Mukul Kumar Singh

Inspirational

4  

Mukul Kumar Singh

Inspirational

वात्सल्य

वात्सल्य

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टन्-टन्न-टन्न। तीसरी घंटी लगने भर की देर थी कि सभी रूमो मे हुल्लड़ मच गई| बाथरुम और पानी-पीने के लये कम्पिटीशन शुरू, साथ ही साथ शोर-गुल| छात्रों का ये बेंच-वो बेंच करने की धुम| शहर का नाम किया हुआ स्कूल, पठन-पाठन के अनुकूल, प्राकृतिक एवं कृत्रिम वातावरण| तीन स्तर पर आकर्षक भवन, बड़े-बड़े कमरे एवं प्रत्येक कमरे में बड़ी-बड़ी हवादार खिड़कियां शिक्षकों के लिए चेयर-टेबुल, चॉक-डस्टर तथा प्राय: सभी कमरों में गोर्की, टालस्टाय, शेक्सपियर, वर्ड्सवर्थ, बर्नार्ड शा, मदर टेरिजा, रवीन्द्र नाथ, गाँधी, जवाहरलाल, आइन्स्टाइन, न्यूटन, स्टीफन हॉकिंग आदि विभूतियो की तस्वीरें टंगी हुई है| कमरे के बाहर लम्बा सा बरामदा वह भी रेलिंग से घिरी हुई और एक निश्चित दूरी पर सीजनल फ्लावर के पौधे लगे गमले जिनमें रंग-विरंगे खिले फूल आगन्तुकों का मन मोहन के लिये काफ़ी है| बरामदे से बाहर नज़र दौड़ाने पर विशाल प्लेग्राउण्ड जिसके चारो तरफ उँचे-उँचे मोटे तनेवाले कृष्णचूड़ा तथा पलाश के पेड़| इन्हीं के छाया के तले हरी घास वाली कालिन यदि बिछा हुआ मिले तो स्कूल के सुन्दरता में चार चाँद लगा नहीं कहेंगे तो यह अति मुल्यांकन नहीं कहलायेगा?


मिसेस बसु आधुनिकता से सजी हुई पर शालिनता की कोई कमी नहीं| एम. एस. सी., बी. एड. जीवन विज्ञान की शिक्षका| खट-खट की आवाज़ करती हुई सिढ़ियो को तय कर रही थी| द्सरे तल्ले पर ही रूम न. बारह क्लास सेवेन जो सीढ़ी से उपर चढ़कर ही बाँई ओर थी| छात्रों की शोर-गुल सुनाई दे रही थी| रूम के दरवाजे पर जाकर मिसेस बसु जैसे ही खड़ी होती है कि कमरे में शान्ति छा जाती है| इतनी शान्ति कि सुई गिरने की आवाज़ भी सुनाई देगी|


"गुडमार्निंग मैम..." सारे छात्रों द्वारा शिक्षिका के स्वागत में खड़े हो जाना| शिक्षिका कमरे में प्रवेश करती है|


"गुडमार्निंग, ब्वायज एण्ड गर्लस्| बी. सीट डाउन।"


"थैंक्यू मैम।" सभी छात्र बैठ गये|


"आज आप लोग क्या पढ़ोगे?"


"मैम, जरिमनेशन।"


"आप लोगो ने इस चैप्टर को अपने-अपने घरों पर टच किया है?"


पुरा कमरा शान्त पर छात्रों की चंचलता भले ही शान्त है! पर इनकी आँखें तो टीचर की तरफ और उँगिलयाँ, केहुनियाँ, घुटने, पैर के पन्जे अपना काम तन्मयता के साथ संचालित कर रहे थे| मिसेस बसु सब पर सरसरी दृष्टि दौड़ाती है| दो बच्चे हाथ उठाए खड़े थे|


सप्तर्षि खड़ा हो गया, कहता है-"मैम, बीज से नया पौधा बनने की प्रक्रिया है।"


"गुड| अब तुम बोलो| हाँ सप्तर्षि, बैठ जाओ|"


थैंक्यू मैम की आवाज सुनाई देती है| दूसरे छात्र का उत्तर सुनाई पड़ने लगा|


"मैम, जरिमनेशन प्रत्येक बीज में नये सुसुप्त नन्हे पौधे के द्वारा भोजन बनाने का कार्य है|"


"वेरी गुड, सीटडाउन प्लीज|" शिक्षिका कहती है|


"थैंक्यू मैम..."


मिसेस बसु इसके बाद बोर्ड पर मटर के बीजांकुरण का चित्र बनाती जाती है और जरिमनेशन पर समझाती चली जाती है| साथ-साथ कलाई घड़ी को भी एकबारगी देख लेती है| अगले पीरियड में इसके उपरी तल्ले की सिढ़ियाँ चढ़नी होगी| सभी छात्र गुंजन करने लगते हैं|


"प्लीज कीप क्वाइट माय चिल्ड्रेन।" सारे छात्रों पर पैनी दृष्टि दौड़ाई|


"मैम, मेरा एक क्वेश्चन----" एक छात्र पूछा, जो दाँयी ओर के दूसरी बेन्च पर बैठा था|


"हाँ-हाँ, पूछो|"


"मैम, हमारे घरों में भोजन पकाने वाली रसोई आँटी होती है पर पेड़-पौधों का भोजन कौन पकाता है?"


