उम्मीदों का कैनवास
उम्मीदों का कैनवास
मृत्युशैया पर पड़ी हुई रमा जी के प्राण उनके छोटे बेटे अनुप की फिक्र में ही अटके हुए थे। अपने स्वर्गवासी पति 'अनिल जी' की तस्वीर की तरफ देखते हुए उनका मन अतीत की यादों में गोते लगा रहा था।
पैंतीस साल पहले घटी सारी घटनाएँ उनकी नज़रों के सामने चलचित्र की तरह घूमने लगी।
रामनवमी का शुभ दिन था वो जब प्रसव पीड़ा से क्लांत रमा जी को अनिल जी अस्पताल लेकर पहुँचे।
रमा जी ने जुड़वा पुत्रों को जन्म दिया था। दोनों पति-पत्नी की खुशी का कोई ठिकाना नहीं था।
सब लोग उन्हें बधाई देते हुए कह रहे थे कि आपके घर तो आज राम-लक्ष्मण ही पधारे हैं।
लेकिन रमा और अनिल जी के जीवन में ये खुशियाँ चंद दिनों की ही मेहमान थी।
कुछ ही दिनों में ये स्पष्ट हो गया कि उनका छोटा बेटा अनुप अपने बड़े भाई वेद की तरह सामान्य नहीं है।
जहाँ वेद हर चीज में होशियार था, वहीं अनुप मंदबुद्धि था। उसका शरीर तो बढ़ रहा था लेकिन दिमागी तौर पर वो विकसित नहीं हो रहा था।
जब रिश्तेदारों को ये बात पता चली तो सब सहानुभूति जताने के बहाने उन्हें अलग-अलग सलाह देने लगे।
कोई कहता "कैसे पालोगे इस मंदबुद्धि बच्चे को, किसी अनाथालय में छोड़ आओ इसे।"
तो कोई सलाह देता, "किसी गरीब को कुछ पैसे देकर इसे उन्हें सौंप दो।"
रमा और अनिल जी ने अपनी तरफ से अनुप की चिकित्सा में कोई कमी नहीं छोड़ी। लेकिन उसका कोई खास असर अनुप पर नहीं हो सका।
धीरे-धीरे अनुप को भी ये अहसास होने लगा था कि वो अलग है। इसलिए उसे वेद भैया की तरह ना तो रोज़ सुबह-शाम बाहर भेजा जाता है, ना माँ-पापा ही उसे कभी कहीं लेकर जाते है।
इसका बुरा असर उसके बालमन में और भी गहरा होता जा रहा था।
देखते ही देखते छ: बरस बीत चुके थे।
एक दिन रमा और अनिल जी रिश्तेदारों से मिली हुई सलाह पर विचार-विमर्श कर रहे थे कि तभी वेद के कानों में उनकी बात पड़ी।
उसने रोते हुए कहा "माँ, पापा आप भाई को मुझसे दूर मत कीजिये। मैं उसका धयान रखूँगा।"
अपने भाई के लिए वेद का ये प्यार देखकर रमा और अनिल जी और भी भावुक हो गये।
उन्हें बस एक ही चिंता थी कि उनके इस दुनिया से जाने के बाद अनुप का क्या होगा?
लेकिन आज वेद की बात सुनकर उनके मन में उम्मीद की एक किरण जगी थी।
अनिल जी ने रमा से कहा, "अगर ईश्वर ने हमारे बेटे को ज़िन्दगी दी है, तो जीने का रास्ता भी दिखाएँगे।"
"हाँ, आप सही कह रहे हैं। हमें इस तरह निराश नहीं होना चाहिए।
कोई जरूरी नहीं कि वेद के हृदय में अभी अपने भाई के लिए जो प्यार है वो बड़े होने पर खत्म ही हो जाये। हो सकता है ये स्नेह और बढ़ जाये।" रमा जी जैसे स्वयं को दिलासा देती हुई बोली।
इसी तरह दिन गुजर रहे थे।
एक दिन जब अनिल जी दफ़्तर से घर लौटे तब उनके हाथों में मिठाई का डिब्बा देखकर रमा जी ने हैरत से पूछा, "आज तो कोई खास दिन नहीं है। फिर ये मिठाई क्यों?"
