अर्चना राज चौबे

Romance

4.2  

अर्चना राज चौबे

Romance

काव्या

काव्या

19 mins
507


"ओह्ह्ह्ह सॉरी", टकराते ही कबीर ने कहा। आज फिर उसे देर हो रही थी और इसी हडबडी में वो किसी से बेतरह टकरा गया था और ये कहते हुए वो जो पलटा तो नज़रें मानों थम गयीं। सांस एक पल को तो रुक ही गयी। यही हाल दूसरी ओर भी था। काव्या को एक जरूरी क्लाइंट से मीटिंग करनी थी और उसी की रूपरेखा अपने दिमाग में तैयार करती वो आज इस शॉर्टकट से निकल आई थी कि बेखयाली में ही किसी से टकरा गयी थी। थोड़ी झुंझलाहट के साथ सॉरी कहते हुए जब उसकी नज़रें मिलीं तो उसके कदम मानो चिपक गए धरती से और धडकन वही कि पल भर को थम गयी हो जैसे। कुछ पल दोनों एक दूसरे को देखते रहे और इस कदर देखते रहे मानो रोम-रोम जैसे नज़र हो गयी और लहू जैसे प्यास। अतीत छलक उठा। फिर बड़ी कोशिशों से दोनों पलटे और अपनी-अपनी राह चल पड़े। पर ये चलना भी ऐसा था कि पैरों में किसी ने पत्थर बाँध दिया हो। आम तौर पर गंभीर रहने वाला कबीर कुछ और गंभीर और ग़मगीन हो गया तो काव्या भी अंदर ही अंदर भावनाओं के ज्वार से बुरी तरह उलझ गयी। जूझने लगी। इसी जद्दोजहद में उसकी आँखें पनीली हो उठीं पर जगह का ख़याल कर उसने खुद को थामे रखा। अपने-अपने ऑफिस पहुंचकर दोनों ने ही अनमने ढंग से अपना काम निबटाया। जहां कबीर ये सोचकर थोडा खुश था कि आखिरकार इतने सालों बाद काव्या दिख ही गयी। तो वो यहाँ इस शहर में रहती है। अब भी वैसी ही दिखती है ..वैसे ही छोटे बाल। वही बेख्याली और वही कमसिनी। सोचते-सोचते कबीर के होठों पर मुस्कान आ गयी पर अगले ही पल वो उदासी से घिर गया काश कि वो उससे कुछ पूछ पाता। हाल-चाल ही सही ..इस बहाने उसकी आवाज़ तो सुन पाता पर नहीं। वो तो बिलकुल इस तरह हक्का-बक्का हो गया था कि आवाज़ हलक में ही अटक गयी थी।

उसे अब खुद पर झुंझलाहट कम और गुस्सा अधिक आ रहा था। सोचते-सोचते थककर पीछे कुर्सी पर सिर टिकाकर आँखें मूँद लीं उसने। सेक्रेटरी को पहले ही हिदायत दी जा चुकी थी कि जब तक वो न कहे उसे डिस्टर्ब न किया जाए।इधर काव्या उससे मिलने ( हालांकि इसमें मिलने जैसा कुछ भी नहीं था )के बाद से ही अंदर से बुरी तरह अस्थिर हो गयी थी। मन बेचैन हो उठा था। कोई काम ढंग से नहीं कर पा रही थी। .जैसे - तैसे क्लाइंट को निबटाया फिर क्योंकि अपना ही बुटीक था तो सहयोगी अंजलि को सँभालने के लिए कहकर वो पैदल ही घर की ओर निकल पडी। अब अतीत खुलकर मन में हलचल मचा रहा था। भावनाएं बादलों की तरह उमड़-घुमड़ हो रही थीं। हलकी थकन के बावजूद वो घर नहीं गयी बल्कि पास के ही परिचित कैफ़े में चली गयी। पसंदीदा कॉफ़ी का एक बड़ा मग आर्डर किया उसने ओर सुविधाजनक कोने की सीट पर जाकर बैठ गयी।

थोड़ी ही देर में परिचित वेटर ने मुस्कुराते हुए कॉफ़ी लाकर सामने मेज पर रखी पर काव्या को खोयी हुयी देखकर बिना कहे वो चला गया। काव्या तो अतीत में गुम थी.. भला ध्यान कैसे देती। ..