"मैं बताउं। पत्ते|" एक छात्रा उठ खड़ी होती है और उत्तर देकर ही थप से आधी जीभ बाहर निकाल, पुनः अन्दर करती बैठ गई|


"इसका मतलब पौधों की मम्मी पत्तियाँ ही हैं..." रुचि नामक छात्रा के ऐसा कहने पर सभी हँसने लगे| मिसेज बसु भी मुस्कराने लगी|


"लो, इसमें हँसने की क्या बात है! मम्मी तो रसोई पकाने वाली औरत ही है न।" शाश्वत नामका मोटा सा थुलथुला शरीर वाला छात्र कहता है| पुनः हँसी के थपेड़ों से कमरा गुंज उठा|


"शान्त-शान्त।" डस्टर टेबुल पर ठोकती है मिसेज बसु।रूम में शांति छा गई|


"लेकिन मैम, मेरी मम्मी रसोई पकानेवाली औरत नहीं है| वह मेरी माँ है।" यह कणाद नामक मिसेस बसु के घर रसोई पकाने वाली का पुत्र था| उसके गर्वित मुखमण्डल को देखकर ही मिसेज बसु के मस्तिष्क को झटका सा लगता है...


तभी टन्न-टन्न-टन्न-टन्न की घंटी लगती है|मिसेज बसु कमरे से बाहर निकल आई|


मिसेस बसु का परीवार आर्थिक रुप से काफ़ी सम्पन्न है|पिता राज्य सरकार के उँचे पद पर आसीन अधिकारी| सात कट्ठे जमीन पर खड़ा सुंदर आकर्षक बिल्डींग| सारी सुविधायें उपलब्ध| गेट से प्रवेश करते ही मनोरम लॉन| गाड़ी के पोर्टीको में कीमती गाड़ी| घर का काम करने वाले नौकर-चाकर| मिसेस बसु स्वयं नारी एवं शिशु-कल्याण से जुड़े संगठन की समिति की अध्यक्षा| सोसाइटी में समाज-सेविका के रूप में परिचित नाम| स्थानीय राजनैतिक दल की एक्टिव कार्यकर्ता भी हैं| दो-दो बार पौरसभा की काउंसिलर रह चुकी है। जरूरतमंदो की सहायता भी दोनों हाथ से करती हैं| सम्पूर्ण रूप से नारी शक्ति की प्रतिमूर्ति| परीवार में वृद्धा सास तथा एकमात्र पुत्र अर्णव, क्लास टेन में अध्ययनरत| पुत्र भी मेधावी छात्र|साथ ही साथ नृत्य-गान, पेंटिंग तथा एक अच्छा बैट्समैन| सास को छोड़कर पति-पत्नी, पुत्र अपने-अपने रुटीन में व्यस्त| सप्ताह में एक दिन की छुट्टी बस नाम के लिये| टुक-टाक दो-चार शब्दों का लेन-देन| कभी-कभार सास का कुशल-क्षेम पुछ ली| वृद्धा सास को भी कोई शिकवा-शिकायत नहीं है क्योंकि वर्तमान स्थितियों को वह समझती है-सभी व्यस्त हैं पर अकारण नहीं|


मिसेस बसु आज स्कूल से जल्द हीं वापस आ गई| शाम को एक आवश्यक मीटिंग में जाना होगा जो पूर्व निर्धारित है| पति को मोबाइल पर सम्पर्क कर हाय-हैलो तथा पुत्र से भी मोबाइल पर ही बात होती है- "बेटे, खाना-वाना खाकर ही कम्प्यूटर सिखने जाना।"


"देखेंगे| यदि अच्छा लगा तो खा लेंगे|" दूसरी तरफ से प्रत्युत्तर| मिसेस बसु बेटे के इस अभ्यास को जानती है| इसलिये उसके उपर दबाव नहीं देती है| बेटे की कार्यशैली में खामख्यालीपना है| किसी के कहे अनुसार कोई काम नहीं करता है| ऊपर से मोबाइल को अपने शरीर के अन्ग के रूप में स्वीकार कर उँगिलयाँ टच स्क्रीन पर नचाते रहता है| पास-पड़ोस या क्लास के मित्रों की संख्या कम पर रात भर जाग कर फेस बूक पर चैंटिंग करता है| कब सोता है? कब जागता है? माता-पिता को पता नहीं| हाँ यदि किसी को पता था तो वह थी एकमात्र वृद्धा सदस्या। अर्णव अपनी इस वृद्धा से उतना वार्तालाप नहीं करता था परन्तु घर से बाहर निकलते समय टाटा/बाय-बॉय कहने अवश्य जाता था| उसका चिबुक को अपने हाथों से स्पर्श कर अम्मा का दुग्गा-दुग्गा सुनना उसे बहुत अच्छा लगता है|