अनिल जी ने वेद और अनुप को आवाज़ लगाते हुए कहा, "पहले सब लोग मिठाई खाओ, फिर बताता हूँ।"
"अब बताइए भी पापा। अब इंतज़ार नहीं हो रहा है।" अपने साथ-साथ अनुप को भी मिठाई खिलाता हुआ वेद बोला।
एक इश्तिहार का कागज़ निकालकर सबको दिखाते हुए अनिल जी बोले, "ये देखो, हमारे शहर में अपने अनुप जैसे बच्चों के लिए खास विद्यालय खुला है जहाँ उन्हें सामान्य दिनचर्या के साथ-साथ खास विधि से पढ़ना-लिखना, चित्रकारी, संगीत सब कुछ सिखाने की कोशिश की जाएगी। ताकि वो भी सामान्य जीवन जी सकें।"
"अरे वाह, ये तो वाकई बहुत खुशी की बात है। हम कल ही अपने बेटे के दाखिले की बात करने चलेंगे।" रमा जी उत्साहित स्वर में बोली।
वेद भी अनुप के लिए बहुत खुश था। उसने कहा, "पापा, ये विद्यालय तो मेरे विद्यालय के पास ही है। मैं भाई को साथ लेकर जाऊँगा और साथ लेकर आऊँगा।"
सबको इस तरह खुश देखकर अनुप भी ताली बजा-बजाकर अपनी खुशी का इज़हार कर रहा था।
अगली सुबह वेद को उसके विद्यालय छोड़ते हुए रमा और अनिल जी अनुप को साथ लेकर उसके दाखिले की बात करने पहुँचे।
वहाँ अनुप जैसे बच्चों को देखकर, और उनके साथ वहाँ के शिक्षकों का व्यवहार देखकर दोनों थोड़ा आश्वस्त हुए।
दाखिले के पश्चात अगले दिन से अनुप को विद्यालय जाना शुरू करना था।
अनुप बहुत ही खुश था कि अब उसे भी वेद भैया की तरह घर से बाहर जाने का अवसर मिलेगा।
अगले दिन जब विद्यालय जाने के लिए वेद ने अनुप को अपनी साईकिल पर बैठाया तो दोनों भाईयों की खुशी का कोई ठिकाना नहीं था।
रास्ते में कहीं अनुप की वजह से कोई दिक्कत ना हो इसलिए अनिल जी भी उनकी साईकिल के पीछे-पीछे ही थे।
अनुप जब विद्यालय पहुँचा तब पहली बार उसका सामना अपने जैसे बच्चों के साथ-साथ शिक्षकों से हुआ। अपने अब तक के जीवन में उसकी मुलाकात कभी अपने परिवार के अलावा किसी अन्य व्यक्ति से नहीं हुई थी।
जल्दी ही अनुप सब बच्चों के साथ घुल-मिल गया।
विद्यालय के सकारात्मक वातावरण के साथ-साथ वेद के प्यार का भी असर अनुप के व्यक्तित्व में नज़र आने लगा था।
प्रारंभिक अक्षर ज्ञान सीखने के साथ-साथ अब वो अपने सारे काम भी स्वयं कर लेता था। धीरे-धीरे वो चित्रकारी भी सीख रहा था।
रमा और अनिल जी अनुप को देखकर अब बहुत प्रसन्न होते थे।
विद्यालय आते-जाते जो वक्त अनुप वेद के साथ साईकल की सवारी में बिताया करता था, वो उसकी दिनचर्या का सबसे प्रिय हिस्सा था।
वक्त ऐसे ही बीतता गया। वेद अपने शहर का नामी वकील बन चुका था।
विद्यालय से मिले हुए प्रशिक्षण के कारण अनुप के जीवन में बदलाव जरूर आया था, लेकिन वो अब भी पूरी तरह सामान्य नहीं था।
एक दिन घर में वेद की शादी की बात करने लड़की वाले आये हुए थे।
