Sanjay Aswal

Drama

5.0  

Sanjay Aswal

Drama

उजड़ता शहर पौड़ी

उजड़ता शहर पौड़ी

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जब भी यादों के झरोखों में खो जाता हूं, तो मुझे अपने शहर पौड़ी की बहुत याद आती है, आज पौड़ी शहर को छोड़े पूरे २० साल हो गए है, और इतने ही साल हमारे नए राज्य उत्तराखंड को बने हुआ है।

क्या सोचा होगा तब के लोगों ने, जिन्होंने नए राज्य के लिए अपना सब कुछ लुटा दिया, महिलाएं, बच्चे, सरकारी कर्मचारियों, शिक्षकों सब ने मिल कर आंदोलन किया, कई युवक आंदोलन की भेट चढ़ गए, कई माताओं, बहनों की इज्जत इस राज्य आंदोलन में सरकारी तंत्र के नकारे पन के कारण शर्मशार हुई, पर उनका बलिदान व्यर्थ भी नहीं गया।

एक नया राज्य हमें मिला, पर हमारे शहर पौड़ी को क्या मिला, बेरुखी, पलायन, बरबादी एक भव्य शहर जो अपने प्राकृतिक सौंदर्य के लिए, अपने खिलते मौसम के लिए, अपने हंसते खेलते मिजाज के लिए जाना जाता था, आज उजाड़ शहर के रूप में अपनी दुर्दशा, बदहाली देख रहा है, कभी आबाद ये शहर आज चुप है गुम है, अपनी पुरानी यादों के साथ, मैं बचपन के उन यादों को अक्सर याद करता हूं, जब हम नए नए, अपने पापा के ट्रांसफर के कारण इस शहर में आए, और यही के होकर रह गए, मेरी और मेरी बहनों कि पूरी पढ़ाई लिखाई यही पर हुई, फिर हम पौड़ी के रंग ढंग में ढलते गए,दोस्त बने ,रिश्ते नाते जुड़े, स्कूल जाने लगे, दोस्तों के संग खेलना, मेलों में जम कर मजा करना, अपने मोहल्ले में सभी बच्चों संग गुल्ली डंडा, छुपन छुपाई, चिंडा फोढ़, पकड़म पकड़ाई खूब खेलना और त्योहारों में होली,दीवाली,मकर संक्रान्ति में पतंग उड़ाना सब साथ साथ होता था, हम सब ने मिल कर रोना, धोना, हंसी ठाटे, क्या कुछ नहीं किया।

हमने अपने प्यारे शहर पौड़ी में हर दम कुछ ना कुछ नया किया,रोज सबेरे उठ कर टेका तक दौड़ लगाना,काफल लेने जंगल जाना, सेब चुराने बगीचों में जाना, पिरुल पर फिसलना, रोज सबेरे मंदिरों की घंटियां बजाना सब याद आता है, क्या दिन थे, सचमुच जीवन के बेहतरीन पल थे, पौड़ी की राम लीला देखने हमेशा मां के साथ जाना, मुंगफली के साथ सिर्फ मटर गास्ती करना, पौड़ी की याद को अविस्मरणीय बना देता है, शरदोत्सव का हमेशा बेसब्री से इंतजार रहता था, हम मेलों में झूले, चरखे, चाट पकोडे छोले दो रुपए में सब आ जाता और उसमे भी कुछ पैसे खिलौने के लिए बच जाते, समय तेजी से भाग रहा था, हम कब स्कूल से कॉलेज पहुंच गए पता ही नहीं चला, हमारे साथ पौड़ी शहर भी पूरे शबाब में था, खुश था अपने लोगो की खुशियों के साथ, शाम को अजीज दोस्तों अजीत,राजा,राजीव के साथ धारा रोड घूमना फिर वहां से पैदल ही ईटीसी के गड़ेरे तक हम कब पहुंच जाते पता ही नहीं चलता, मौसम खुश गवार था, कोई थकान ही नहीं होती और पौड़ी की फिजा भी हमें थकने ही नहीं देती,और ज्यादा जोश जुनून पैदा करती,क्या नहीं था इस पौड़ी में,सभी तो था।

सारे दोस्त रोज शाम मिलते घूमते खाते गप्पे मारते,इधर से उधर मंडराते,और हमेशा कई चक्कर पूरे पौड़ी शहर के लगा देते, और पौड़ी खुशियों से हमें अपने दामन में छिपा लेता जैसे हम उसकी खुशियों में एक महत्वपूर्ण अंग थे।