अर्णव को आज ट्यूशन से घर आने में रात साढ़े ग्यारह बज गये| माता-पिता के कमरे में बत्तियाँ जल रही थी| अपने कमरे में जाते-जाते एकबारगी पिता के कमरे को खिड़की से देखा कि पिता किसी फाईल के पन्नों को उलट-पुलट रहे थे और माँ भी किसी कागज को देखने में व्यस्त थी| बिना रुके अपने कमरे का दरवाज़ा हल्के से खोला, पीठ से बैग उतार कर एकतरफ टेबुल पर फेंकता है तथा पैन्ट के जेब से मोबाइल निकाल कर स्क्रीन ऑन कर कुछ देखता है तथा जैसे कोई गूड न्यूज़ हो आनन्द से उत्साह में दोनों हाथ उठा कर विक्ट्री का अभिनय कर उछल कर धम्म से बेड पर पसर जाता है| कमरे में अम्मा का प्रवेश|


"अर्णव, रात बहुत हो गई है|"


"अम्मा, तुम सोई नहीं अब तक?”


"नहीं, क्योंकि मेरा कन्हाई अभी तक भोजन नहीं किया|"


"क्या फायदा है इस कन्हाई के भोजन से?"


"कन्हाई का भोजन करना तथा रात को जल्द सो जाना ही मेरी मुक्ति है|"


"अच्छा| मुक्ति मीन्स फ्रीडम।"


"हाँ। पर तु पहले ये मोबाइल ऑफ कर कपड़े बदल। कणाद की माँ टेबुल पर तेरा भोजन ढँक कर रख दी है। यह भी एक औरत है, बेटा आँठवी कक्षा का छात्र है फिर भी उसे अपने हाथों भोजन खिलायेगी तब जाकर स्वयं खायेगी।"


अर्णव को आश्चर्य होता है सुनकर जो उसके मुखमंडल से हीं प्रकट हो उठी। कपड़े बदल कर हाथ-मुख बिना धोये हीं भोजन को चम्मच और काँटे की सहायता से उदरस्थ करने लगा। अचानक कणाद की माँ का भोजन कराने का दृश्य कौंध जाता है। बस झट से मोबाइल का स्क्रीन ऑन कर एक चित्र बना डाला-एक महीला, जिसके एक हाथ में एक बाटी, जिसमें खाने का सामान तथा दूसरे हाथ में एक चम्मच भोज्य सामग्री से भरा एवं सामने ही एक लड़का भोजन कर रहा है। यह देखकर वह मुस्कुरा उठा। फिर अम्मा को देखता है, जो उसके बिस्तर पर लेट जाने के बाद हीं जायेगी।


"अच्छा अम्मा। मेरे भोजन कर सो जाने से तुम फ्री कैस होगी?"


"मेरे मरने के बाद मेरी चिता को मुखाग्नि देने से।"


"इज इट पॉसिबल! मुझसे तुम क्यों ये सब कराओगी?"


"हमारे देश में पुंजी से ब्याज को ज्यादा प्राथिमकता देने के संस्कार हैं न, इसलिए।"


"अर्णव भोजन समाप्त कर बेसिन में हाथ-मुख धोता है और फिर मोबाइल हाथ में लेकर बेड पर। उसकी अम्मा जूठे बर्तनों को समेट कर टेबुल पोछती है तथा अन्य जूठे बर्तनों के पास रखने चली जाती है उन्हें जाते मिसेज बसु देखती है और "गुड नाइट माँ" कहती है एवं पति से कहती है"अर्णव को समझाते क्यों नहीं हो.... आखीर अपने ग्रांड मा को कब तक परेशान करेगा?"


"यह दादी-पोते का चैप्टर है, वैसे यू आर अर्णव्स मदर एण्ड यू शुड डू इट।"


पति की इस बेरूखी रीप्लाय से मिसेज बसु थोड़ा नाराज होती है।


अगली प्रातः मिसेस एण्ड मिस्टर बसु मार्निंग वाक से अपनी-अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गए। कणाद की माँ किचेन रुम में अपना कार्य पूर्ण तन्मयता के साथ कर रही है नाश्ता तैयार एवं मिस्टर एण्ड मिसेज का दोपहर का लंच पैक करेगी और घर वापस जायेगी। अपने बेटे कणाद को स्कूल जाने के पहले भोजन कराने के लिए एक घंटे घर पर रहती है। आज उसका कणाद पढ़ रहा है तो श्रेय मिसेज बसु को जाता है। तभी तो वह मिसेज बसु का काफी सम्मान करती है नहीं तो कणाद आज किसी होटल में जूठे बर्तन धो रहा होता। सारा खर्च मिसेज बसु उठाई है।


नाश्ते के टेबुल पर पति-पत्नी बैठे अर्णव का इन्तजार कर रहे हैं। अर्णव पहुँचता है ।


