आशंका से राधिका के हलक सूख रहे थे और एक कंपकंपी सी तारी होने लगी थी। दोनों घरों की छत लगी हुयी थी और क्योंकि दोनों परिवारों में रिश्ते इतने पारिवारिक थे कि इससे कभी किसी को कोई मुश्किल नहीं हुयी पर क्या पता था कि आगे चलकर ये इस तरह भी काम में आएगा तो खैर। जब वो तान्या के पीछे-पीछे छत पर पहुंची तो अजब नज़ारा था। आसमान तारों से भरा था और चमकीली किरणें पूरे माहौल को हलकी सुफेद रौशनी में भिगो रही थीं। चारों तरफ यूँ तो आमतौर पर सन्नाटा होता पर क्योंकि ये अभी एक शादी का घर था तो थोड़ी - बहुत हलचल फिर भी हो रही थी। किसी कमरे से हल्के संगीत और हंसने-खिलखिलाने की भी आवाजें आ रही थीं। शायद घर की महिलाएं गपशप करते हुए अगले दिन की अधूरी तैयारियों में जुटी थीं। कुछ लोग बाहर दालान में जलते रंग-बिरंगे लट्टुओं की रौशनी में ही निढाल सोये पड़े थे कि तभी नज़रें घुमाते हुए उसे लगा कि छत के अपेक्षाकृत एक अँधेरे हिस्से में कोई खड़ा है। उसने तान्या की तरफ देखा ....तान्या मुस्कुरा दी और साथ ही दूसरी तरफ से दबी-दबी हंसी भी सुनाई पड़ी। राधिका असहज हो उठी पर तान्या उसका हाथ पकड़ खींचते हुए उसे उस अकेली खड़ी आकृति की ओर ले चली और धीरे से उसके कान में फुसफुसाई " अरहान भाई " और हाँ हम सब नीचे जा रहे हैं सो फील फ्री सिस्टर और फिर मुस्कुराते हुए पलटकर ये जा और वो जा। राधिका सहमकर थम गई ...उसे समझ नहीं आ रहा था कि क्या करे। उधर अरहान भी घबराया हुआ था। एक पल को तो दोनों खुद को सँभालने की असफल कोशिश करते रहे फिर आहिस्ता से बिलकुल करीब आकर जहाँ साँसों की तपिश तक चेहरे पर महसूस होने लगी थी अरहान ने धीरे से पुकारा " राधिका " आह ...उसे लगा जैसे पहली बार किसी ने उसका नाम लिया हो। इतना मोहाविष्ट संबोधन उसने खुद के लिए पहले कभी नहीं सुना था। इस पुकार में जो कम्पन थी , जो लगाव और जो चाह थी उससे संक्रमित होकर राधिका की पूरे देह ही मानों अवश होने लगी। बिना कुछ बोले या उसकी तरफ देखे राधिका धीरे से आँखें मूंदे उसके सीने से टिक गई ...ऐसे जैसे किसी शिला से कोई लतिका पहली बार जुड़ी हो और अरहान , तो मानों किसी अलभ्य स्वप्न का हिस्सा था इस वक्त। इस स्पर्श ने उसके भीतर -बाहर सोई हुयी तमाम संवेदनाओं को झंकृत कर दिया था ..कामनाओं का ज्वार उसे जकड़ने लगा था और वो दोनों ही मानो किसी दूसरे लोक में थे इस वक्त। कुछ पलों तक समय भी अपनी गति को भूल थमा रहा ...उन्हें अपलक देखता रहा ....चांदनी चुपचाप उन्हें भिगोती रही और छत पर इस वक्त एक खूबसूरत नज़्म लिखे जाने की भूमिका तैयार होने लगी। कुछ पलों बाद राधिका धीरे से अलग हुयी। अरहान नें उसकी हथेली अपनी मुट्ठी में भर ली। दोनों ने एक दूसरे को चाँद की उसी धवल छटा में फिर देखा और नज़रें मिलते ही आहिस्ता से मुस्कुरा दिए और इसके साथ ही अरहान ने एक बार फिर राधिका को अपनी तरफ खींचा और बाँहों में कस लिया। दोनों ही अपने भीतर एक अद्भुत रस प्रवाहित होते महसूस कर रहे थे। बाहें कसी थीं पर देह , वो तो विस्तार पा रही थी और केवल देह ही क्यों मन,उमंग ,कामनाएं और स्वप्न सभी तो विस्तार पा रहे थे। कुछ पलों बाद जब वे थोड़े प्रकृतिस्थ हुए तो वहीं पास रखे एक पत्थर की पटिया ,जो कि बेंच की तरह वहां बनाई गयी थी पर बैठ गए एक दूसरे की हथेलियाँ थामे। राधिका ने हौले से अपना सि र अरहान के कंधे पर रखा। थोड़ी ही देर बाद अरहान ने फिर उसे पुकारा " राधिका " ...राधिका नें उसकी तरफ सवालिया निगाहों से देखा ..." एक बार मेरा नाम लो ...पुकारो मुझे " इस कहे में कितना नेह ,कितनी कशिश थी कि जिसे महसूस कर राधिका का मन भीग उठा और उसने धीरे से कहा " अरहान " ओह्ह राधिका , आज अपना ही नाम कितना अपना सा लग रहा है , कितना अच्छा लग रहा है ...फिर कहो ....एक बार फिर से ...कहती रहो। राधिका ने फिर कहा " अरहान " और इस बार अरहान नें उसके माथे को चूम लिया। इस चुम्बन में किसी किस्म का आवेग नहीं बल्कि ठहराव था ...स्थिरता थी और एक किस्म का आश्वासन भी। दोनों ने ही इसे महसूस किया। निश्चय ही ये उनकी उम्र से ज्यादा परिपक्व अहसास थे पर संभवतया ये उनकी अपनी व्यक्तिगत परिपक्वता से ही उपजे थे क्योंकि राधिका और अरहान दोनों ही अपनी - अपनी उम्र से कहीं ज्यादा समझदार थे। इसमें उनके हालात और उनके शौक दोनों का ही योगदान था। अरहान की माँ बचपन में ही गुजर गयी थीं और पिता माँ के जाने के बाद चुपचुप से और अपने में ही खोये रहने लगे थे तो अरहान ने भी खुद को इसी तरीके से ढाल लिया था। यूँ पिता से उसे कोई शिकायत नहीं थी। पिता उसकी जरूरतों का पूरा ख़याल रखते थे पर अरहान की माँ के जाने के गम को वे झेल नहीं पा रहे थे इसलिए अरहान पर भी पूरा ध्यान नहीं दे पाते थे। कई बार ये बात उनको कचोटती और फिर वे कुछ अतिरिक्त करने लगते उसके लिए जिसे अरहान छोटी उम्र से ही समझने लगा था इसीलिए वो अपने पिता से बहुत प्यार करता था और उनका कहा नहीं टाल पाता था। इधर राधिका को बडे भाई की वजह से कमउम्र में ही किताबों की ऐसी लत लगी कि फिर दोस्त-मित्र ,संगी -साथी सब छूटते चले गए और इन सबों का सम्मिश्रण उसे किताबों की