उलझन
उलझन
आज अचानक हमारे घर के नौकर शंकर की माँ की असमय मृत्यु हो गयी l ये सुनकर मुझे दुःख से ज़्यादा ये चिंता सताने लगी, कि वो बेचारा माँ के अंतिम संस्कार का इंतज़ाम आख़िर कैसे करेगा ..? क्योंकि अपने घर की सारी ज़िम्मेदारी सम्हालने वाला वो अकेला ही है l उसके पिताजी भी हैं, पर वो हमेशा बीमार होने के कारण कुछ काम नहीं करते दो छोटी बहनें हैं, जिनका घर में ध्यान माँ तो रखती ही थी बाहर की सारी ज़िम्मेदारी शंकर की है l
अचानक माँ की मृत्यु की घटना से तो उस पर जैसे पहाड़ टूट पड़ा .. "मैं तो बस इसी उधेड़ बुन में लगी रही कि किस तरह मैं उसकी मदद करूँ ..क्या करूँ !"
मेरी परेशानी को भांपते हुए मेरे पति मुझसे बोले - " शंकर के लिए तुम चिंता मत करो , मैंने पाँच हज़ार रुपये उसकी माँ के क्रिया-कर्म के लिए उसके घर भिजवा दिये हैं ..बेचारा बहुत सेवा करता है हमारी !"
ये सुनते ही... मेरी साँसों का व्यतिक्रम बदला.. अब लगा जैसे घंटों बाद मैंने चैन की साँस ली हो..!
धीरे - धीरे अब बारह दिन भी बीत गये, शंकर ने हमें भी तेरहवीं में बुलाया था, इसलिए हम लोग भी उसके घर गये पर वहाँ पहुँच कर जब मैंने उसके घर के सामने बड़ा भारी पंडाल और लोगों की भीड़ देखी तो चकित रह गई !अरे..इतना सब इंतज़ाम...! तभी हठात.. मेरी नज़र सामने भोजन कर रहे कुछ लोगों की पत्तलों पर अटक गई.. उसमें दाल चावल के साथ - साथ पूड़ी.. बूँदी... सेव.. और... खीर.. भी है !! "
मैंने तुरंत शंकर को बुलाकर हैरानी से पूछा- "कैसे किया तुमने ये सब .. .?" तो वो बड़ी मायूसी से कहने लगा - "क्या बताऊँ दीदी,मैं तो आपके दिये रुपयों से इलाहाबाद जाने की तैयारी कर रहा था, तभी पंडित जी आये और बोले - " माँ की आत्मा की शांति के लिए, तुम यहीं तेरह पंडितों को और समाज को, अपनी माँ की पसंद का.. भोजन करा दो, अस्थि विसर्जन के लिए तो तुम बाद में भी जा सकते हो !" तो फ़िर मैं क्या करता.. सरपंच के पास से ब्याज में दस हज़ार रुपये लाया और आपके दिये गये रुपयों को मिलाकर ये इंतज़ाम किया ..!" मैंने देखा ये कहते हुए उसकी आँखों की कोरों से आँसू लुढ़क रहे थे .!!
इस घटना को देख कर मुझे उलझन सी होने लगी कि..ये आख़िर किसकी आत्मा को शान्ति दिलाई जा रही है ..! क्योंकि आजकल जिनकी हैसियत अच्छी है, वो तो मृत्यु भोज को भी प्रतिष्ठा के रूप में बड़े ताम झाम के साथ कर ही रहे हैं, लेकिन.. किसी ग़रीब से आत्मा की शान्ति के नाम पर ऐसे क्रिया कर्म करवाया जाना.. कहाँ तक उचित है..? रीतिरिवाज़ों के नाम पर इन परंपराओं की आख़िर ये कैसी बाध्यता है..? ऐसे अनेक प्रश्न मुझे उलझाने लगे अंततः उनका जवाब लिये बिना ही मुझे घर वापस आना पड़ा ..!