"गुड मार्निंग ममा, डैड।" पैरेंट्स के बगल वाले चेयर पर बैठ जाता है। अंगुलियाँ और आँखें मोबाइल के स्क्रीन पर। सैंडविच का टुकड़ा मुख में डाला। बिना चबाये ही जीभ से दबा मुख गह्वर की ओर धकेलने का प्रयास कर रहा था।


"अर्णव बेटे, भोजन को चबा कर निगलो|" कणाद की माँ टोकती है जो इनके लिए परीवेशन कर रही थी।


"ओ सॉरी आंटी।" आंटी-आंटी इधर देखो, मोबाइल पर बनी छवि को देख लेने का आग्रह करता है। उस छवि को देख कर कणाद की माँ हँस पड़ती है। उसे हँसते देख मिस्टर एवं मिसेस बसु भी बेटे से आग्रह करते हैं- "बेटे, हमें भी तो दिखाओ।" छवि देख कर माता-पिता भी खुश।" वाह! एक्सीलेंट माइ सन। पर इसमें है कौन?“ कोई रीप्लाय नहीं। अर्णव अपनी प्लेट से बाइ-बाइ करता है। अपनी माँ की ओर देखते रहता है।


"दीदी, इसमें आप हैं और हमारा सोना बाबा है।" कणाद की माँ मिसेस बसु का होकर उत्तर देती है।


"नहीं। यह कणाद और उसकी माँ का है जो रात मे इसने बनाई थी।" कहते हुये अम्मा का प्रवेश। हाथ में कन्हाई का भोग चढ़ा हुआ प्रसाद के रूप में सन्देश है जिसका एक टुकड़ा अर्णव के मुख में डाली और कही--"सत्य कोई कल्पना की वस्तु नहीं है, यदि उस पर आवरण चढ़ा दी गई तो वह दूसरे रूप में हमारे सामने आ जाता है।" अम्मा का ऐसा कहना बड़ा अटपटा लगा मिस्टर बसु को पर नारियो की छठी ईन्द्री सदैव सजग रहती है, मिसेस बसु समझ गई सास का प्रहार किस ओर हुआ है। फौरन ही उठ जाती है। मिस्टर बसु भी सब कुछ समझ गया, आखीर शिक्षित परिवार के शीत-युद्ध को अट्ठारह वर्षों से देख रहा है। वह भी पत्नी का पश्चात्-नुसरण करता है। इन सब बातों से दूर अर्णव अम्मा का हाथ पकड़ कर कहता है--" बट अम्मा, यू आर टूडे लेट एगेन। 


"अच्छा भाई, अगले दिन ऐसा नहीं होगा।"


मिस्टर एवं मिसेस बसु अपने-अपने कार्य स्थल पर चले गए। मिसेस बसु का मन सास की बातों से प्राय: घायल होता रहता है। उसे लगता है नारी ही नारी की दुश्मन है। हृदय में उथल-पुथल मची है। अपने को सहज रखने का प्रयास कर रही है। क्लास में जाने के लिए सिढ़ियाँ चढ़ रही थी और विपरीत दिशा से मिसेस तिवारी उतर रही थी। मिसेस बसु को टोकती है--"हलो मिसेस बसु।" पर उत्तर नहीं मिलने पर एकदम सामने खड़ी हो जाती है। मिसेस बसु झेप जाती है, "अरे! तिवारी दीदी। डोन्ट माइन्ड। मैंने ख्याल नहीं किया। थोड़ा जल्दी है, क्लास तो अटैंड कर लूं।"


"ओ यस।" मिसेस तिवारी उसे जाते हुये देखती है और वहाँ से आगे बढ़ जाती है। टीफिन आवर्स में पुनः दोनों इकट्ठे होते हैं। अन्य शिक्षिकायें भी हैं। सभी अपनी-अपनी टीफिन के डिशों का एक-दूसरे के साथ आदान-प्रदान कर उदरस्थ कर रही थी। तत्पश्चात अन्य दिनों की भाँति विभिन्न विषयों पर चर्चा कर हँसना-हँसाना, चिढ़ाना, झेप जाना या क्रोधित हो जाना आदि चलतीं है। ऐसे में मिसेस बसु को तिवारी टोकती है--"आज क्या घर पर श्रीमान जी से नोक-झोंक हो गई है क्या जो इतना उखड़ गई हो?"


"नहीं। ऐसा कुछ नहीं है।"


"तो क्या शरीर ठीक नहीं है। तो क्या बात है? नारी अग्रगति के नेतृत्व को धैर्य की आवश्यकता पड़ती है।"