जब अनुप ने ये सुना तो वो वहीं "भाभी आयेगी, भाभी आयेगी" कहकर नाचने लगा।
उसका ये व्यवहार देखकर लड़की वाले चुपचाप चले गए।
रमा और अनिल जी इस बात से बहुत व्यथित थे। उन्होंने अनुप को कड़े शब्दों में कहा कि आगे से घर में किसी के भी आने पर उसे उनके सामने आने की जरूरत नहीं है।
अनुप रोता हुआ अपने कमरे में चला गया और हमेशा की तरह स्वयं को चित्रकारी में व्यस्त कर लिया।
जब वेद को इस वाकये की जानकारी हुई तब उसने नाराज़ होते हुए अपने माँ-पापा से कहा "आपने मेरे भाई पर क्यों गुस्सा किया? मैं ऐसे किसी भी परिवार में रिश्ता नहीं जोड़ूँगा जो मेरे अनुप का मज़ाक बनाये।"
आखिरकार कुछ दिनों के बाद वेद की शादी 'शुभिता' के साथ तय हो गयी, जो बहुत ही सुलझे विचारों वाली लड़की थी।
अनुप के बारे में सब कुछ जानकर भी उसे ना शादी से इंकार था, ना भविष्य में उसकी जिम्मेदारी लेने से।
रमा और अनिल जी शुभिता जैसी बहू पाकर बहुत प्रसन्न थे।
वेद भी शुभिता के साथ बहुत खुश था।
अनुप की तो वो प्यारी 'भाभी माँ' ही बन चुकी थी।
ऐसा लग रहा था मानों अब जीवन पटरी पर आ गया है। लेकिन तभी एक दुर्घटना में अनिल जी की मृत्यु ने पूरे परिवार को तोड़ दिया।
रमा जी को ऐसा सदमा लगा कि उन्होंने उसी दिन से बिस्तर पकड़ लिया।
और अब बस अनुप के बारे में सोच-सोचकर ही किसी तरह उनके प्राण अटके हुए थे।
वेद और शुभिता उनकी चिंता भलीभांति समझ रहे थे। उन दोनों ने रमा जी को आश्वस्त किया कि उसके भैया-भाभी के होते हुए वो अनुप की बिल्कुल फिकके दिलासे ने रमा जी के मन का बोझ कम कर दिया।
आख़िरकार ईश्वर से अपने बच्चों के लिए प्रार्थना करते-करते उन्होंने भी इस संसार से विदा ले ही ली।
कुछ दिनों तक घर में दुःख का वातावरण छाया रहा। लेकिन जैसी दुनिया की रीत है धीरे-धीरे फिर सब लोग सामान्य होने लगें सिवाय अनुप के।
माँ की तेरहवीं में आये हुए कुछ रिश्तेदारों की बातों ने उसे अंदर तक डरा दिया था।
वो लोग आपस में अनुप के बारे में बात करते हुए कह रहे थे, "बेचारा, कितना बदनसीब है। एक तो मंदबुद्धि ऊपर से अब ना माँ ज़िंदा है, ना बाप। भाई-भाभी भला कब तक इसको झेलेंगे। जल्दी ही घर से निकाल दिया जाएगा।"
अनुप को हर वक्त परेशान देखकर वेद और शुभिता यही सोच रहे थे की शायद माँ और पापा की अचानक मृत्यु के कारण वो सदमे में है।
अपने-अपने काम से वक्त निकालकर दोनों अनुप के दुख को कम करने का हरसंभव प्रयास कर रहे थे।
उन्हीं दिनों वेद के हाथ में एक हाई-प्रोफाइल केस आया। जिसे बड़े-बड़े वकीलों ने भी लड़ने से मना कर दिया था।
लेकिन दिन-रात मेहनत करके वेद ने वो केस जीत लिया।
इसी जीत की खुशी में आज उसने सभी दोस्तों और कलीग्स के कहने पर अपने घर में एक पार्टी रखी थी।