दुनिया में एकसाथ मिला। राधिका को इसमें ही सुख मिलने लगा और वो जहनी तौर पर अपनी हमउम्र सहेलियों से कहीं ज्यादा समृद्ध व परिपक्व होती गयी ,खैर यूँ ही बैठे उन्हें तो मानो पल ही लग रहे थे पर समय अपनी ही गति से चलता है| फिलहाल वक्त हो चला था जुदा होने का अर्थात अपने-अपने कमरों में वापस लौट जाने का क्योंकि पूरब ने अब लालिमा बिखेरनी शुरू कर दी थी और दोनों के परिवार वालों के उठने की सम्भावना बढ़ गयी थी तो इससे पहले कि कोई उन्हें इस तरह देख ले उन्हें चले जाना चाहिए था। ठीक इसी वक्त आँखें मलती आलस भरी आवाज़ में तान्या ने उसे पुकारा। जाने का मन तो दोनों का नहीं था पर जाना जरूरी था सो वे खड़े हुए। अरहान ने, जो अब तक उसकी हथेलियों को आहिस्ता से थामा हुआ था एक बार कसकर दबाकर छोड़ दिया। तान्या अरहान को देखकर मुस्कुराई और फिर राधिका का हाथ थाम नीचे जाने के लिए सीढियों की ओर बढ़ गयी। अरहान उन्हें जाता देखता रहा जब तक वे नज़रों से ओझल न हो गयीं। अगले रोज़ ऐमन का निकाह था। गहमागहमी शबाब पर थी। इस पूरे दिन दोनों को ही मौका नहीं मिला कि वे एक-दूसरे की एक झलक भी देख सकें इसलिए दोनों को ही शाम ढलने का बेसब्री से इंतज़ार था। रात में जब वो अपनी कजिन्स के साथ वहां पहुंची तो अरहान उसे घर के बाहर नहीं दिखा। उसनें इधर -उधर अपनी नज़रें दौड़ाई पर अरहान बाहर से आंगन या कमरों तक कहीं नज़र नहीं आया। उसे अजीब सी बेचैनी होने लगी। वो सबके बीच से उठकर बाहर आई और जैसे ही पलटने को हुयी कि उसने देखा थोड़ी ही दूर पर अरहान खड़ा उसे देखकर मुस्कुरा रहा था। वो एकदम से झेंप उठी। अरहान ने हलके पिस्ता रंग की शेरवानी पहनी थी और राधिका ऑफ वाइट कलर के शरारे में थी। दोनों ही बेहद सुंदर लग रहे थे। अमूमन चुपचाप और शांत रहने वाला अरहान आज शरारती हो उठा था और राधिका भी उसके साथ होने को बेचैन थी पर ये तो शादी वाला घर था ...हर तरफ लोग थे और वे कहीं जा भी नहीं सकते थे। आज जबकि एकांत उन्हें सबसे ज्यादा चाहिए था वही मयस्सर नहीं था उनको। वैसे एक-दूसरे के आस-पास होने का अहसास भी काफी सुखद था। तमाम रस्मों के वक्त वे लुका-छिपी करते रहे। कुछ देर बाद राधिका किसी काम से सुल्ताना के कमरे की तरफ जा ही रही थी कि तभी किसी ने उसका हाथ पकड़कर खींचा। एक बड़े खम्बे की ओट में अरहान था। वो उससे टकराती इससे पहले ही वो उसके बाहुपाश में थी। दोनों कुछ देर तक एक दूसरे को कसकर भींचे रहे मानों अब अलग होना ही न चाहते हों कि तभी किसी के आने की आहट सुनाई दी और अरहान एक बार उसे चूमने के लिए आगे बढ़ा फिर न जाने क्या सोचकर मुस्कुराते हुए पीछे हट गया और गायब। राधिका अपनी धड़कनों को संभाले कुछ पल वहीं खडी रही और इस बीच आने वाला भी शायद वापिस चला गया था। राधिका ने राहत की सांस ली और वापस सबके बीच आकर बैठ गयी। हालांकि धडकनें अब भी तेज़ थीं। तान्या ने शरारत से पूछा ,कहाँ गयी थी और राधिका जवाब देने में अटक गयी तो तान्या मुस्कुरा उठी और बोली ,रहने दे ..रहने दे ,मैं समझ गयी और सामने लड़कों के बीच बैठे अरहान को देखकर मुस्कुरा दी ....राधिका का चेहरा लाल हो गया और वो बात टालने लगी पर कोई लाभ नहीं हुआ। रस्मों के चलने तक ये चुहल चलती रही। ये रात यादगार होने वाली थी। कोई नहीं जानता कि अगले पल नियति नें उनके लिए क्या तय किया है वैसे ही इन दोनों को भी ज़रा आभास नहीं था कि इनके हिस्से आगे क्या दर्ज होने वाला है। आगे का घटनाक्रम अब तेज़ी से बदल रहा था। अगले रोज सुबह क्या तकरीबन दोपहर हो गयी थी उसे सोकर उठने में। बाकी लोग भी थकन व आलस से भरे धीरे-धीरे अपने कामों में लगे हुए थे। तान्या जब कमरे में आई तो कुछ संजीदा दिखी। राधिका के पूछने पर वो एक पल तो चुप रही फिर बताया उसने कि अरहान चला गया। क्या ...राधिका धक हो गयी फिर तुरंत ही फ़िक्र मंदी से पूछा, अरहान ठीक तो है ? हाँ-हाँ ,वो बिलकुल ठीक है पर उसके पापा की तबीयत थोड़ी खराब हो गयी थी तो उन्हें शहर वाले अस्पताल लेकर गए हैं सब। शाम तक हो सकता है आ जाएँ। शाम तक का इंतज़ार बड़ा भारी था फिर भी राधिका सब्र किये रही। मन में तमाम ख्याल आ-जा रहे थे और इन सबके बीच ही बड़ी अनमयस्कता से उसने वक्त गुजारा। शाम ढलने से थोड़ी देर पहले ही बगल वाले चचा और जावेद के साथ रोहन भाई भी लौट आये। पता चला कि फौरी राहत तो उन्हें वहां दवा-इंजेक्शन से मिल गयी थी पर आगे के तमाम टेस्ट और इलाज़ के लिए वे वहीँ से नॉएडा चले गए और अब जाकर राधिका को ये रिएलाइज हुआ कि अब तक तो उसे पता ही नहीं था कि अरहान नॉएडा में रहता है। ओह्ह ,अजब सी टीस महसूस हुयी उसे। अरहान चला गया ..फिर पता नहीं कब मिलेंगे ...बात कैसे होगी ...अभी वो ये सब सोच ही रही थी कि तान्या कमरे में आई। उसके हाथ में एक कागज़ था। उसे देते हुए बोली अरहान ने दिया है। राधिका ने झट उस कागज़ को खोलकर देखा। उसमें जल्दबाजी में लिखा एक फोन नंबर था और एक सन्देश भी कि जैसे ही वक्त मिलेगा फोन करूँगा। एक टीस उभरी राधिका के मन में फिर तुरंत ही शांत भी हो गयी। वो समझ गयी कि इस वक्त अरहान का अपने पापा के साथ होना ज्यादा जरूरी है पर मन ...