मिसेस बसु कोई जवाब नहीं देती है। एक टक मिसेस तिवारी के चेहरे को देखती है। गोरे ललाट पर सिन्दूर की एक बिन्दी जैसे सबको अपने आकर्षण में समेट लेना चाहती है। वामपंथी विचारों से प्रभावित नारी अधिकारों के लिये संघर्षरत, नारी-पुरुष के वैषम्य नीति का विरोध करने वाली सचेतन महिला के रूप में मधुर भाषिणी सुवक्ता हैं। अपनी बातों को युक्ति संगत तर्कों के साथ सामने रखती है। इनकी इस गुण की प्रशंसा विरोधी भी किया करते हैं। छात्र -छात्राओं के बीच काफी प्रिय हैं। हालांकि मिसेस बसु भी किसी भी दिशा से कम नहीं है। फिर भी पता नहीं किस बिन्दु पर जाकर दोनों ही भिन्न धारा के पोषक बन गई है, लाख कोशिश के बाद भी बसु समझ नहीं पाती है। नारी अधिकारों पर चर्चा हो रही थी। मिसेस तिवारी बोल रही थी--"क्या हम नारियाँ केवल पुरुषों को पशु साबित करना ही अपना ध्यान-ज्ञान बनायेंगे या इनके अन्दर के सच्चे पुरुष को जगा कर परिवार-समाज का, राष्ट्र को विकास की गति प्रदान कर नव निर्माण करायेंगे?, हर विषय में पुराने आदर्शो की निन्दा कब तक करेंगे? हमें पहले यह निश्चय करना होगा कि हम चाहती क्या हैं? हमारी लड़ाई मनचाही इच्छाओं की पुर्ति नहीं होनी चाहिए क्योंकि यह व्यक्तिगत सुख का रूप है। केवल पश्चिमी धाँच पर पोशाक-आभूषण तथा शरीर को बाजार में मात्र मॉडल नहीं उसे मंदिर बनाना होगा जिसमें उस देवी की प्रतिष्ठा हो जिससे सारा विश्व मातृ-स्वरूप वात्सल्य की अपेक्षा रखती है। पुरुष वर्ग का सृजन तो हम नारियाँ ही करती हैं और उसका अपने-अपने ढंग से व्यवहार भी करती हैं। यह यदि अत्याचारी पशु होता तो कभी भी सुर-असुर संग्राम के समय नारी शक्ति का आवाहन नहीं करता और न हीं स्तुति करता "या देवी सर्व भूतेषु शक्तिरुपेण संस्थिता, नम:तस्यय-नम:तस्यय-नम:तस्यय नमो नम: ।" क्या इस रुप में नारियों ने अपने को पहचाना? उत्तर होगा नहीं। अत: आधुनिक नारी को अपने अन्दर टटोलना होगा। जिस अत्याचार की बात कही जा रही है, इसका दोषी कौन है? इसका समाधान भी हमें ही करना होगा और पुरुषों को सहयोग करने के लिए प्रेरित करना होगा।"


उपरोक्त कथन का एक-एक शब्द याद है। जब मंच से उतर रही थी, दर्शकों में मौनता का आवरण दिखा। अचानक तालियो की गड़गड़ाहट से ऑडिटोरियम प्रतिध्वनित होने लगा था। आज भी रोमांचित हो उठती है।


"मिसेस बसु-यदि कोई बात मन को चंचल करने लगे तो फौरन उसे किसी के सामने धोबी की तरह पटकिनयाँ दे दो, देखोगी- छो-s-s की आवाज़ के साथ हृदय हल्का हो जायेगा।" मिसेस तिवारी बोली। कहने का ढंग ऐसा था कि मिसेस बसु बिना मुस्काये नहीं रह पाई। घन्टी भी टन्न-टन्न कर उठी|

      

घर वापस लौटने पर देखती है कि अर्णव अम्मा के कमरे में पता नहीं अम्मा से किसी विषय पर बहस कर रहा है। चौन्कती है अर्णव इतनी जल्दी घर तो आता नहीं है| चिंतित हो जाती है| जिज्ञासा को मिटाने के लिये दबे कदमों से दरवाजे से सटकर सुनने का प्रयास करती है- "तेरे पिता आज भी मुझे एक बार कह दे कि माँ आज तुम मुझे खिला दो, तो मैं रात जागकर भी उसके लिये पका कर खिलाउँगी, क्या पता मेरा बेटा अभी पेट भर भोजन करता भी है या नहीं?" कहते-कहते बुढ़िया का गला रूँध जाता है। अचानक बुढ़िया को अनुभव होता है शायद अर्णव की माँ आ गई है और बोली- "बहु आ गई हो, देखो मेरा भाई आज तुम्हारे हाथ से खाना खाने की जिद्द कर रहा है।" कमरे से किसी के बाहर निकलने के पहले ही मिसेस बसु अलग खड़ी हो चुकी थी। अर्णव बाहर नहीं निकला।


“अर्णव। आज इतनी जल्दी, ट्यूशन नहीं गये?"


“नहीं ममा। "धीरे से प्रत्युत्तर मिला।


"क्यों?"