बचपन अर्थात 14-15 साल की उम्र और वो भी शरारतों व् चुहल से भरपूर। पूरा दिन दोस्तों के साथ मटरगश्ती , लड़ना-झगड़ना , रूठना-मनाना चलता रहता। प्यारी इतनी कि हर कोई उससे प्रभावित हो उसे पसंद करता और शैतान इतनी कि आये दिन मम्मी से डांट खाती पर उससे क्या। एक कान से सुनना और दुसरे से निकाल देना। कितना तो आसान था और ये सोचकर उसके होठों पर मुस्कान तैर गयी। .फिर याद आया कि सामने वाला बँगला जो महीनों से खाली पडा था एक रोज उसमे चहल-पहल दिखी। शैतान की टोली यानि काव्या की चौकड़ी जासूसी के काम पर लग गयी। यहाँ-वहां पूछताछ की तो पता चला कि कोई अर्जुन राजपुरोहित हैं बैंक मेनेजर ..उन्हें ही ये बँगला अलोट हुआ है और एक दो दिनों में वो शिफ्ट करेंगे इसलिए सफाई वगैरह हो रही थी ।एक दिन काव्या जब सुबह सोकर उठी तो उसने देखा कि ब्राउन कलर की एक कार खडी है सामने वाले गेट पर। वो समझ गयी कि फैमिलीआ गयी है। फिर धीरे-धीरे आने वाले दिनों में परिचय हुआ। मम्मी ने उन्हें डिनर पर भी बुलाया तब जाकर काव्या को पूरी तरह पता चला कि दरअसल अंकल-आंटी के अलावा उनका सिर्फ एक बेटा है वो भी उससे तीन-चार साल बड़ा और उस पर भी तुर्रा ये कि बड़ा पढ़ाकू और बोरिंग किस्म का है। काव्या को बहुत निराशा हुयी पर कर भी क्या सकती थी।

खैर कुछ ही दिनों में काव्या ने महसूस किया कि वो उतना भी बोरिंग नहीं था। अच्छे से बात करता था। मुस्कुराता भी था तो काव्या ने दांतों से जीभ काटकर भगवान् जी से माफी मांग ली उस बुराई के लिए जो उसने नमक-शक्कर और मिर्च-मसाले के साथ अपने दोस्तों को सुनाई थी खैर। अब वो अक्सर आंटी के यहाँ जाने लगी। आंटी भी जब-तब उसे बुला लेतीं। कभी कुछ खिलाने तो कभी कहीं साथ जाने के लिए। उसे भी आंटी बड़ी पसंद आने लगी थीं इसलिए वो भी ख़ुशी-ख़ुशी हर वक्त तैयार रहती।ऐसे ही वक्त आगे बढ़ रहा था पर एक रोज काव्या ने महसूस किया कि जब भी कबीर उसकी बातों या शैतानियों पर मुस्कुरा देता है तो उसे अजीब सी गुदगुदी महसूस होती है। वो जब आस-पास होताहै तो उसे बड़ा अच्छा लगता है। वो बहुत खुश रहती है। जिस वक्त वो नहीं दिखता काव्या की नज़रें और उसका ध्यान कबीर को खोजने में ही उलझे रहते हैं। कई बार तो आंटी टोक भी देती हैं हंसकर पर वो ये जानबूझकर नहीं करती बस हो जाता है। क्यों वो नहीं समझ पाती तो और उलझ जाती है।