उसका क्या करे ...वो तो बेचैन हो उठा था इस ख़याल से कि अब पता नहीं कब अरहान से मिल सकेगी , उसे देख सकेगी ? इस उम्र के प्रेम की खासियत होती है कि वो ताज़ा ,रूमानी ,हज़ार किस्म की बेचैनियों से भरा होता है पर साथ ही इसमें आदर्शवाद भी कम नहीं होता। असल में ये पहला मौका होता है जब हम अपने जन्मजात रिश्तों और दोस्तों से एकदम अलग कुछ ऐसा महसूस करते हैं जो अब तक के अनुभवों से सर्वथा अलग होता है। इसमें एक नयापन और संधिकाल की तमाम जिज्ञासाएं और उलझनें होती हैं। एक स्त्री और एक पुरुष की तरह से ये पहला अनुभव होता है। पहली ही बार ये आभास होता है कि सबकुछ निछावर करना ,खुद को समर्पित करना या फिर खुद में समो लेने की दुर्दम्य आकांक्षा कैसी होती है। इनसे जूझना किस कदर कठिन होता है। रुमानी आदर्श चरम पर होता है तो इन्हीं सारी उलझनों से दो-चार होते हुए अगले दिन राधिका भी अपने परिवार के साथ पुणे लौट आई। पुणे एअरपोर्ट पर लैंड करते ही उसने फोन ऑन किया। पुलक उठी कि उसमें दो मिस्ड कॉल और एक मेसेज था अरहान का। कॉल करो। शायद उसे अपने कजिन्स में से किसीसे पता चला होगा उसके लौटने का और वैसे भी इस घटना की वजह से अरहान उनसे थोडा खुल गया था। घर आकर राधिका ने उससे बात की। पहले तो दोनों ही भावुक हो गए फिर धीरे-धीरे अरहान ने उसे सबकुछ बताया। अब तो जब भी वक्त मिलता दोनों खूब बतियाते। अपनी बेचैनियों ,बेकरारी और मिलने की अज़ीम चाहत के साथ ही वे भविष्य के बारे में भी बात करते। कैरियर ,फ्यूचर उनकी बातों का एक जरूरी हिस्सा था। वे खूब प्लानिंग करते आगे के बारे में क्योंकि उन्हें पता था कि दोस्ती तो ठीक है पर जब रिश्ते की बात आएगी तो इसे आगे बढ़ाने के लिए एक मजबूत आधार भी होना चाहिए। ये वैसे तो थोडा अजीब था कि अभी जबकि राधिका केवल ग्यारहवीं में थी और अरहान उससे एक साल बड़ा पर जैसा कि पहले ही जिक्र हुआ है कि दोनों अपनी उम्र से कहीं ज्यादा परिपक्व थे और अब अपने इस प्रेम को लेकर बेहद संजीदा भी। इस बीच एक लम्बा वक्त गुजरा और फिर तकरीबन डेढ़ साल बाद वे एक बार फिर मिले। अरहान पुणे आया था एक दिन के लिए। उसके पापा का कोई काम था। यूँ तो वे ही आते पर क्योंकि उनकी तबियत उनका साथ नहीं दे रही थी और दूसरे अरहान को एक अच्छा मौका मिल रहा था पुणे आने का तो वो लगभग जिद्द करके ही यहाँ आया था। पहली बार अकेले। पिता ने उसके ठहरने वगैरह का प्रबंध यहाँ के एक होटेल में कर दिया था। राधिका को जैसे ही ये बात पता चली वो झूम उठी। उसकी खुशियों को तो मानों पंख मिल गए। अरहान को जहां रुकना था वो जगह भी उसके घर से ज्यादा दूर नहीं थी। अरहान आया और जैसे ही उसने राधिका को फोन किया तो उसकी आवाज़ सुनते ही राधिका का मन मयूर हो उठा। दूर थे तो जैसे-तैसे सब्र किया पर अब जब वो यहाँ उसके इतने करीब था राधिका से रहा नहीं जा रहा था। अजब दीवानगी सी तारी थी उस पर। वो उड़कर अरहान की बाँहों में खो जाना चाहती थी। यही हाल अरहान का भी था पर उसे पहले अपने पापा के काम से जाना था। राधिका सुनकर मायूस तो हुयी पर जल्द ही इस ख़याल को झटक वो अरहान से मिलने की तैयारियों में जुट गयी। इंतज़ार बोझिल था ...बहुत-बहुत बोझिल और लंबा। तकरीबन डेढ़ बजे दोपहर में अरहान की कॉल आई कि अब वो फ्री है| राधिका मानों उड़ चली। अब तक इंतज़ार था पर अब घबराहट सी हो रही थी उसे। पिछली बातों को याद कर वो बेसाख्ता मुस्कुरा देती। पेट में कैसे तो हौल से उठ रहे थे उसके पर कल्पनाओं ने इन सबको दरकिनार कर उसे जल्द से जल्द अरहान के पास पहुँचने ,उसे देखने को मजबूर कर दिया। अरहान के होटल के कैफ़े में ही मिलना तय हुआ था। राधिका होटेल पहुंची। उसने फालसाई रंग कि लम्बी फ्रॉक पहन रखी थी। उसने अपनी बेचैन नज़रों से इधर - उधर देखना शुरू ही किया था कि सामने बिलकुल पार्किंग के बगल में ही अरहान दिखा। उसका दिल तेजी से धड्क उठा। वो तीव्रता से उस ओर बढ़ी। अरहान भी तेज़ी से आगे बढ़ा। दोनों ही एक दू सरे की बाहों में खोने को बेचैन थे पर फिर तुरंत ही जगह का भान हुआ और वे मुस्कुरा दिए। अरहान की आँखें ख़ुशी से चमक रही थीं और उसे अपनी तरफ देखता पाकर राधिका की पलकें बोझिल। कितने लम्बे अरसे बाद वे मिल रहे थे। अनहद ख़ुशी के साथ ही घुली ज़रा सी घबराहट भी थी। साथ चलते हुए अरहान ने शरारतन उसकी हथेली को हल्का सा स्पर्श किया। बिजली सी कौंध गई मानों राधिका के भीतर| वो हलके से मुस्कुरा उठी। वे दोनों कैफ़े में आमने-सामने बैठे एक-दूसरे को काफी देर तक निहारते रहे ....इस बीच दोनों के ही मन में पिछले डेढ़ सालों की जुदाई ,उसकी मीठी तकलीफें , तन्हाई का दर्द ,उसके आंसू तैर रहे थे। फिर अहिस्ता -अहिस्ता उन्होंने बातों का रुख किया और फिर दोनों काफी देर तक बातें करते रहे। कॉफ़ी पीते रहे। इसके साथ ही अरहान ने अब बड़ी बेफिक्री से बेहिचक उसकी हथेलियों को धीरे से थाम लिया था ...उसकी उँगलियों को देख और महसूस कर रहा था। पहले तो राधिका सिहरन से भर उठी फिर धीरे-धीरे एक आश्वस्ति का भाव उसमें भरने लगा। अब वो बड़ी शिद्दत से ये महसूस कर रही थी कि अरहान उसका है ....