"ममा। आज ईच्छा नहीं की।"


"क्या तुम्हारी इच्छा नहीं है कि तुम्हारा परसेंटेज अच्छा हो। यह अच्छी बात नहीं है। चलो मैं तुम्हारे इवनिंग ब्रेक लगा देती हूँ। तैयार हो जाओ ट्यूशन जाने के लिये।"


"ओ ममा। प्लीज।"


"नो प्लीज। गेट-अप माई सन।"


अर्णव सर झुकाये अपने कमरे की ओर।


“यह क्या बहु? तुम उसकी मा भी हो।"


मिसेस बसु कोई उत्तर नहीं देती है और अपने कमरे की ओर चली गई। बुढ़िया की आँखें भीग गई. मिसेस बसु फ्रेश होकर अर्णव-अर्णव पुकारती हुई बाहर आती है, देखती है अर्णव जा चूका है। वह सास के कमरे को देखती है। बुढ़िया की पीठ उसकी ओर है और चेहरा अर्णव के दादाजी के तस्वीर को निहार रही थी। वह समझती है सब कुछ शायद परन्तु एक बात पर उसे आश्चर्य होता है उसकी सास बिना देखे कैसे समझ जाती है कि वह घर आ चुकी है।


टन्न-टन्न-टन्न। प्रेयर की घंटी लगती है। छात्रों की लम्बी कतार क्षण भर में ही प्ले ग्राउण्ड में तैयार। सारे शिक्षक-शिक्षिका एवं नन-टीचिंग स्टाफ एक साथ नेशनल अन्थेम गाते हैं। प्रेयर समाप्त। छात्र -छात्र छात्राये एक दम अनुशासित, शान्त एवं सौम्य बने अपने-अपने रूम में। बस यहां छात्रों का अनुशासन भंग और चंचलता एवं नये कल्पना के पंख फैलाये आसमान को छूने को तैयार। क्लास टेन की क्लास टीचर मिसेज तिवारी का आगमन। उनके आसन ग्रहण के पश्चात स्नेह पूर्ण ध्वनि गुंजती है, "उपिवश:।“


“धन्यवाद महाशया।" एक साथ छात्रों का प्रत्युत्तर और सारे बैठ जाते हैं।


“हाँ तो बच्चों, आज जननी-जन्म भूमि कविता का अन्तिम दो स्तवक समाप्त करना है।" वह मैथिलीशरणगुप्त की काव्य रचना की व्याख्या करने लगी। पुरा रूम नि:शब्दता की चादर ओढ़े अपने शिक्षिका को सुन रहा था। व्याख्या समाप्त होने पर पृष्ठों को किताब के अन्दर कैद कर क्षणभर के लिए पुरे कमरे में मिसेस तिवारी क्षणभर के लिए सरसरी निगाहें दौड़ाई तथा छात्रों से पुछती है, "किसी को इस काव्यग्रंथ में कोई प्रश्न पुछना है?" एक साथ कई हाथ उठ जाते हैं।


"ठीक है, एक-एक करके पुछो।"


“मैडम, इसमें माँ को महान कहा गया है पर कैसे?" एक छात्र खड़ा हुआ।


"क्योंकि वह त्याग की मुर्ति है। अपने सन्तान के सुख के लिए वह अपने सारे सुख को बलि चढ़ा देती है। वही मानव सभ्यता की प्रथम शिक्षिका है, सामाजिक रिश्ते जैसे पिता-माता, चाचा-चाची, भाई-बहन का परिचय कराती है। हमारे संस्कारों की वाहक बनकर वर्तमान को संस्कार का मार्ग प्रदान कर हमें भविष्य में देश का आदर्श नागिरक बनाती है। तभी तो राम-कृष्ण जैसे अवतारी पुरूषों तथा महान विभूतियों ने भी माताओं के चरणों पर अपना शिश झुकाया।"


"अच्छा मैडम, जन्मभूमि हमारी माँ से महान है?" दूसरे छात्र का प्रश्न था।


"एकदम सत्य। जन्मभूमि तो माँ की भी माँ होती है। कल्पना करो आप की माँ ने आपको जन्म दिया और जैसे ही आप स्वयं निर्भरशील होने लगे तो क्या आपको अपने आँचल तले रख पाती हैं? कभी-कभी आप शैतानी करते हैं उस समय आपको डाँटती है, पिटती है परन्तु यह देश जिसकी गोद में आपने जन्म लिया वह क्या आपको अपने वक्ष से एक पल के लिये भी अलग करती है। आपको जन्म से मृत्यु पर्यन्त अपने आँचल तले रक्षाकवच प्रदान करती है। प्रकाश, जल, वायु, जल, मिट्टी, भोजन-वस्त्र सब कुछ तो उसी का दिया हुआ है न। तो फिर वह जननी से भी महान है या नहीं?"


"लेकिन मैम, हमें तो बताया जाता है कि हमारी अनगिनत माता हैं जैसे-भोजन पकाने वाली, हमारी कपड़ा साफ करने वाली और फिर आप शिक्षिकायें भी तो माँ समान है।" एक छात्रा बोली।


"तुम ठीक कह रही हो पर माँ के लिए ऐसी व्याख्या उचित नहीं है क्योंकि आपने जिनके बारे में कहा वे लोग अपनी सेवाओं के बदले में मजदूरी लेती हैं जबकि आपकी माँ क्या आपसे मेहताना माँगती है? नहीं न । माँ, माँ होती है-त्याग की मूर्ति हैं, कभी कुछ नहीं मांगती है।" मिसेस तिवारी...