अनुप को अब लोगों की भीड़ से घबराहट होती थी, इसलिए वो अपने कमरे में ही था।
नीचे हॉल में पार्टी अपने शबाब पर थी। सभी लोग बहुत एन्जॉय कर रहे थे।
तभी अचानक अनुप दौड़ता हुआ आया और इस दौरान पार्टी में कई लोगों से उसकी टक्कर हो गयी जिसकी वजह से उन लोगों के हाथ की खाने की प्लेट उनके कपड़ों पर गिर गयी।
इस सबसे बेख़बर अनुप वेद से जाकर लिपट गया और बोला "भैया जल्दी ऊपर चलो। कमरे में कोई है।"
अनुप को इस तरह डरा हुआ देखकर वेद उसके साथ चला गया। कमरे में एक कॉकरोच था जिसके ईधर-उधर उड़ने से अनुप डर गया था। उसे भगाकर और अनुप को शांत करके जब वेद नीचे आया तब सभी मेहमान काफी गुस्से में थे।
उन्होंने कहा "मिस्टर वेद, अगर हमें पता होता कि आपके घर में कोई पागल भी रहता है तो हम यहाँ कभी नहीं आते।"
एक-एक करके सभी लोग बिना ठीक से खाना खाये पार्टी से चले गए।
पहली बार वेद को अनुप पर गुस्सा आ रहा था और उसकी वजह से वो शर्मिंदगी महसूस कर रहा था।
आज पहली बार वो अपने भाई का उपहास उड़ाने वाले लोगों को जवाब नहीं दे पाया।
अब धीरे-धीरे वेद को अनुप बोझ लगने लगा था।
एक दिन उसने तय किया कि वो चुपचाप अनुप को दूसरे शहर में छोड़ आएगा। कहीं ना कहीं उसकी हालत देखकर उसे आसरा मिल ही जायेगा।
रात के वक्त अनुप को बहला-फुसलाकर वेद उसे शहर से दूर बने बस अड्डे ले गया और थोड़ी देर बाद आने की बात कहकर उसे वहीं पर छोड़ आया।
वेद के घर आने पर शुभिता ने देखा वो नशे में धुत्त था। शुभिता ने आज से पहले उसे कभी इस हालत में नहीं देखा था।
इससे पहले की वो इसकी वजह पूछती उसे ख्याल आया कि अनुप भी वेद के साथ गया था।
किसी अनहोनी की आशंका से घबराकर शुभिता ने जब वेद से अनुप के बारे में पूछा तो वेद ने भावहीन स्वर में सारी बात बताते हुए कहा, "उससे मुक्त कर दिया है मैंने खुद को भी और तुम्हें भी। बहुत परेशान हो लिए हम उसके पीछे बस और नहीं।"
अपने कमरे की तरफ बढ़ते हुए वेद को रोककर शुभिता ने कहा, "मेरे एक सवाल का जवाब देते जाओ।
अगर अनुप तुम्हारा भाई ना होकर बेटा होता, तब भी तुम ऐसा ही करते? अगर वो हमारे जैसा नहीं है तो क्या ये उसकी गलती है?"
"मुझे फालतू में भावुक करने की कोशिश मत करो। बहुत जी चुका मैं इस भावुकता में।" कहता हुआ वेद कमरे में चला गया और नशे के असर में जल्दी ही नींद की आगोश में चला गया।
शुभिता ने वेद के जागने के इंतज़ार में वक्त बर्बाद करना जरूरी नहीं समझा। वो अकेली ही गाड़ी लेकर निकली और बस अड्डे पर अकेले रोते हुए अनुप को अपने साथ लेकर मायके चली गयी।
अनुप ने रोते हुए शुभिता से पूछा "भाभी माँ, भैया ने मुझे घर से निकाल दिया है क्या?"