उसने ये नोटिस किया कि कबीर भी उसे कनखियों से निहारता रहता है। वो कहीं बाहर आती-जाती है तो वो भी टहलते हुए अपने बरामदे में निकल आता है और उसे देखने के लिए ही काव्या निकलते समय जोर से आवाज़ लगाकर मम्मी को बताती थी कि वो जा रही है। .यूँ ही दिन बीतते रहे और काव्या मानो एकांतप्रेमी होने लगी। सहेलियों से कन्नी काटती। कहीं भी आने-जाने से मना कर देती। बस , या तो स्कूल या फिर घर और वो भी अपना कमरा। गाने सुनती या कुछ सोचती और कभी लॉन तो कभी खेतों के चक्कर लगाती कि यहीं हेजों के बीच से शायद वो दिख जाए पर उसे पता न चले कि काव्या भी उसे देख रही है। वो देखती कि जब भी वो बाहर निकलता बड़ी हसरत से काव्या के घर की तरफ देखता पर काव्या जब नहीं दिखती तो उदास और मायूस हो जाता। काव्या बेचैन हो उठती पर मन मसोस कर रह जाती। हालांकि आज वो ये समझ पाती है कि ये सब कुछ उसकी उम्र का तकाज़ा था। हर्मोंस की वजह से था और बिलकुल स्वाभाविक था पर जब ये सब उसके साथ हो रहा था। वो अंदर से बदल रही थी तब बेहद उलझी- उलझी सी थी क्योंकि इसका ठीक-ठीक कारण उसे समझ नहीं आ रहा था और ऐसा होने से भी वो रोक नहीं पा रही थी।

तमाम उलझनों के बावजूद भी जो कुछ उसके और कबीर के बीच घट रहा था वो बहुत भला था। उसमे सुख था। उसमे ख़ुशी थी बावजूद इसके कि उसमे गम ,बेचैनी ,छटपटाहट और असमंजस भी था। काफी दिनों के बाद एक रोज जब वो स्कूल से लौट रही थी तो अचानक ही सामने गेट के पास कबीर खडा दिखा। नज़रें मिलीं और अटक गयीं। कुछ ही पलों में कबीर की तेज़ ,शफ्फाक और गहरी नज़र का ताब काव्या सह नहीं पायी और उसने नज़रें झुका लीं और उसी तरह झुकी नज़रों के साथ वो अपने घर में दाखिल हुयी और सीधा अपने कमरे में जाकर चुपचाप दरवाज़ा बंद कर लेट गयी। उसने महसूस किया कि उसकी पलकें नम हैं। दिल बेतरह तेज़ी से धडक रहा है। साँसें बेकाबू। शरीर तपने लगा। उसने खुद को इन सब में बह जाने दिया। डूब जाने दिया ..देर तक ..कि इस बह जाने में ही सुख था ...इस डूबने में ही राहत थी। इस घटना के बाद अब वो कबीर के सामने पड़ने के ख़याल से और भी कतराने लगी हालांकि उसके घर और खिड़की-दरवाजों या रौशनदान का ऐसा कोई भी कोना नहीं होगा जहां वो कबीर को देखने के इंतज़ार में कई-कई बार घंटों न गुजारती रही हो ..खैर।