"मैम आय हैव... ओ सॉरी।" अर्णव सकुचाता है क्योंकि वह जानता है कि माँ को तो पता चल हीं जायेगा और माँ का ज्ञान वाणी शुरू होकर हीं रहेगा। अर्णव बेटे, पुछो-पुछो। शर्माने की बात नहीं है।"


"मैम आप कहती हो हमारी मम्मी त्याग की मुर्ति है पर उनके पास तो हमारे लिए समय ही नहीं है।" अर्णव ने कहा. यह सुनकर मिसेज तिवारी गम्भीर हो कुछ सोचती है, तत्पश्चात बोली, "सुनो, हमारी जन्मभूमि एक जड़ पदार्थ अवश्य है पर उनके पास हमारी सारी प्रयोजन की वस्तुएं उपलब्ध हैं जिन्हें हमें अपने पुरूषार्थ के द्वारा प्राप्त करते हैं। उसी प्रकार आप अपनी मम्मी से कभी बोले हो, मुझे यह पकाकर खिलाओ, मेरा यह पाठ समझा दो।"


"नहीं मैम।"


"तो उनसे कहो। तुम्हें अवश्य मिलेगा। क्योंकि वह तुम्हारी माँ है। जानते हो गोर्की ने "मदर" उपन्यास में ऐसा हीं दिखाया है। मातृभूमि और माँ के समान कुछ भी नहीं होता है। अपने देश में तो संस्कार हीं है माता से हम सब कुछ प्राप्त करते हैं और वह सदैव त्याग को तैयार रहती है। तभी तो मनिषियों ने कहा है--माँ का सानिध्य पाने के लिये सारे कष्टों में भी सुख है।"


घंटी लगती है टन्न-टन्न। मिसेस तिवारी रूम से बाहर निकल गई। अन्दर रूम से आवाज आई, "धन्यवाद महाशया।"


टीफिन के समय स्टाफ रूम में मिसेस तिवारी और मिसेस बसु आमने-सामने बैठी थी। टीफिन को उदरस्थ कर लेने के पश्चात् मिसेस बसु को हाथ पोछने के लिये अपना रूमाल मिसेज तिवारी बढ़ाती है और बोली, "जानती हो मिसेस बसु, मेरी बड़ी पुत्री आज फिर खाना खिलाने के लिए बोली है।"


"अच्छा! और तुमने अवश्य डाँट लगाई होगी न दीदी।"


"ऐसा होता भी है क्या, मैं उसकी माँ हूँ। बिना खिलाये मुझे शांति कहां।" हँसती है मिसेस तिवारी। पर मिसेस बसु गम्भीर हो गई। कौंध जाता है अर्णव का सर झुका चेहरा तथा अभीमान से बिना ब्रेकफास्ट लिये ट्यूशन चले जाना। तिवारी की दोनो बेटियाँ यूलिवर्सिटी की छात्रा है और अर्णव तो अभी क्लास टेन।


स्कूल से वापस लौटकर अर्णव जल्द घर नहीं आता है। वैसे जिस दिन ड्राईंग और कम्प्यूटर का क्लास रहा तो फिर पुछना हीं नहीं है। मिसेस बसु आकर सोफे पर बैठ जाती है। सास अपने कमरे से देख लेती है। आकर पुछती है, "क्या बात है बहु? तुम्हारी तबियत तो ठीक है न? ला तुम्हारा सर सहला देती हूँ।" बहु के हैण्ड बैग उठा कर टेबुल पर रख देती है।


"नहीं माँ। मै ठीक हूं। बस थोड़ी थकावट महसुस हो रही है।" उठने का प्रयास करती है परन्तु सास उठने दे तब ना। बक-बक शुरू हो गया।


"कहती हुँ इतनी क्रांति ठीक नहीं है थोड़ा आराम भी किया करो। इसी बहाने अपने परीवार को भी--मेरी बात भला क्यों अच्छा लगे। बेटे को थोड़ा अपना स्पर्श दोगी तभी उसमें कर्तव्य के भाव जगेंगे। भला ऐसा बेटा किस काम का जो माँ के प्रति सम्वेदना हीन हो। ये लोग भला क्या देशभक्त कभी बन पायेगा।"


मिसेस बसु पर इन बातों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। यह तो सास का दैनिक अभ्यास है। पर इस समय पता नहीं क्यों सास का बक-बक करना उसे अच्छा लगता है। कपड़े बदलकर फ्रेश हो लेती है। कणाद की माँ कॉफ़ी बनाकर ले आती है। सास कप में कॉफी उड़ेलने को प्रस्तुत होती है परन्तु वह मना करती है तथा स्वयं ही तीन कप में ढाल कर एक कप सास को दूसरी कणाद की माँ को बढ़ाती है। कणाद की मा हिचिकचाती है पर दीदीमनी के आग्रह के सामने झुक जाती है। सास की आँखें जौहरी बनकर दर्शक बन गई। मिसेज बसु कॉफी को अधर से स्पर्श करते-करते हीं सास से पुछती है-"ओ मा, कल आपका पौत्र क्या खाने की बात कर रहा था।"