राज्य आंदोलन जोर पकड़ रहा था, हर जगह आंदोलन, रैली और उसमे लोग, महिलायें, कर्मचारी, विद्यार्थियों द्वारा बढ़ चढ़ कर उन आंदोलन में भाग लिया जा रहा था, तब भी पौड़ी अपने लोगो को जोश और स्फूर्ति से भर देता इसी आस में कि उसके दिन भी बहुरेंगे, ये सब समय के चक्र में था कि पौड़ी के भाग्य में क्या लिखा है, आंदोलन की तीव्रता बढ़ रही थी, जगह जगह आगजनी पथराव और कर्फ्यू भी पौड़ी ने पहली बार अपने इतिहास में देखा, पुलिस के बर्बरता, शहर के सन्नाटे में पौड़ी खामोश खड़ा रहा अपने शहर के लोगों के साथ, समय धीरे धीरे ही सही सरक तो रहा था, इसी पौड़ी के कई नव युवकों को आंदोलन ने कठोर प्रताड़ना पहुंचाई, कईयों का भविष्य दांव पर लग गया पर पौड़ी अडिग रहा, अपने लोगो को हौसला देता रहा, कभी साथ नहीं छोड़ा, छोड़ता भी कैसे उसके अपने जो ठहरे, हम भी अब कॉलेज पास कर बेरोजगारों के रूप में भटक रहे थे, और इसी बीच राज्य निर्माण का सपना पूरा हुआ, नए राज्य ने सबको गले लगाया सिवाय पौड़ी के।

जिसने पौड़ी ने बलिदान दिया अपना सर्वस्व लूटा दिया वो खाली हाथ खड़ा सबको निहार रहा था, कि शायद कोई उस पर भी ध्यान दे, उसकी सुने पर सब जल्दी में थे, आगे बढ़ने का जुनून विकास की बयार सब तेजी से आगे निकल गए और रह गया पौड़ी अकेला हाथ में हाथ लिए कि कोई तो उसे उसके संघर्ष को याद करें पर कोई फायदा नहीं, राज्य बना देहरादून अघोषित राजधानी घोषित क्या हुई पौड़ी बरबादी की राह चल पड़ा।

कमिश्नरी, जी ये नाम ब्रिटिश काल से पौड़ी शहर को सुशोभित करता था, जहां डीएम, कमिश्नर, पुलिस आधिकारी, सभी विभागों के आधिकारी, मुख्य अभियंता, डीएफओ, आदि कितने नाम गिनाए कम ही पड़ जाएंगे, इन सभी से शहर गुलज़ार था, इनके कर्मचारियों से उनके परिवारों के हर एक सदस्यों से पौड़ी गर्व महसूस करता था, पर अब धीरे धीरे सब देहरादून की चका चौंध में शहर को छोड़ते चले गए और छोड़ गए अपनी अविस्मरणीय यादें इस शहर में, उस पौड़ी को, जो रो रहा है आज अपनो के लिए, जिनके लिए वो जीता था, अपनी खूबसूरती बिखेरता था, चोले, खुबानी, आड़ू, नाशपाती, सेब के बगीचे जो महकते थे, पता नहीं अपनों के जाने के बाद कहां गुम हो गए। कंडोलिया मंदिर, क्युंकवालेस्वर मंदिर, हनुमान मंदिर ,नाग देवता मंदिर और वहां के काफल के जंगल सब पुकार रहे है अपनो को,

पर सब विकास के आंधी में बहरे हो गए हैं या स्वार्थ वश वापस जाना नहीं चाहते, पर पौड़ी का क्या कसूर है? जिसने सब दिया बिना स्वार्थ के उसे क्यों आज गुमनामी में जीना पड़ रहा है अपनों के बिना।

आज पौड़ी एक उजड़ता शहर के रूप में अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है, भले सबसे ज्यादा मुख्यमंत्री पौड़ी शहर से बने पर सब पौड़ी को भुला कर अपने स्वार्थ सिद्ध करने में लगे रहे और जिसने उन्हें अपना सर्वस्व दिया वो खाली हाथ रह गया विकास की नकली दौड़ में।

आज हर ओर सन्नाटा पसरा है। विभाग धीरे धीरे राजधानी को स्विफ्ट हो गए बस रह गए खाली खंडर नुमा इमारतें जो कभी गुलज़ार थी। अब अपने खालीपन को झेल रही है और मानो कह रही हो कि ऐसे विकास से तो अच्छा पहले का समय ही ठीक था, कम से कम अपनो का साथ तो था, मुझे भी कई सालों बाद पौड़ी जाने का मौका मिला तो मै अपने पुराने शहर को देखने के लिए बेताब रहा जब मै पौड़ी पहुंचा तो दिल को बहुत धक्का लगा,मै ठहर गया ठिठक गया ये क्या से क्या हो गया,आंसू बहते जा रहे थे, दिल मायूस हो उठा, मै समझ नहीं पा रहा कि कैसे और किस मुंह से पौड़ी को देखू उससे बात करूं।

आज पौड़ी बहुत सुस्त और बीमार हालत में है, सब कुछ मानो रेंग रहा हो, पर अभी भी उसे उम्मीद है कि उसके भूले बिसरे वापस आएंगे और उसे फिर से गले लगा लेंगे तब वो खुशियों से झूम उठेगा, और उन्हें माफ भी कर देगा जो गलतियां उसके अपनो ने की, काश इस उजड़ते शहर पौड़ी की इच्छा पूरी हो, ये मै भी दिल से दुआ करता हूं, इसी आस में अलविदा मेरे शहर "पौड़ी", फिर मिलने की उम्मीद में।


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