उस दिन छुट्टी थी ..सर्दियों के दिन। मीठी गुनगुनी धूप। वो अपने लॉन में बैठी आँखें मूंदे कबीर के बारे में ही सोच रही थी कि तभी उसे मम्मी और आंटी की आवाज़ सुनाई दी जो गेट के पास खडी होकर बातें कर रही थीं। काव्या पर नज़र पड़ते ही आंटी ने उसे आवाज़ दी। बोलीं .."आओ बेटा, आज कस्टर्ड बनाया है। टेस्ट करके बताओ तो। वैसे तो अभी गरम ही हैपर तुम्हारे लिए मै फ्रीजर में डालकर जल्दी से ठंडा कर दूँगी "।.उसके घर जाने का सुनकर काव्या का रोम-रोम धडक उठा। उतावला होने लगा पर किसी तरह बड़ी कोशिश से उसने खुद को नियंत्रित किया। आंटी के साथ घर गयी तो आंटी ने पूछा भी कि "क्या बात है...आजकल आती क्यों नहीं हो... कबीर ने कुछ कहा है क्या? कहा हो तो बताओ अभी उसके कान खींचती हूँ फिर खुद ही मायूस होकर कहने लगीं आजकल उसे पता नहीं क्या हो गया है कि किसी से कोई बात ही नहीं करता। कुछ बोलो तो बस हाँ हूँ करके टाल देता है। आंटी जब ये कह रही थीं कि तभी कबीर कहीं बाहर गया हुआ था आ गया। आंटी ने आवाज़ लगाईं ,कबीर आज कस्टर्ड बनाया है तेरे लिए..तुझे तो गरम ही पसंद है न तो तू भी अभी खा ले यहीं साथ बैठकर। देख काव्या को पकड़ लाई हूँ...पता नहीं आजकल आ क्यों नहीं रही थी। आंटी ने शिकायत के अंदाज़ में कहा। काव्या मुस्कुराकर कुछ कहने ही जा रही थी कि तभी उसने देखा कबीर सीधा उसी की तरफ देख रहा था। काव्या सिहर उठी। क्या-क्या तो था उन नज़रों में ..उलाहना ,तकलीफ और...और प्रेम सा कुछ। काव्या एक बार फिर सहम गयी हालांकि उसकी नज़रों में ये सब होना उसे अच्छा लगा था। आंटी कस्टर्ड का बाउल कबीर को देते हुए बोलीं कि "बस दो मिनट बैठो बेटा...मै अभी इसे ठंडा करके लाती हूँ...अचानक काव्या को न जाने क्या हुआ वो भी ट्रे से अपना बाउल उठाते हुए बोली कि आंटी आज मै भी गरम खाकर देखती हूँ"। आंटी रुक गयीं ..सच ?..वैसे ज्यादा वक्त नहीं लगेगा... नहीं आंटी ठीक है। चलो ठीक है फिर कहते हुए आंटी भी मुस्कुराते हुए बैठ गयीं कि तभी काव्या ने कनखियों से देखा कि कबीर के चेहरे पर ख़ुशी तिर आई है और जब नज़रें टकरायीं तो हडबडाहट में कस्टर्ड काव्या की फ्रॉक पर छलक उठा ..आंटी बोल पडीं कि देखो मैंने कहा था न कि ठंडा कर देती हूँ और पोंछने के लिए टिश्यू निकालने लगीं पर काव्या उठाकर खडी हो गयी और बोली,आंटी मै इसे धो लेती हूँ और इतना कहकर वो बेसिन की तरफ चली गयी।