केवल उसका। दोनों रूमानी बातों के अतिरिक्त आगे की प्लानिंग भी कर रहे थे। अरहान खुद अपने उपर चकित था कि स्वभावतः शांत रहने वाला वो आज इतना वाचाल कैसे हो उठा है पर फिर राधिका को सामने देख वो मानों सबकुछ समझता हुआ ख़ुशी से मुस्कुरा उठा। उद्दाम भावनाओं के बाद भी व्यावहारिकता का दामन उन्होंने कभी नहीं छोड़ा था। वे अपने प्रेम को पवित्रता के आदर्श के साथ सबके सामने मिसाल बनाना चाहते थे। इस बात का बहुत ध्यान रखा था उन्होंने कि उनके इस प्रेम की वजह से परिवार का मान या उसकी ख़ुशी तनिक भी कम न हो इसीलिए वे अपने भविष्य को लेकर हमेशा सजग रहते। राधिका ने सोचा था कि वो अरहान को पुणे घुमाएगी पर बातों में दोनों इतना खो गए कि उन्हें वक्त का पता ही नहीं चला। एक - दूसरे का साथ ही तो उन्हें सबसे ज्यादा अज़ीज़ था और इस वक्त वे साथ थे और खुश थे इतना ही पर्याप्त था दोनों के लिए। धुंधलका होने लगा था और शाम भी बस ढलने ही वाली थी। तेजी से गुजरते वक्त को देखकर अब अलग होने का ख्याल राधिका को बेचैन करने लगा। कुछ पलों के लिए अरहान भी चुप हो गया फिर धीरे से उसकी हथेली पकड सीधा उसकी निगाहों में देखते हुए हलकी कंपकंपाती आवाज़ में बोला " राधिका "। राधिका एक बार फिर सिहर उठी। उसे अरहान से रौशन अँधेरे में छत की वो पहली मुलाक़ात याद हो आई जब ऐसी ही कामना में डूबी आवाज़ से पहली बार अरहान ने उसे पुकारा था। उसके पुकारने में कितना नेह था। उसे जवाब देता न पाकर अरहान ने उसे फिर पुकारा। इस बार अधीरता ज्यादा थी। सीधा दिल तक पहुंची। राधिका ने उसकी तरफ देखा। उसकी आँखों में कामनाओं का ज्वार अपनी पूरी गुलाबियत के साथ भरा हुआ पर छलकने को आतुर था और वही अब राधिका में भी संक्रमित हो रहा था। बिना कुछ बोले दोनों उठे। सहमति -असहमति की अब कोई गुंजाइश नहीं थी। पूछना या कुछ कहना कोई मायने नहीं रखता था। तेज धडकनों के साथ वे चल रहे थे। अरहान कुछ आगे और राधिका उसके पीछे-पीछे। लिफ्ट के द्वारा वे दूसरी मंजिल पर जहाँ अरहान का कमरा था पहुंचे। कमरे के सामने पहुँच अरहान एक पल को ठिठका ,पलटकर राधिका की तरफ देखा और फिर धीरे से हाथ पकड़कर उसे कमरे में ले गया। अब अचानक से वे चिर आकांक्षित पर अजीब स्थिति में थे। अचानक ही दोनों असहज हो उठे थे पर इसी असहजता और घबराहट में जब अरहान राधिका के सामने आकर खडा हुआ तो इस बार राधिका ने उसकी हथेली थाम ली। पल भर संभलकर अब दोनों ही अपनी पूरी चाहत , पूरी आरज़ू के साथ एक - दूसरे की बाँहों में थे। एक - दूसरे को चूम रहे थे। कसकर ...और कसकर भींच रहे थे। ऐसे जैसे एक-दूसरे में गुम हो जाना चाहते हों ...एक हो जाना चाहते हों। मिलन का नशा दुनिया का सबसे हसीन-तरीन नशा है। इसकी तासीर सबसे ज्यादा मादक है और इसमें डूबकर फिर संयम लगभग असंभव। ये दोनों भी कुछ ऐसी ही रवानी में पूरे वेग से बहे जा रहे थे और जब लगा कि अब वो एक बारीक रेखा भी पार करने की ओर हैं अरहान अचानक रुक गया। राधिका अब भी आँखें मूंदे उस अनुभव के लिए व्याकुल सी हर बाँध तोड़ने को आतुर बही चली जा रही थी। अरहान ने धीरे-धीरे उसे सहलाते-थपथपाते हुए रोका। राधिका न इसे महसूस किया और भावों के उफान पर काबू पाने की कोशिश करने लगी। उसके चेहरे को चूमते हुए धीरे से अरहान फुसफुसाया , अभी नहीं राधिका ...अभी हम ऐसा नहीं कर सकते और ये कहकर उसने एक बार फिर उसे अपनी बांहों में कस लिया। सच ही तो ...पहले इस लायक बनना होगा कि हमारा प्रेम सम्मान के काबिल हो सके तभी इस पर पूरा हक होगा। आधे-अधूरे में सुख तो होगा पर गर्व नहीं। अब दोनों शांत पर पहले से कहीं ज्यादा प्रेम, विश्वास और एक -दूसरे की कद्र से भर गए थे। घडी की सुइयां आज अपनी गति से तेज़ चल रही थीं और राधिका पहले ही लेट हो चुकी थी। अब उसके जाने का वक्त हो गया था और अल्लसुबह ही अरहान को भी लौट जाना था सो उन्हें एक बार फिर खुद को लम्बी जुदाई के लिए तैयार करना था। सब्र और आज़माइश की मुश्किलों के लिए तैयार करना था। ये काफी तकलीफदेह था पर इसके सिवा कोई चारा भी तो नहीं था फिलहाल। जाने से पहले वे फिर गले मिले ...कुछ देर तक यूँ ही शांत खड़े रहे फिर धीरे से अलग हुए। अरहान ने उसकी हथेलियां और उसका माथा चूम लिया। दोनों की आँखें अब नम थीं पर अब उसमें भरोसा और आत्मविश्वास पहले से कहीं ज्यादा था। जाते हुए राधिका को अरहान तब तक देखता रहा जब तक वो उसकी नज़रों से ओझल नहीं हो गई और राधिका को लग रहा था कि अगर उसने पलटकर एक बार भी देखा तो फिर वो जा नहीं पाएगी इसलिए उसने मुड़कर एक बार भी उसे नहीं देखा।


