वात्सल्य की गोधूलि बेला
वात्सल्य की गोधूलि बेला
बेला अपने गाँव से पढ़ लिख कर मुंबई जैसी स्वप्न नगरी मे अपने सपने पूरे करने आई थी। उसे बड़ी कंपनी मे अच्छी नौकरी भी मिल गई। वो बहुत खुश थी। थोड़े दिनों मे उसे अपने सपनों का राजकुमार भी मिल गया। दोनों ने घरवालों की मर्ज़ी के खिलाफ जाकर प्रेमविवाह कर लिया। अब तो बेला और भी खुश थी क्योंकि वो माँ बनने वाली थी।
पर नियति को कुछ और ही मंजूर था। बेला का जब सातवाँ महिना चल रहा था तभी अचानक उसके पति की दुर्घटना मे मृत्यु हो गई। घरवालों ने अपनी पूरी नाराज़गी दिखाई। उसको सहानुभूति, सात्वना या मदद के लिए कोई नही आया। बेला अकेली ही परिस्थिति से लड़ रही थी। आखिर बेला कब तक झेलती?
इसी वजह से उसे समय से पहले ही प्रसव वेदना होने लगी। बेला ने तन और मन के कष्टों को सहते हुए समय से पहले ही बच्ची को जन्म दिया। डॉक्टर के अनुसार बच्ची बहुत ही कमजोर थी, बचना भी मुश्किल था। पर बेला ने भी जिद बांध ली। अपने जीवन के एकमात्र सहारे को वो जाने नही देगी। उसे वो एक शानदार जिंदगी देगी।
अब बेला जी जान से अपनी बेटी सर्वरी का जीवन सवारने मे लग गई। वो माँ बाप दोनों की भूमिका निभा रही थी। दुबली पतली सर्वरी अब डॉक्टर सर्वरी शर्मा बन गई। धीरे धीरे समय बीतता गया। अब बेला की उमर भी होती जा रही थी।
एक दिन सर्वरी अपने साथ काम करने वाले डॉक्टर सूचित वर्मा को अपने माँ से मिलवाने ले कर आती है। बेला को भी सूचित सही लगा। अब दोनों विवाह करके विदेश जाने की तैयारी कर रहे थे। सर्वरी अपने माँ का भी सामान चुपके से समेट रही थी। अंत मे विदेश जाने की टिकट आ गई। तीन टिकट देखकर बेला ने हैरानी से पूछा " तीसरी टिकट किसकी है? ' सूचित ने मुस्कुराते हुए कहा " मम्मी, आप हमारे साथ विदेश चल रही है। इस गोधूलि बेला मे अकेला नही छोड़ेंगे। जब बहू बेटी हो सकती है तो दामाद भी तो बेटा बन सकता है। "
बेला की आँखों मे खुशी के आँसु थे......