इस पूरे वक्त उसके दिल की रफ़्तार पूरे वेग में थी। शायद कबीर के भी कि वो तो उसे ही अपलक देख रहा था। मौका भी था क्योंकि आंटी अब फ़ोन पर किसी से बात कर रही थीं। आज दोनों ने एक दूसरे से एक शब्द भी नहीं कहा कि जैसे कहना-सुनना सब चुक गया था। बस अहसास थे जो सब कुछ बहाए लिए जा रहे थे ..वो दोनों भी इस सब को बड़ी शिद्दत से महसूस कर रहे थे कि जुबां सूख-सूख जा रही थी उनकी। जैसे -तैसे कस्टर्ड ख़त्म हुआ और काव्या जाने के लिए उठ खडी हुयी क्योंकि अब उससे वहां बैठा नहीं जा रहा था। उसे लग रहा था की अगर वो थोड़ी देर और रुकी तो पता नहीं क्या हो जाये। पर कुछ तो होना ही था न आज जो हुआ भी। काव्या जाने के लिए जैसे ही मुडी कबीर ने उसकी बायीं हथेली कसकर थाम ली। ओह्ह्ह्ह...काव्या की साँसें बेकाबू होने लगीं। वो बेतरह कांपने लगी। ऐसा लगा जैसे उसका पूरा शरीर शिथिल पड़ता जा रहा है। जैसे उनमे ताकत ही न बची हो। उसकी आँखों में सुख की नमी उतर आई और उसने आहिस्ता से पलटकर कबीर को देखा...वो ठीक उसके पीछे खडा था। उसकी भी साँसें तेज़ थीं। इतनी कि काव्या को उनकी तपन महसूस होने लगी। उसकी आँखें कैसी तो गुलाबी सी हो गयी थी और अब वो धीरे-धीरे काव्या की उँगलियों में अपनी उँगलियाँ फंसाने लगा था। धीरे-धीरे उसकी आँखों में भी नमी उतर आई और तब काव्या ने एक बार हल्के से उसकी हथेलियों को दबाकर उँगलियाँ ढीली छोड़ दीं। अब धीरे से उसने भी काव्या की हथेली छोड़ दी। काव्या का मानो रोम रोम मचल उठा ..समर्पण भाव तीव्रतर होने लगा पर किसी तरह कांपते कदमो से वो घर के लिए जाने लगी। आंटी अभी तक फ़ोन पर थीं। काव्या जब तक अपने घर में दाखिल नहीं हो गयी तब तक उन दो आँखों की तपन और नमी दोनों ही अपनी पीठ पर महसूस करती रही। कमरे में पहुँचने पर ऐसा लगा कि मानो वो संक्रमित होकर पूरी देह में फ़ैल गया हो...  काव्या देर तक इस सुख को महसूस करती रही। कब तक नहीं पता और शायद कबीर भी।( काव्या और कबीर दोनों को ही इस बात का तनिक भी अंदाजा नहीं था कि यही पल...हाँ ठीक यही एकमात्र पल उन दोनों के नेह का इकलौता गवाह होने वाला था ) इसके बाद एक ओर जहाँ बेचैनी , बेकरारी अपने चरम पर थी वहीँ एक विकट किस्म की झिझक भी भरपूर तरीके से प्रभावित करने लगी थी अब। जहाँ वो हर पल कबीर के साथ होना चाहती वहीँ उसके लिए हिम्मत जुटा पाना नामुमकिन लगता। इस घटना को तकरीबन एक हफ्ते हो चुके थे। काव्या अपने कमरे में बैठी गाने सुन रही थी। शाम 7 या 8 बजे का वक्त था। एक फ़ोन आया ..मम्मी ने कहा उठाने को पर वो अनसुना कर दी। फिर बार-बार फ़ोन आने लगा तो झुंझलाकर मम्मी ने उठाया पर कोई आवाज़ न आने पर नाराज़ होकर फिर अपने काम में लग गयीं। ( बाद के दिनों में काव्या कितना पछताई ,रोई थी कि काश मैंने फ़ोन उठा लिया होता। शायद उसी का रहा हो )|

अगले दिन सुबह अभी ठीक से आँख खुली भी नहीं थी कि कानों में मम्मी की आवाज़ पड़ी जो पापा से कह रही थी कि....पता है , आज सुबह वाली ट्रेन से कबीर चला गया...पूनम ( कबीर की मम्मी ) बता रही थीं.... कह रही थीं कि कॉलेज खुलने में तो अभी ३-४ दिन बाकी है पर पता नहीं क्या हुआ कि कल रात अचानक अपना सामान पैक करने लगा...बोला जाना है ..जरूरी काम है। बहुत उदास लग रही थीं। खैर पढने-लिखने वाला बच्चा है ..होगा कुछ काम। पापा भी बस हाँ, हूँ कर रहे थे पर मै। काव्या एक झटके से उठी और भरसक खुद को सामान्य दिखाते हुए जाकर मम्मी के पास बैठ गयी। सोचा शायद कुछ और कहेंगी पर इसके बाद इस सम्बन्ध में उन्होंने कुछ नहीं कहा। वो मायूस होकर उठी और जाकर गेट के पास खडी हो गयी। उसके घर के हर उस जगह पर उसकी नज़रें अटक- अटक सी जा रही थीं जहां वो खडा होता था .. उसे निहारता था। ऐसा लग रहा था कि मानो काव्या का दिल अपनी मुट्ठी में लेकर कोई कसकर निचोड़ रहा हो।