अब दोनों ही अपने-अपने करियर पर केन्द्रित होने लगे। पढ़ाई में जुट गए। हालांकि इसके साथ ही उनमें बातें भी होती रहीं, .प्यार के उलझे-सुलझे मसायल भी होते , रूठना - मनाना भी होता और साथ ही होते सलाह-मशविरे भी और एक दूसरे की रायशुमारी को तवज्जो देते वे साथ-साथ आगे बढ़ रहे थे। राधिका ने इन सबके बीच तान्या से भी सम्पर्क बनाए रखा था। बहनों वाली चुहल होती रहती थी। इसी तरह वक्त आगे बढ़ता रहा। भविष्य पुख्ता करने की मसरूफियात भी बढ़ती रही। बातों के दरमियान कभी - कभी अरहान अपने पिता के लिए चिंतित लगता। उनकी सेहत और बिगड़ तो नहीं रही थी पर बेहतर भी नहीं हो रही थी। पढ़ाई के साथ-साथ वो अपने पिता का भी पूरा ध्यान रखता। अरहान ने राधिका से सलाह लेकर कुछ समय पहले एम बी ए के लिए अमेरिका की दो-तीन यूनिवर्सिटीज में अप्लाई किया था जिनमें से एक की आज अभी थोड़ी देर पहले ही स्वीकृति आ गयी थी। अरहान खुश तो बहुत था क्योंकि उसने कोई ख़ास उम्मीद नहीं की थी कि वो चयनित हो जाएगा और इसीलिए बस यूँ ही आधे-अधूरे मन से कोशिश की थी पर अब जब उसका चयन हो गया तो वो खासे पशोपेश में पड़ गया था। दरअसल उसके पिता इतने स्वस्थ नहीं थे कि उन्हें अकेला छोड़कर जाया जा सके। किसी और के भरोसे भी उन्हें नहीं छोड़ा जा सकता था क्योंकि एक तो वे खासे चुपचाप रहने वाले व्यक्ति थे दूसरे कभी भी वे किसी से मदद नहीं मांगते थे और न ही लेना पसंद करते थे। अभी तक उसने ये बात राधिका को नहीं बताई थी पर जब सोच-विचारकर भी उसे कोई उपाय न सूझा तो उसने राधिका को फोन किया। एडमिशन वाली बात सुनकर तो राधिका उछल पड़ी , बधाइयाँ देने लगी पर फिर तुरंत ही उसे महसूस हुआ कि अरहान की आवाज़ कुछ गंभीर है ...उसमें घुली परेशानी और चिंता को उसने पकड़ लिया था। किंचित शांत स्वर में पूछा उसने कि क्या कोई दिक्कत है ? अरहान ने उसे सारी बात बता दी , साथ ही ये भी कहा कि अगर उनको ( पिता को ) ये बात पता चल गयी तो वे हर हाल में मुझे भेज देंगे ....जिद्द करके भी भेज देंगे लेकिन मैं कैसे जा सकता हूँ। मैं उन्हें अकेला नहीं छोड़ सकता। माँ के जाने के बाद मेरी परवरिश करते हुए एक लम्बा अकेलापन झेला है उन्होंने। अब मैं उन्हें और अकेला नहीं कर सकता। इस हाल में तो बिलकुल भी नहीं कि जब वे पूरी तरह स्वस्थ भी नहीं हैं और उन्हें मेरी जरूरत है। अब उनकी उम्र के इस मोड़ पर उनके लिए सबकुछ करने की मेरी बारी है राधिका , ये कहते हुए अरहान भावुक हो उठा। राधिका जो चुपचाप उसके उद्गारों को सुन रही थी ..लफ्ज़-ब - लफ्ज़ महसूस कर रही थी अब उसका भी मन भीग उठा ....उसे अरहान पर बहुत प्यार आया पर उसने कुछ कहा नहीं। अरहान इसके बाद भी देर तक अपने पिता के बारे में बात करता रहा। उनके प्यार ,उनकी कुर्बानियों ,उनके अकेलेपन का ज़िक्र करता रहा और राधिका ख़ामोशी से सबकुछ सुनती रही। अब जैसे ही अरहान को ये आभास हुआ कि काफी देर से लगातार वही बोलता जा रहा है ...राधिका ने तो एक शब्द भी नहीं कहा सिवाय हाँ-हूँ के तो वो थोडा असमंजस में पड गया और बोला ....राधिका , तुम कुछ कह क्यों नहीं रही ....तुम नाराज़ तो नहीं हो न। राधिका एक पल को चुप रही फिर कहा , आज तुम्हारे लिए इज्जत बढ़ गयी अरहान। माँ- बाप बच्चों के लिए चाहे जान लगा दें , अपना सबकुछ लुटा दें पर कितने बच्चे हैं जो इस तरह से सोच पाते हैं। तुम निश्चिन्त रहो , तुम्हारा जो भी फैसला होगा मैं हर हाल में तुम्हारे साथ हूँ। राधिका की बात सुन मानो उसके उपर से कोई बोझ हट गया हो। राधिका की बात बहुत मायने रखती थी उसके लिए। उसे लगा कि जब वे साथ हैं तो कुछ न कुछ अच्छा कर ही लेंगे। अब अरहान ने वहीं के एक कॉलेज में एम् बी ए के लिए एडमिशन ले लिया। राधिका को पढने-पढ़ाने का शौक था तो उसने स्नातक के दूसरे साल से ही मास्टर्स और फिर पी एच डी करके प्रोफेसर बनने की तैयारी शुरू कर दी। दोनों अपनी-अपनी तरफ से खासी मेहनत कर रहे थे। ज्यादातर वक्त बिजी रहते पर जब भी मौका मिलता आमतौर पर दिन में कम से कम एक बार बात जरूर होती उनकी। कभी - कभी व्यतिक्रम भी होता पर ये सिर्फ कभी-कभार की ही बात होती। जब राधिका ने मास्टर्स में एडमिशन लिया उसी साल अरहान की प्लेसमेंट एक अच्छी मल्टीनेशनल कम्पनी में हो गयी और पोस्टिंग मिली मुंबई। उसके न केवल इतने करीब आने बल्कि रहने की भी खबर सुनकर राधिका बहुत खुश हुयी। पिता रिटायर हो चुके थे तो अरहान भी बेफिक्र था और उन्हें अपने साथ मुंबई लाने में अब कोई अडचन भी नहीं थी। हालांकि पहले वो नॉएडा छोड़ने पर राजी नहीं थे। अरहान के माँ की आखिरी यादें जो इस शहर और घर से जुड़ी थीं पर फिर अरहान के बारे में सोचकर , उसके मोह में वे मान गए। कंपनी की अपनी कालोनी थी जिसमें आधुनिक फ्लैट,गार्डन ,स्विमिंग पूल ,क्लब इत्यादि सारी सुविधाएँ मौजूद थीं। धीरे-धीरे पिता का मन यहाँ रमने लगा। उनके हमउम्र कुछ लोग और मिल गए जिनके साथ उनका काफी वक्त अब गुजरने लगा। पिता को खुश देख अरहान भी खुश रहता और ये सब वो राधिका से भी साझा करता। राधिका को भी ये संतोष हुआ कि एक लम्बे अरसे तक अकेलापन झेलने के बाद उम्र के इस पड़ाव पर आखिरकार अब उनके कुछ दोस्त बन ही गए थे जिनके साथ वक्त बिताना उन्हें अच्छा लगता था। इससे अरहान खुश था तो वो भी बहुत खुश थी। मुंबई -पुणे की दूरी तीन-साढ़े तीन घंटे की ही थी तो अक्सर ऐसा होता कि अरहान सुबह जाकर राधिका से मिलता और रात तक वापस लौट आता। दोनों अब काफी वक्त एक-दूसरे के साथ बिता रहे थे ...खुश थे। सब ठीक चल रहा था लेकिन तभी एक ऐसा मोड़ आया कि इन दोनों की तो सारी दुनिया ही बदल गयी ...