उसके आँसू पोंछते हुए शुभिता बोली, "नहीं-नहीं भैया, वो घर तो आपका भी है। फिर कोई आपको कैसे निकाल सकता है।
दरअसल आपके भैया जब आपको यहाँ छोड़कर गए कुछ सामान लेने गए तो उन्हें चोट लग गयी इसलिए उन्होंने मुझे आपके पास भेज दिया। औऱ कल उनको काम से कुछ दिनों के लिए दूसरे शहर जाना था तो मैंने सोचा उनके वापस आने तक मैं औऱ आप मेरे माँ-पापा से मिलकर आ जाएँ। मुझे भी तो उनकी याद आती है ना।"
शुभिता की बात सुनकर अनुप बोला "हाँ-हाँ ठीक किया भाभी माँ।"
जब अनुप शांत होकर सो गया तब शुभिता अपने कमरे में आयी। वेद के इस व्यवहार ने आज उसे बहुत दुखी कर दिया था।
अगली सुबह नशा उतरने पर जब वेद को शुभिता कहीं नज़र नहीं आयी तब उसने उसे फ़ोन लगाया।
शुभिता ने फ़ोन पर कहा "मैं उस बड़े इंसान के साथ छोटी ज़िन्दगी नहीं जी सकती, जिसे अपने माता-पिता को दिया हुआ वचन याद नहीं।
क्या पता वेद कल को अगर मेरे ही साथ कोई दुर्घटना हो जाये तो तुम मुझे भी इसी तरह कहीं छोड़ आओ। इससे अच्छा है हम अभी से अपने रास्ते अलग कर लें।"
वेद ने बिना कुछ कहे फ़ोन रख दिया। उसे अनुप का निश्चल स्नेह, खुद पर उसका भरोसा, माँ-पापा की चिंताएँ और उन्हें दिया हुआ आश्वासन सब याद आने लगा।
माँ-पापा की तस्वीर पर नज़र पड़ते ही वेद को लगा जैसे उनकी आँखों में आँसू हैं।
उसे अपनी गलती का अहसास हो चुका था। उसने तुरंत अपने सभी जरूरी काम रद्द किए और शुभिता के मायके चल दिया।
वेद को देखकर शुभिता आश्चर्यचकित थी।
जैसे ही अनुप के कानों में वेद की आवाज़ गयी वो भागकर बाहर आया और दौड़कर उसके गले लगकर बोला, "भैया आप वापस आ गये? भाभी माँ ने तो कहा था आप कुछ दिन बाद आएँगे। कल आप मुझे छोड़कर कहाँ चले गए थे? पता है मैं कितना रोया।"
वेद ने अनुप के सर पर स्नेह से हाथ फेरते हुए कहा, "हाँ भाई मैं वापस आ गया।
असल में मुझे ना एकदम नई साईकिल दिख गयी तो मैं सारे काम छोड़कर अपने अनुप के लिए उसे लेकर आ गया।
बचपन की तरह फिर से हम दोनों साईकिल पर घूमने चलेंगे।"
अपने सर पर हाथ मारते हुए सहसा अनुप बोला, "अरे भैया, मैं भूल ही गया आपको चोट लग गयी थी ना इसलिए आपने भाभी माँ को मेरे पास भेज दिया था। आप ठीक हैं ना? बताइए कहाँ चोट लगी? मैं अभी फूँक देता हूँ।"
अनुप का भोलापन देखकर वेद की आँखें छलक उठी।
स्वयं को संयत करके वो अब शुभिता से मुख़ातिब हुआ, "मैं तुम्हारा अहसानमंद हूँ कि मुझ गिरे हुए इंसान को तुमने और ज्यादा गिरने से पहले ही थाम लिया।
तुम सही मायनों में मेरी अर्धांगिनी हो।
मुझे माफ़ कर दो और अपने घर चलो।"
"तुमने जब अनुप को ग़ले लगाया मैंने उसी वक्त तुम्हें माफ कर दिया था।" शुभिता मुस्कुराते हुए बोली।
जिस बस अड्डे पर रात में वेद ने अनुप को छोड़ा था वहाँ पहुँचकर वेद ने गाड़ी रोकी और उतर गया।
कुछ देर में जब वेद वापस आया तब शुभिता और अनुप ने देखा उसके पास सचमुच नई साइकिल थी।
अब आगे-आगे शुभिता की गाड़ी चल रही थी और पीछे दोनों भाई नई साईकल पर सवार अपने बचपन को जी रहे थे।
घर पहुँचकर तीनों बहुत प्रसन्न थे।
रात में जब वेद कमरे में आया तब शुभिता ने उससे कहा "वेद, पता है माँ-पापा के साथ-साथ हम दोनों की सबसे बड़ी गलती क्या है?"