काव्या सुन्न पड़ गयी थी ..कब और कैसे वो वापिस आई उसे नहीं पता। अपने कमरे का दरवाज़ा लगाकर म्यूजिक सिस्टम की तेज़ आवाज़ के पीछे वो तकिया दबाकर भरभराकर रो पड़ी। बहुत देर तक रोती रही। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वो यूँ अचानक क्यों चला गया...उसने उसे बताया क्यों नही:...अभी तो ठीक से वो महसूस भी नहीं कर पाये थे इस अहसास को और न ही दोनों में से किसी ने इसे शब्दों में ढाला था और वो इस तरह से सब कुछ अधूरा छोड़कर चला गया, ज़रा भी फ़िक्र नहीं की मेरी..कोई ख्याल नहीं आया मेरा.. आखिर उसने ऐसा क्यों किया?यही सब सोचते हुये वो देर तक रोती रही फिर जब कुछ संभली तो सबसे पहले खुद का हुलिया ठीक किया और थोड़ी प्रकृतिस्थ होकर बाहर निकली। बिलकुल सामान्य बाकी के दिनों की तरह।धीरे-धीरे कुछ दिनों में वो संभल तो गयी पर जब भी उसे कबीर के जाने का ख़याल आता तो एक अजीब किस्म की कचोट उसके ज़ख्मों में भर जाती पर अब तक उसे इन सबसे डील करना आ गया था ..बुलाने पर वो आंटी के घर भी जाती। बातें करती। आंटी कबीर के बारे में कुछ बतातीं तो तटस्थ भाव से सुनती भी पर कोई प्रतिक्रिया नहीं देती। हाँ ये जरूर था कि वहां बैठे-बैठे उसे हर वक्त एक किसी और कि भी मौजूदगी महसूस होती। दो गहरी आँखों का ताप भी पर वो खुद को बड़ी मजबूती से संयमित रखती थी हालांकि मन बार-बार भर आता था।

तकरीबन एक महीने बाद ही पापा का ट्रान्सफर दूसरी जगह हो गया। मम्मी खुश थीं कि शायद दूसरी जगह जाकर काव्या फिर से पहले की तरह हो जाए पर उन्हें क्या पता था कि काव्या अब पहले की तरह कभी नहीं हो सकती कि उनके अनजाने ही उनकी बेटी के साथ कुछ ऐसा घट चुका है जिसने बेटी का मन बदल दिया है पूरी तरह ..खैर। काव्या जाना तो बिलकुल नहीं चाहती थी क्योंकि उसके आने ,उसे देखने.. उससे मिलने की उम्मीद तो अब भी थी ही पर पता नहीं ऐसी कौन सी फांस उसके कच्चे मन में चुभी थी कि जिसे वो निकाल नहीं पा रही थी। उसका स्व बार-बार आड़े आ जाता। इस तरह हफ्ते के अंदर ही वो लोग शिफ्ट हो गए। आते समय आंटी बड़ी उदास थीं। उन्होंने डिनर पर भी बुलाया था। बातों- बातों में मम्मी ने कहा कि कबीर भी होता तो कितना अच्छा होता। उससे भी मिल लेते पर खैर। उसे भेजिएगा जरूर एक बार। मम्मी की बात सुनकर काव्या को यूँ लगा कि अंदर ही अंदर पीर का कोई सोता बेसाख्ता फूट पड़ा हो पर बड़े ज़ब्त के साथ उसने आँखों को नम होने से रोके रखा। चलते समय आंटी ने उसे गले लगाया और प्यार से चूमा भी। अब जरूर काव्या की आँखें नम हुयीं पर वो छुपा ले गयी।