सारे सपने टूट गए। ऐसी उथल-पुथल मची कि सबकुछ बहा ले गयी। हुआ यूँ कि एक रोज जब अरहान शाम को ऑफिस से घर पहुंचा तो उसने देखा कि पिता के कोई पुराने मित्र आये हुए थे। पिता बहुत खुश नज़र आ रहे थे। ये जरूर था कि वो यहाँ आने के बाद खुश रहने लगे थे पर ये ख़ुशी तो कुछ अलहदा ही थी। ऐसा लग रहा था मानों वे कई बरस छोटे हो गए हों। अरहान खुश भी हुआ और चकित भी। आमतौर पर पिता को उसने इतना खुश और आह्लादित कभी नहीं देखा था। रात खाने के बाद वो लैपटॉप पर ऑफिस का कुछ काम कर रहा था कि तभी पिता कमरे में आये। वो मन ही मन चौंक उठा कि अमूमन तो ऐसा नहीं होता था ...पर खैर। पिता उसके पास आकर पलंग पर बैठ गए , एक पल उसे ध्यान से देखा फिर कहने लगे , ये हमजा है ..मेरे बचपन का दोस्त। हम एक ही गाँव में अगल-बगल रहते थे। साथ-साथ हीखेले, पढ़े और बड़े हुए फिर मैं शहर चला आया और ये गाँव में रहकर अपने पिता के साथ खेती -बाडी और उनके व्यवसाय को आगे बढाता रहा। फिर धीरे से मुस्कुराते हुए बोले , तुम्हारी माँ को देखने हम सभी लोगों के साथ हमजा भी गया था और उसीने सबसे पहले देखते ही मुस्कुराकर इशारा किया था कि मैं हाँ कहूं। फिर थोड़े भावुक होकर बोले , तुम्हारी पैदाइश के समय अमीना भाभी ने रुखसाना ( अरहान की माँ) को बहुत संभाला था। बहुत देखभाल की थी उसकी। घरवालों के होने के बावजूद वो अक्सर रात में रुखसाना के साथ रुक जातीं ताकि तुम्हें संभाल सकें और तुम्हारी माँ को आराम मिल सके। पारिवारिक सम्बन्ध अच्छे थे इसलिए घरवाले भी ऐतराज़ नहीं करते थे। मैं तो बाहर था उन दिनों ...कहकर पिता दो पल खामोश रहे मानो उस वक्त माँ के साथ नहीं हो पाने को या तो जस्टिफाई कर रहे हों या फिर अपराधबोध महसूस कर रहे हों। जल्द ही पिता ने कहना शुरू किया , लगभग तीन सालों बाद हमजा के यहाँ बेटी पैदा हुयी। हम उस समय नॉएडा में थे पर जब महीने भर बाद ही ईद में गाँव गए तो तुम्हारी माँ सबसे पहले अमीना भाभी से मिलने उनके घर गयी और उनकी बेटी को गोद में लेकर हंसकर कहा , भाभी ,रुखसार आज से हमारी हुयी। अमीना भाभी और हमजा बहुत खुश हुए ये सुनकर। तुम भी साथ थे। अमीना भाभी ने तुम्हें गोद में उठाकर तुम्हारा माथा चूम लिया और तब तक हमजा मुझे खींचता हुआ वहां लेकर पहुंचा और गले लग गया। उसने अपने गले में पहनी सोने की चेन भी तुम्हें पहना दी। कुछ ही सालों बाद जब तुम्हारी माँ का इंतकाल हुआ तो हमजा और भाभी दोनों आये थे। उसके बाद जब-तब फोन से तो बात होती रही पर फिर किसी ने भी इस शादी का ज़िक्र नहीं छेड़ा। |पिता अपनी रौ में बोलते जा रहे थे। बीच में भावुक भी हुए पर अरहान ,वो तो जैसे किंकर्तव्यविमूढ़ सा चुपचाप सुनता रहा ...उसे लग रहा था कि अचानक से जैसे नदी ने अपना रुख मोड़ लिया हो। पिता भी आज मानों अपने भीतर का सबकुछ उड़ेल देना चाहते थे उसके सामने। उन्होंने फिर कहना शुरू किया। अब तुम्हारी पढ़ाई पूरी हो गयी है बेटा। अच्छी नौकरी भी लग गयी है तो अब मैं तुम्हारी माँ की ये ख्वाहिश पूरी करना चाहता हूँ अगर तुम्हें कोई ऐतराज़ न हो तो। वैसे रुखसार सुंदर है ,पढ़ी-लिखी है। ग्रेजुएशन के बाद आगे भी पढना चाहती है इतना कहकर पिता ने उसके सामने एक तस्वीर रखी और फिर उसका सिर सहलाकर धीरे-धीरे बाहर निकल गए। अरहान ने महसूस किया कि जाते समय उसके पिता की आँखें नम थी|वो द्रवित हो उठा पर तुरंत ही उसका ध्यान फिर पिता की कही हुयी बातों की ओर गया। किसी फिल्म की तरह अभी-अभी उनका कहा सारा कुछ उसकी आँखों के सामने फिरने लगा। भावनाएं आपस में इतनी गड्ड- मड्ड हो रही थीं कि वो एकबारगी क्या महसूस करे उसे समझ नहीं आ रहा था। पिता , उनके दोस्त ,उनकी पत्नी ,उनकी बेटी और राधिका ? पर सबसे महत्वपूर्ण माँ और उनकी ख्वाहिश। अपने इकलौते बेटे के लिए शायद उनकी आखिरी ख्वाहिश ...पर राधिका ? माँ के जाने से कितनी अधूरी थी उनकी जिन्दगी ....माँ कितनी जरूरी थी उनके लिए ...पर माँ नहीं थी ...लेकिन अगर होती तो ? अगर वो राधिका से मिल पातीं ...अपने बेटे का मन , उसकी ख़ुशी जान पातीं ? वो जानता है कि माँ अगर होतीं और वो राधिका को उनसे मिलाता तो राधिका ही इस घर में बहू बनकर आती फिर चाहे इसके लिए उन्हें अमीना चची के सामने शर्मिंदा ही क्यों न होना पड़ता ..उनसे माफी ही क्यों न मांगनी पड़ती ? पर अब वो क्या करे ...पिता को वो बताने वाला था पर उसके पहले ही ये सब हो गया। उसे पता है कि अगर उसने अब भी पिता को ये बात बताई तो पिता राधिका को ही चुनेंगे ...अपने बेटे की ख़ुशी ही चुनेंगे फिर इसके लिए उन्हें अपने बचपन के दोस्त के सामने चाहे शर्मिंदा ही क्यों न होना पड़े ...इस दोस्ती को ही क्यों न खोना पड़े पर वो ये जरूर करेंगे। ओह्ह्ह , अब वो क्या करे ? अरहान अजीब से धर्मसंकट में फंस गया था। पूरी रात उसे नींद नहीं आई। वो माँ , पिता, राधिका और इस पूरे वाकये के बीच ही उलझा रहा। भोर में जाकर उसकी आँख लगी। अगले दो दिन वो भारी पशोपेश में रहा। किसी काम में मन नहीं लगता। उलझ-उलझा सा रहता दिन भर। अगले दिन पिता से ऑफिस के काम का बहाना कर वो पुणे गया। फोन पर नहीं बल्कि आमने-सामने बैठकर वो इस बारे में राधिका से बात करना चाहता था। उसे सबकुछ बताकर उसका निर्णय जानना चाहता था। सुबह दस बजे के लगभग वो पुणे पहुंचा। उसी होटल में एक कमरा बुक किया जहाँ वो पहली बार राधिका से मिला था। अब उसने राधिका को फोन कर उसे मिलने के लिए बुलाया। पहले तो राधिका चौंकी क्योंकि बिना बताये वो पहली बार पुणे आया था फिर अभी एक ही हफ्ते में ये दूसरी बार आना ...