उम्मीद

उम्मीद

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"कमाता तो कुछ नहीं ऊपर से रोज रोज मेरी मेहनत से बनाई रोटियाँ उस बुढ़िया को दे देता है, यहाँ क्या भंडारा खोल रहा है मैंने"?

बुदबुदाती हुई, रवि की माँ ,रसोई में चली गई।

रवि:-- कुछ नहीं होता माँ, उसे उम्मीद रहती है तभी तो आती है वो हमारे घर। 

कहकर रवि अगले साक्षात्कार की तैयारी में जुट गया।

माँ :--अरे ऊपर वाले से माँगें, अपने कर्मों का फल भुगत रही है तभी तो दर दर भटकती रहती है ।

जा देख दरवाजे पर कोई खटखटा रहा है।

कहकर माँ दीया जलाने चली गई।

हाथ में लैटर लिए बड़ी प्रसन्न मुद्रा में रवि पूजा कमरे में चल दिया।

रवि::-- देख माँ ! हमारे कर्मों का फल आया है। शहर के सबसे बड़े होटल में मुझे मैनेजमेंट की नौकरी मिली है।

सुनते ही माँ की आँखें डबडबा गईं ।

तभी दरवाजे पर से आवाज आई ---" बेटा रोटी दे दे"।

रवि और माँ ,एक दूसरे को देख कर मुस्कुरा उठे। माँ ने आज अपने हाथों से पूरी थाली सजा कर उस गरीब को दी। 

आज रवि बहुत खुश था, वह अपनी माँ को अच्छी तरह जानता था।


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