अब एक नयी जगह.. नए लोग , नया माहौल, नए दोस्त और नया स्कूल। .परिवर्तन की ढेरों संभावनाएं भी। समय बीतने के साथ -साथ काव्या व्यस्त होती चली गयी। टीस कुछ हद तक कम होते-होते अब कभी कभार ही बेचैनी तक का सफ़र करती।हालांकि अब काव्या यहाँ रमने लगी थी पर फिर भी कभी -कभी तन्हाई में दो तेज़, शफ्फाक आँखें उसे चुभने लगतीं। उन आँखों की तपन उसकी देह में तारी होती तो नमी उसे मुलायम , सुचिक्कन कर देती। कच्ची उम्र का पहला अनुभव उसे जितना छीलता उतना ही सहलाता भी। वो किसी से इसे कह भी तो नहीं सकती थी कि बाँट ले तो शायद तकलीफ कम हो। तब ये मोबाइल वगैरह तो छोडिये सामान्य लैंड लाइन तक हर किसी के पास नहीं होता था कि किसी तरह नम्बर का जुगाड़ करके बात हो जाए। जब सह नहीं पाती काव्या तो लिखने लगती। घंटों लिखती फिर उसे फाड़ देती पर ये तो कोई हल नहीं था तो उसने अब अपनी भावनाओं को। अपनी तकलीफ को शब्दों में बुनना और सजाकर कागज़ पर उकेरना शुरू किया और वो ये सबसे छिपकर करती। .ऐसा ही कुछ तो कबीर के साथ भी हुआ था कि कि वो गुस्से और जोश में हॉस्टल तो चला आया पर जब उसे पता चला कि काव्या लोग यहाँ से चले गए हैं तब वो पछतावे और अफ़सोस से मानो भर गया। बार-बार खुद को लानत भेजता कि उसने ऐसा क्यों किया पर अब तो ये हो चुका था जिसे सुधारने के लिए उसने मम्मी से कई बार उस जगह के बारे में पूछा जहाँ काव्या के पापा का ट्रांसफर हुआ था पर मम्मी को अब तक शायद इसका कुछ-कुछ आभास हो गया था  और वो इस मसले को आगे बढ़ाने के हक में नहीं थीं इसलिए वो बात को टाल गयीं। कबीर छटपटाकर..  मन मसोस कर रह गया।

कुछ महीनों में काव्या की स्कूलिंग पूरी हो गयी। अच्छे ग्रेड आये थे। .अब वो आगे की पढ़ाई के लिए दूसरे शहर में रहती थी। मम्मी को हर दूसरे- तीसरे दिन फोन करती पर जब भी फोन देखती तो पछतावे की एक तीखी लहर उसे अपने चपेटे में घेर लेती और एक काश उसकी आँखों में सांझ उतार देता। समय बीतते वक्त नहीं लगा और अब काव्या फाइनल एक्जाम्स के बाद घर आई थी। दो-चार दिनों के बाद ही मम्मी ने बड़ी ख़ुशी से उसे बताया कि उनकी सबसे अच्छी सहेली रमा मौसी उन सबसे मिलने आ रही हैं। उसे भी ख़ुशी हुयी पर मम्मी एक बात जो बड़ी सफाई से छुपा गयीं वो ये कि उनके साथ उनका बेटा रोहन भी आ रहा है। ये तो उसे उनके आने के बाद पता चला। मासी और रोहन दोनों ही बड़े सभ्य और खुशमिजाज़ थे। घर का माहौल जो अब शांत-शांत सा रहता था उनके आने से खुशगवार हो गया। मम्मी भी अपनी पुरानी पक्की सहेली से मिलकर बड़ी खुश थीं। पापा आमतौर पर तो ऑफिस के कामों में व्यस्त रहते पर जितना भी समय घर पर गुजारते सबके साथ ही बैठते।

खूब गप्पें होतीं। हंसी -मज़ाक चलते। ऐसे में जब दो-तीन दिनों के बाद मम्मी ने उससे रोहन के लिए पूछा तो वो मना नहीं कर पाई ..हाँ ये जरूर था कि एक तीखी टीस के साथ उसे वो दो शफ्फाक नज़रें खुद को चीरती सी महसूस हुयीं। वो कमरे में जाकर एक बारगी रो पडी पर बाकी सबने समझा कि वो शायद शर्मा रही है इसलिए वहां से चली गयी। फिर तो क्या था चट मंगनी पट ब्याह वाली कहावत ही लागू हुयी। रोहन के पापा भी आ गए तो मंगनी हो गयी फिर महीने के अंदर शादी और फिर इस तरह विदा होकर वो इस शहर में तकरीबन ५ साल हुए आ गयी पर ब्याह की हर रस्म में उसे लगता रहा.. महसूस होता रहा कि इतनी भीड़ के बीच कोई एक जने ऐसा भी है जो लगातार अपनी पनीली नज़रों से उसे निहार रहा है। वो भी न जाने कितनी बार पिघली पर खुद को पूरी मजबूती से संभाले बैठी रही पर ईश्वर क्या चाहता है ये कोई समझ नहीं पाता। जब उसे जिससे मिलाना होता है वो मिला ही देता है जैसे आज। और कबीर का नाम जहन में आते ही उसने आँखें मूँद लीं। वो पूरा का पूरा उस लम्हे को खुद में उतार लेना चाहती थी जिस पल वो कबीर से मिली थी। उसे देखा था। ये उसके हिस्से का वो सुख था जो उसे अनायास ही मिल गया था किसी दुआ की तरह और जिसे वो हमेशा के लिए सहेज लेना चाहती थी।