राधिका ने सोचा फिर हो सकता है ऑफिस के किसी काम से आया हो ये सोचकर उसने आशंकाओं को परे धकेला और तैयार होने लगी। आज जब वो होटल पहुंची तो अरहान उसे बाहर नहीं दिखा। वो कैफ़े में गयी तो अरहान कोने की टेबल पर कुछ सोचता हुआ सा बैठा था। राधिका के आने को भी नोटिस नहीं किया उसने जब तक कि वो बिलकुल सामने नहीं पहुँच गयी। राधिका को देखते ही वो जल्दी से उठा ...ओह्ह मैं तुम्हें देख नहीं पाया , कहते हुए हलके शर्मिंदगी के पर गंभीर भाव उसके चेहरे पर आये। अब राधिका आशंकित हो उठी। उसे लगा कि जरूर कुछ ऐसा है जो ठीक नहीं है। कॉफ़ी के साथ दोनों कुछ देर इधर-उधर की बातें करते रहे फिर अरहान ने कहा , आओ रूम में चलते हैं। राधिका फिर चौंकी क्योंकि पहली बार अरहान की आवाज़ स्थिर नहीं लगी थी उसे। दोनों ख़ामोशी से उसके कमरे तक पहुंचे। राधिका ध्यान से अरहान को पढ़ रही थी ...उसकी हर गतिविधि आज कुछ अलग और भ्रमयुक्त थी। कुछ देर चहलकदमी करने और अपने आप को तैयार करने के बाद अरहान बिस्तर पर उसके ठीक सामने आकर बैठा। एक पल सीधा उसकी आँखों में देखकर फिर सिर झुका लिया। राधिका ने अब उसकी हथेली थामकर शांत स्वर में कहा अरहान , मैं तैयार हूँ। तुम्हें जो भी कहना है तुम मुझसे कह सकते हो। राधिका ने ये कह तो दिया पर अब उसका दिल किसी अनहोनी को लेकर तेज़ी से धडक रहा था। अरहान अंदर तक भीग उठा और इस बार जो नज़रें उठाई उसने तो ज़रा सी नमी उसकी पलकों पर ठहरी हुयी थी। उसने कसकर राधिका की हथेलियों को थामा , उन्हें चूमा फिर सीधा उसकी आँखों में देखते हुए बोला , मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूँ राधिका। राधिका समझ गई कि अब जो अरहान कहने वाला है ये उसकी भूमिका है इसलिए वो चुपचाप उसकी तरफ देखती रही। अरहान शुरू में तो हिचका पर फिर धीरे-धीरे उसने सारी बात राधिका को जस की तस बता दी। बीच में उसकी आवाज़ कई बार अटकी ,गीली हुयी पर जब वो थमा तो मुकम्मल टूटा हुआ सा लगा। इधर राधिका , वो तो हर एक पंक्ति के बाद पहले से अधिक स्तब्ध होती जा रही थी .....आस-पास सब घूमता हुआ सा महसूस हो रहा था उसे ...समझ ही नहीं पा रही थी कि कैसे प्रतिक्रिया दे ...क्या कहे ? कुछ देर तक दोनों यूँ ही चुपचाप बैठे रहे मानो जो अभी कहा या सुना गया है उसे आत्मसात कर रहे हों। तो फिर अब ? बड़ी कोशिशों से पूछा राधिका ने। राधिका की ओर देखते हुए किंचित गंभीर आवाज़ में कहा अरहान ने , तुम बताओ ...तुम जो कहोगी मैं करूंगा। तुम्हें मैं खोना नहीं चाहता राधिका। तुम्हारे बिना चाहे साँसें भले चलती रहें मेरी पर जिन्दगी थम जायेगी। एक पल को रुका फिर झिझकते हुए अस्फुट स्वर में कहा उसने ....लेकिन पापा। राधिका हिल गई भीतर से। ओह्ह ...और फिर इन्हीं दो शब्दों ने उनके निर्णयों को दिशा देने में अपनी महती भूमिका निभाई। हालांकि अभी - अभी मानों एक तूफ़ान सा गुजरा था राधिका के भीतर से जिससे अभी तक वो जूझ ही रही थी साथ ही ये भी महसूस कर रही थी कि पिछले दो - तीन दिन अरहान के लिए कितने मुश्किल रहे होंगे। काफी देर तक दोनों चुप रहे फिर एक सहज जिज्ञासावश राधिका के मुंह से निकला , कैसी है वो ? अरहान कुछ नहीं बोला। एक बार उसकी तरफ देखा फिर नज़रें फिरा लीं। राधिका समझ गयी कि अरहान ने उसकी तस्वीर नहीं देखी है। तमाम भीतरी झंझावातों के बावजूद राधिका ने इंटरकॉम पर दो कॉफ़ी का ऑर्डर दिया। अरहान चकित था कि इतना सब सुनने के बाद भी राधिका इतनी शांत कैसे है। दरअसल स्त्रियों में मुश्किल वक्त को थामे रखने की एक सहज वृत्ति होती है जिससे अरहान अब तक अनजान था। वे ज्यादा व्यवहारिक होती हैं इसीलिए उनमें मुश्किलों को समझने या सुलझाने का माद्दा भी कहीं ज्यादा होता है। कॉफ़ी आई। दोनों आमने-सामने बैठकर चुपचाप कॉफ़ी पीने लगे। राधिका ने अब तक कुछ नहीं कहा था। अरहान आशंकित तो था ही पर डरा हुआ भी था। राधिका पता नहीं क्या कहने वाली थी। एक पल को अरहान ने सोचा कि वो पापा से बात करेगा। वो राधिका को नहीं खो सकता लेकिन दूसरे ही पल माँ का चेहरा उसके सामने आ गया और वो खुद को बुरी तरह धर्मसंकट में घिरा महसूस करने लगा। खुद को भीतर से पूरी तरह इकट्ठा कर अब राधिका ने अरहान को पुकारा और फिर धीरे-धीरे पूरे घटनाक्रम के मद्देनजर उसने अरहान से कहा कि उसे पिता की बात मान लेनी चाहिए। उसकी माँ भी तो यही चाहती थीं। शायद इसीलिए उन्होंने उस लड़की का नाम खुद के नाम से मेल करता हुआ रखा था " रुखसार "। अरहान उसको इस कदर सधा हुआ और शांत देखकर स्तब्ध था और अब उसके लिए कहीं ज्यादा प्यार और मान से भरा हुआ भी। वो बहुत देर तक उसे समझाती रही। बीच में दोनों ही रोते , एक - दूसरे से लिपट जाते , चूम लेते पर शाम होते-होते मानों उनकी भी किस्मत का सूरज ढल गया। फैसला हो गया था। हालांकि अब भी अरहान इनकार पर टिका था