"कुछ नहीं बहु। बस थोड़ी सी खिचड़ी। टीफिन में उसके किसी दोस्त ने दो चम्मच दिया था।" सास की गहरी भेदी दृष्टि पुत्र वधु के उपर।


"ठीक है आज मैं।"


"एक काम करना खिचड़ी के साथ ऑमलेट भी तैयार करा दो। एक दम मेरे अभीक की तरह ही तेरा अर्णव भी बहुत पसन्द करता है। अपने बाप की तरह।" मिसेस बसु अपनी बात पुरी भी नहीं कर पाई थी बिच में हीं सास बोलने लगी। तभी मोबाइल की घन्टी बज उठी। मिसेस बसु फौरन बैग से मोबाइल निकाल कान से लगाती है, "हाँ-हाँ। ठीक है। रुपये की व्यवस्था मैं करा दुँगी। ना-ना। आज मैं नहीं जाउंगी। घर पर कुछ काम है। हाँ-हाँ, अगले दिन सही कर दूँगी।"


मोबाइल का सम्पर्क टूट जाता है।


अर्णव अन्य दिनों की भाँती ही ग्यारह बजे की रात घर में कदम रखता है। एक पल के लिये चौँकता है। सामने ही माँ बैठी है। डायनींग टेबुल पर भोजन ढँका हुआ है। पर बड़े-बड़े कदमों से अपने कमरे की ओर। परन्तु माँ की आवाज़ कानों में आती है--"बेटे, जल्दी से कपड़े बदल फ्रेश होकर यही आ-जा।"


स्नेहिल शब्द पता नहीं कब सुना था। अत: थोड़ी सी हिचिकचाहट आई। वह स्तब्ध हो वहीं खड़ा रहा, जहाँ तक पहुंच पाया था।


"ओ ममा। मै भोजन कर लूंगा। आप अपने कमरे में चली जाओ।"


"बेटे तुम्हारे डैड भी बैठे हैं। जल्दी से आ जा मेरा सोना बाबा।"


"अच्छा ममा।" रूआँसा होकर कहता है। अपने डैड के सामने वह भींगी बिल्ली बन जाता है। आत्म-समर्पण करना ही पड़ा। जब वह फ्रेश होकर सुबोध बालक की भाँती अपनी कुर्सी पर बैठा। डैड भी आ जाते हैं और कहते हैं- "माई सन, आपका यह देर से घर आना मुझे अच्छा नहीं लग रहा है।" अर्णव कनखियो से बाप के चेहरे को पढ़ने का प्रयास करता है। सबके सामने मिसेस बसु प्लेट सजाई । पहले अपने पति के प्लेट में खिचड़ी सर्व करती है। मिस्टर बसु आनंदित हो जाता है, कहता है-- "जरुर आज माँ भोजन पकाई होगी। वाह! क्या स्वाद है। सचमुच मेरी माँ... मेरी माँ है। "अर्णव के प्लेट में खिचड़ी सर्व की गई पर चम्मच उसके माँ के हाथ में। "ममा मेरा चम्मच?"


"मेरे पास।" इतना कहकर खिचड़ी से भरा चम्मच अर्णव की ओर बढ़ा दिया गया। अर्णव पहले तो हक्का-बक्का, फिर कठपुतली की भाँती माँ के हाथों खाना प्रारम्भ कर दिया| मिस्टर बसु पत्नी और पुत्र के इस रूप का पर्यवेक्षण करता है। आखिर राज्य -सरकार का उँचे पद का अधिकारी जो ठहरा। धिरे-धिरे अर्णव सहज हो गया। भोजन कराने के पश्चात तौलिया से मुँह पोँछ दिया गया। माँ के इस स्नेह को पाकर अर्णव गदगद हो गया। कुर्सी से उठ खड़ा हुआ और दोनो हाथों की अंगुलियों को विक्ट्री की भँगीमा ऐसा करता है मानो कोई मैच जीत लिया हो। "ई-या, ओ ममा-अब मैं भी कहूंगा मेरी भी माँ भी मेरी माँ है।" झट से अपने कमरे की ओर फौरन एबाउट टर्न। एक पल के लिए रुका तथा पाकेट से मोबाइल निकाल माँ की ओर - "ममा, स्माइल वन्स।" क्रीक की आवाज़। भागता है अपने कमरे की ओर। उसकी इस हरकत को देखकर मिस्टर बसु के ऐसे गम्भीर व्यक्ति भी हँसे बिना नहीं रह सका। अन्दर कमरे में एक और सदस्य भगवान के सिंहासन के पास बैठी थी जिसके नयनों से बहनेवाले निर गालों को भींगा रहा है। ओष्ठों के द्वार से बुदबुदाहट निकल रही थी- "हे कन्हाई, ऐसी स्वाधिनता मत दो कि माताएँ अपने वात्सल्य रस का दान करना हीं छोड़ दे।


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