शाम को रोहन ने उसे सर प्राइज करते हुए शापिंग पर चलने को कहा जिसे थोड़े न-नुकुर के बाद उसे स्वीकारना पडा। आज उसका कहीं जाने का मूड नहीं था पर वो रोहन के मनुहार को ना नहीं कह पायी थी इसलिए पास के ही माल में गए। एक-दो छोटी - मोटी चीजें खरीदते हुए वो आगे बढ़ रहे थे कि अचानक काव्या ने सामने देखा और धक् से रह गयी। कबीर चला आ रहा था हालांकि उसकी नज़र अब तक काव्या पर नहीं पडी थी। अचानक ही एक छोटे बच्चे की टकराहट के साथ उसकी नज़र जो घूमी तो सीधा काव्या पर अटक गयी। क्योंकि रोहन अपने लिए सन ग्लासेस देखने में बिजी था तो वो दोनों कुछ पलों तक एक- दूसरे को अपलक देखते रहे....फिर अचानक ही काव्या ने जोर से कहा अरे, आप यहाँ ?कबीर उसके इस बर्ताव से चौंक गया पर आगे बढ़ा तब तक काव्या ने रोहन की तरफ मुड़कर कहा ..रोहन, इनसे मिलो...ये कबीर हैं...मेरे पुराने नेबर और ये रोहन हैं..मेरे हसबैंड। दोनों ने तपाक से एक दूसरे से हाथ मिलाया.. औपचारिक बातें की। काव्या और कबीर ने भी एक दूसरे के बारे में ,उनके माता- पिता के बारे में पूछा। बातों के दौरान ही कबीर ने अपनी शादी और एक दो साल के बेटे का भी ज़िक्र किया। ये सुनकर काव्या मुस्कुरा दी हालांकि ये मुस्कान सख्त थी ऐसा कबीर ने साफ़- साफ़ महसूस किया...उसके भीतर भी कहीं कुछ दरक गयाा था   रोहन ने घर आने के लिए कबीर को आमंत्रित किया तो कबीर ने बड़ी विनम्रता से धन्यवाद सहित बताया कि कल सुबह वो जा रहा है। यहाँ तो कम्पनी के एक काम से दो रोज पहले ही आया था। काव्या एक बारगी ये सुनकर हतप्रभ रह गयी पर उसने खुद को सहेजा और मुस्कुराकर कहा कि अगली बार जरूर आइयेगा हालाँकि दोनों ही जानते थे कि वो अगली बार अब कभी नहीं आएगा। अब आगे बढना था तो कबीर और रोहन ने एक दूसरे से हाथ मिलाया और काव्या ने उसकी आँखों में देखते हुए बाई कहा। उस एक पल में उनकी आँखों में न जाने क्या-क्या बिखर गया ये कोई नहीं जानता और उसी एक लम्हें उनका एक नया करार भी हुआ जो शायद वे खुद नहीं जानते। हाँ ये जरूर हुआ कि विपरीत दिशा में आगे बढ़ते समय बेखयाली में उनकी हथेलियां एक दूजे से छूती हुयी गुजरीं और एक टीस को बड़ी शिद्दत से उनके बीच बिखेर दिया। दोनों की आँखें नम थीं पर दोनों ने उसे बड़ी ख़ूबसूरती से ज़ब्त किया था। तो ये थी काव्या और उसका अनकहा सारा।


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