पर अंदर से दोनों ही ये समझ चुके थे कि राधिका ने उसे मना लिया है। अरहान ने जब देखा कि वो जाने के लिए बस उठ खड़ी होने वाली है तो उसे एकदम से अपना सबकुछ खो देने का एक डरावना अहसास हुआ और वो राधिका के करीब जाकर उससे कसकर लिपट गया। उसे बेतरह चूमने लगा। राधिका भी इस बार पूरे समर्पण के साथ उसे चूम रही थी। ये पहली बार था कि उन दोनों की आँखें भरी हुयी थीं और वे दोनों ही एक दूसरे से विलग नहीं होना चाह रहे थे पर जैसा कि हर आगाज़ का अंजाम होता ही है वैसे ही यहाँ भी हुआ। धीरे-धीरे वे शांत हुए और कुछ देर यूँ ही एक-दूसरे की बाहों में एक दूसरे को आश्वस्त करते पड़े रहे फिर राधिका धीरे से अलग हुयी। वे अब भी रो रहे थे पर विदा का एक शब्द भी कहे बिना राधिका दरवाज़े की तरफ बढ़ चली। अरहान ने उसके पीछे आने की कोशिश की तो उसने इशारे से उसे रोक दिया। ये थी उनकी एक खूबसूरत प्रेमकहानी जो इस अंजाम को पहुंची। महीनों तक राधिका गुमसुम रही। ज्यादातर वक्त कमरे में बंद रही। घरवाले थोड़े परेशान हुए उसमें ये बदलाव देखकर पर जल्द ही राधिका ने खुद को संभाल लिया। इधर जाने के बाद महीनों अरहान का फोन आता रहा पर राधिका ने नहीं उठाया। तान्या ने उसे दो-तीन बार फोन करके कहा कि अरहान उससे मिलने पुणे आया है। वो एक बार तो उससे मिल ले पर राधिका ने मना कर दिया। राधिका जानती थी कि अगर एक बार भी वो कमजोर पड़ी तो फिर अरहान को संभाल नहीं पाएगी , न ही खुद को। अब वो कुछ भी बिगाड़ना नहीं चाहती थी। वो एक माँ की उस ख्वाहिश के बीच में नहीं आना चाहती थी जिसनें अंतिम बार शायद अपने बेटे के लिए कोई ख्वाब देखा होगा। वो उस पिता की आरजुओं के बीच नहीं आना चाहती थी जो अपनी पत्नी की अंतिम इच्छा को पूरा तो करना चाहता था पर बेटे पर दबाव नहीं डालना चाहता था और सबसे बढकर वो अरहान के लिए उम्र भर का एक अपराधबोध नहीं निर्मित करना चाहती थी कि वो अपनी माँ की अंतिम इच्छा भी पूरी नहीं कर पाया। प्यार वही तो नहीं होता न जो हासिल हो बल्कि प्यार वो कहीं ज्यादा होता है जो अधूरा हो पर शामिल हो। उसने सबसे बात करना छोड़ दिया था सिवाय तान्या के जिससे भी उसकी बात महीने में एकाध बार ही होती। तकरीबन छ-सात महीनों बाद उसे खबर मिली की अरहान का निकाह रुखसार के साथ हो गया है। संभालने की तमाम कोशिशों के बावजूद वो उस रात पूरी तरह टूट गयी और चुपचाप रोती रही पर अगली सुबह सबकुछ बदला हुआ था। वो थोड़ा देर से उठी पर तैयार होकर कॉलेज भी गयी। सबके साथ सामान्य रही। शाम को घर के रोजाना वाले गपशप में भी शामिल हुयी। वो अब पूरी तरह अपने लक्ष्य पर ध्यान केन्द्रित कर उसमें जुट गयी। कुछ सालों में वो अंग्रेज़ी की प्रोफेसर भी बन गयी। इस बीच कई बार एक टीस उठती पर फिर भी वो अपने तई कभी उसे ज़ाहिर नहीं होने देती। शादी का हर प्रस्ताव सुनते ही ठुकरा देती। एक अच्छी शिक्षिका , एक अच्छी बेटी वो थी और इससे ज्यादा की उसने कोई चाहत नहीं की। तकरीबन तीन-चार साल पहले तान्या से उसे पता चला था कि अब अरहान दिल्ली में है। उसके पिता शादी के कुछ महीनों बाद ही गुजर गए थे। अगली फ्लाइट के लिए अभी दो-तीन घंटे का वक्त था उसके पास। आज अजब अधीरता हो रही थी उसे। इतने सालों के बाद आज वो बस एक बार अरहान की आवाज़ सुन लेना चाहती थी। रोक नहीं पा रही थी खुद को। अब बेचैन क़दमों से वो एअरपोर्ट के बाहर निकली और पहला ही जो बूथ दिखा उससे उसने अरहान का नम्बर डायल किया ( मोबाइल से करना पर पहचान लिए जाने का डर था )| उसकी धडकनें तेज़ हो गयीं ...इतनी कि लगा कोई और न सुन ले। हालांकि एक लम्बे अरसे से उसने उस नम्बर पर कॉल नहीं की थी पर फिर भी न जाने क्यों उसे महसूस हो रहा था कि अरहान ने अपना नंबर अब तक बदला नहीं होगा। एक लम्बी रिंग गयी फिर फोन कट गया। हलकी निराशा के साथ उसने दुबारा नंबर मिलाया और इस बार तीन-चार घंटियों के बाद ही उधर से एक गंभीर आवाज़ सुनाई दी , हेल्लो ..... आह्ह्हह्ह , कितनी चिर प्रतीक्षित , चिर आकांक्षित आवाज़ थी ये। राधिका का रोम-रोम सिहर उठा। उधर से फिर आवाज़ आई हेल्लो ...राधिका को लगा कि इस आवाज़ में पहले से कहीं ज्यादा रोब था फिर तीसरी बार हलकी झल्लाती सी आवाज़ आई हेल्लो , किससे बात करनी है ? कोई जवाब न पाकर रिसीवर रखते-रखते वो मानों रुक गया। उसे कुछ महसूस हुआ था। किसी की उद्दात्त धडकन जैसे उसके दिल को छू गयी थी। हेल्लो , फिर इस बार ये आवाज़ बहुत धीमे से आई और राधिका का कलेजा चाक करते गुजर गयी। राधिका की सिसकी फूट पड़ने को ही थी कि उसने फोन रख दिया। उधर से तुरंत काल बैक हुयी। राधिका चौंककर फिर संभल गयी। वो समझ गई कि अरहान को पता चल गया है और इसके साथ ही राधिका ने बेहद शिद्दत से ये भी महसूस किया कि अरहान भी अब तक वहीँ अटका हुआ है जहां वो खुद है। पहला प्यार कभी भूलता भी तो नहीं न। एक बार हो जाए तो ताउम्र शामिल रहता है हमारे होने में। इन सब के बावजूद फोन की लगातार बजती घंटियों को नज़रंदाज़ कर अब राधिका तेज़ -तेज़ क़दमों से वापिस लौट रही थी। फ्लाइट का वक्त भी तो हो चला था।




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