वेद ने हैरानी से शुभिता की तरफ देखते हुए ना में सर हिला दिया।
शुभिता ने आगे कहा, "हम सबकी सबसे बड़ी गलती यही है कि हमने मान लिया कि अनुप भैया हमारी तरह सामान्य नहीं है तो वो किसी लायक नहीं है। उनके जीवन में कुछ नहीं हो सकता। बस किसी तरह विद्यालय की सहायता से उन्हें थोड़ी-बहुत शिक्षा दे दी और सोच लिया बस इतना ही काफ़ी है। इससे ज्यादा ये बेचारा क्या कर सकता है?
लेकिन हम ये भूल गए कि ईश्वर ने हर इंसान को कुछ ना कुछ हुनर दिया है।
तुमने कभी अनुप भैया की बनाई हुई तस्वीरों को ध्यान से देखा है? कितना कुछ छुपा है उन तस्वीरों में। जीवन के अलग-अलग रंग, हृदय की भावनाएँ, उम्मीदें, उदासी, सब कुछ। मैंने तो ऐसी तस्वीरें कम ही देखीं हैं।
अगर हम उनका थोड़ा सा साथ दें तो वो भी अपने जीवन में कुछ हासिल कर सकते हैं जिस पर उनका पूरा हक है।
और भगवान ना करें कल को अगर माँ-पापा की तरह हम उनके साथ ना रहें तब उनका क्या होगा? इसलिए उनका आत्मनिर्भर होना बहुत जरूरी है।"
शुभिता की बात सुनकर वेद ने कहा, "तुम सही कह रही हो। हमने इस तरह से कभी सोचा ही नहीं। लेकिन अब सोचेंगे।"
वेद और शुभिता के प्रोत्साहन देने पर अनुप ने और भी सुंदर-सुंदर तस्वीरें बनानी शुरू कर दी।
कुछ दिनों के बाद अपने प्रयासों से वेद और शुभिता ने अनुप की तस्वीरों की प्रदर्शनी लगाई।
प्रदर्शनी में आये हुए सभी दर्शकों ने जब अनुप के बनाये हुए चित्रों की तारीफ़ की तो पहली बार अनुप को भी अहसास हुआ कि वो भी दूसरों की तरह कुछ कर सकता है, कुछ बन सकता है।
अगले दिन के अख़बार में अपने चित्रों और अपनी तस्वीर को देखकर वेद और शुभिता के साथ-साथ अनुप बहुत खुश था।
उसने वेद से कहा, "भैया, मुझे तो पता ही नहीं था तस्वीर बनाना भी बड़ा काम होता है। जिस तरह आप काले कोट वाला काम करते हैं, क्या मैं भी उस तरह ये काम करूँ?"
