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Anshul Jain

Abstract

3.3  

Anshul Jain

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उग रहे हैं आत्मा में वन कटीले

उग रहे हैं आत्मा में वन कटीले

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उग रहे हैं आत्मा में वन कटीले
अब कहीं महका हुआ चन्दन नही है
कौन समझे दुख में डूबी खनखनाहट
हथकडी है हाथ मे, कंगन नही है

है बहुत भयभीत कलिया मालियों से
डर के पथ में फूल कैसे पग उठाये
हर तरफ अधिकार चीलों का उजागर
किस तरह कोयल सुरीला गीत गाये
ले नहीं पाती हवायें, साँस सुख की
बाग मे पतझड तो है सावन नही है
कौन समझे दुख में डूबी खनखनाहट
हथकडी है हाथ मे, कंगन नही है

आत्मा,विश्वास की मरने लगी अब
पास के रिश्ते भी पत्थर मारते है
एक आँसू को तरस जाते हैं दरिया
जब कभी ताने समन्दर मारते है

दुख मेरा यह है, मुझे सच बोलना है
हाथ मे लेकिन कोई दर्पन नही है
कौन समझे दुख में डूबी खनखनाहट
हथकडी है हाथ मे, कंगन नही है 

 


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