"अरे बिल्कुल मेरे भाई। कल की प्रदर्शनी की तुम्हारी सारी तस्वीरें बिक चुकीं हैं। तो अब तुम्हें नई तस्वीरें तो बनानी ही होंगी।
और इसके लिए हम घर में ही तुम्हारा स्टूडियो बनाएँगे।"
जल्दी ही शुभिता के साथ मिलकर वेद ने अनुप का पेंटिग स्टूडियो सेट कर दिया।
अब अनुप दिन भर वहाँ तस्वीरें बनाता। वेद ने उसके लिए एक सहायक का भी इंतज़ाम कर दिया था। साथ ही तस्वीरों से होने वाली आय को एक ट्रस्ट बनाकर अनुप के भविष्य के लिए भी सुरक्षित कर दिया था।
धीरे-धीरे अनुप एक विख्यात चित्रकार बन चुका था।
एक दिन एक पत्रकार महोदय उसका साक्षात्कार लेने आये।
पत्रकार महोदय ने जब अनुप से पूछा कि उसके लिए तो पेंटिंग स्टूडियो खोलना काफ़ी मुश्किल रहा होगा, तब अनुप ने सहजता से कहा, "नहीं, ये तो मेरे भैया और भाभी माँ ने कर दिया मेरे लिए।"
तब पत्रकार महोदय वेद और शुभिता कि तरफ मुख़ातिब होते हुए बोले, "आपके मन में ये विचार कैसे आया कि आपको अपने मंदबुद्धि भाई के लिए ये स्टूडियो खोलना चाहिए? आमतौर पर तो ऐसे लोग बस परिवार की मदद से ही किसी तरह अपनी ज़िन्दगी गुजार लेते हैं उन पर बोझ बनकर।"
इससे पहले की वेद कुछ कहता| शुभिता बोली, "पहली बात, अनुप भैया मंदबुद्धि नहीं है, बस हमसे थोड़े अलग हैं। और हमारे मन में उन्हें आत्मनिर्भर बनाने का विचार उनके ईश्वर प्रदत्त हुनर को देखकर आया ताकि आपके शब्दों के अनुसार वो किसी पर बोझ ना बनें, उनकी भी एक पहचान हो, साथ ही अपने जैसे लोगों के लिए वो प्रेरणा भी बन सकें।"
"हम जैसे सामान्य लोगों से तो मेरा भाई ही अच्छा है जो कभी किसी का उपहास नहीं उड़ाता।" पत्रकार महोदय की तरफ देखते हुए वेद ने कहा।
अपने असभ्य व्यवहार के लिए माफ़ी माँगकर पत्रकार महोदय चल दिये।
उनके जाने के बाद वेद ने शुभिता से कहा, "मैं जितना तुम्हें धन्यवाद कहूँ वो कम होगा। ये स्टूडियो महज एक स्टूडियो नहीं है, ये स्नेह और अपनेपन के रंगों से सजा हुआ उम्मीदों का वो कैनवस है जो तुम्हारी वजह से मेरे भाई को मिला है।
तुम सचमुच सिर्फ उसकी भाभी नहीं, भाभी माँ हो।"
शुभिता कुछ कहना चाह ही रही थी कि अनुप उसका हाथ पकड़कर खींचते हुए बोला, "जल्दी आइए भाभी माँ। देखिए मैंने क्या बनाया।"
अनुप का उत्साह देखकर वेद और शुभिता उसके पीछे चल दिये।
स्टूडियो में पहुँचकर जब अनुप ने कैनवस पर से पर्दा हटाया तो सामने शुभिता की तस्वीर थी। इतनी जीवंत जैसे अभी बोल उठेगी।
स्वयं को उस तस्वीर में देखकर शुभिता की खुशी छुपाये नहीं छुप रही थी।
उसे मुस्कुराते हुए देखकर वेद ने मज़ाकिया लहज़े में कहा, "हाँ भाई, सही है अब तो भाभी माँ की ही पूछ है। भाई के बारे में कौन सोचता है।"
"देखिये अनुप भैया, आपके भैया कैसे चिढ़ रहे हैं कि आपने मेरी तस्वीर बनाई उनकी नहीं।" शुभिता हँसती हुई बोली।
अनुप ने खुशी से ताली बजाते हुए कहा, "तो मैं ना भैया को और चिढ़ाऊँगा। आपकी और भी सुंदर-सुंदर तस्वीर बनाऊँगा भाभी माँ।"
उसकी बात पर वेद और शुभिता खिलखिलाकर हँस पड़े।
अनुप द्वारा रचित मुस्कुराती हुई शुभिता कि तस्वीर इस बात की गवाह थी कि जीवन अपने-आप में संभावनाओं का असीम भंडार है। जरूरत है तो बस उम्मीद और हौसले के साथ इन संभावनाओं को टटोलकर जीवन के कोरे कैनवस को अपने प्रिय रंगों से सजाने की।