तुमि आमाके बिए कोरबे?
तुमि आमाके बिए कोरबे?
आज जब अचानक सुमन मिल गई तब सुशांतो पहले तो किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया।
फिर मोऊ की यादों ने जोर मारा तो फिर उसने हिम्मत की और ...
सुमन से सवाल पूछ ही लिया।
" तो तुम्हारी सखी के स्वामी क्या करते हैं और कितने बाल बच्चे हैं उसके....!"
यथासंभव स्वर में मज़ाक का पुट रखा और उत्सुकता थोड़ा दबा गया।
पर ...
प्रकट में सुमन ने सिर्फ इतना ही कहा कि...
"मोहुआ ने तो शादी ही नहीं की। तमाम उम्र आपको ही सोचती रह गई अभागी। अभी सुदूर कोलकाता में किसी विद्यालय की टीचर और वार्डन बनकर रह रही!"
पलांश में सुशांतो का दिमाग़ चकरा गया...
इतना आत्मिक प्रेम... ऐसा गहन विश्वास...?
उसके बाद तो सुशांतो से रुका नहीं गया।
सुमन से मोहुआ का पता लेकर उसके स्कूल पहुंचा तो पता चला तीन दिन से मिस मोहुआ आई नहीं उसे बुखार था।
मिस मोहुआ... मतलब सच में अब तक कुंवारी है।
सुशांतो ने दोहराया।
वह जब मोहुआ से मिलने उसके क्वार्टर पहुंचा तो बड़ी उदास सी खाट पर पड़ी थी मोहु....!
क्षीण काया और मलीन मुख पर आँखें अब भी चमकीली सी।
सुशांतो को देखते ही बिस्तर से उठने को हुई पर हर हारा कर गिर पड़ती कि....
सुशांतो के बलिष्ठ बांहों का सहारा पाकर उसकी बांहों में लहरा गई।
मोहुआ के लिए किसी पुरुष का यह पहला स्पर्श था शायद।
अक्षुन्न कौमार्य को ही तो वरण किया था उस मानिनी ने।
और फिर जब ....
सुशांतो ने उसकी बहुत तिमारदारी की।
चार दिनों में ही ठीक हो गई मोहुआ।
फिर एक दिन गोधूलि बेला में जब मोहुआ सूरज़ को निहार रही थी... एकटक... अपलक... तब उससे अपना प्रणय निवेदन कर बैठा।
"मोहु.... ऐ.... मोहु...तुमि आमाके बिए कोरबे?"
(क्या तुम मुझसे विवाह करोगी?)
मोहुआ ने चौंककर सुशांतो की तरफ देखा तो उन आँखों में आँसू थे.... और थी इंतजार की कई वर्षों की शिकायत और उलाहना कि...
"बहुत इंतजार करवा दिया शौंटू दा ! इतना कहने में बीच के पैच्चीस साल गंवा दिए!"
पर बोली कुछ नहीं...
आगे बढ़कर सुशांतो के गले लग गई।
शायद पुरुष इसी प्रेमसिक्त समर्पण पर रिझते हैं और किसी एक ही स्त्री से उम्र भर के लिए बंधकर रह जाते हैं।
आहा... हा... कैसा करुण... और कैसा भावुक दृश्य था।
सुशांतो के गले लगकर मोहुआ रोए जा रही थी... उसकी शिकायतें उसके आँसू कह रहे थे।
उनमें आज भी किशोर किशोरी वाला प्रेम जाग उठा था।
मोहुआ बोली...
"मेरी मांग भर दो सुशांतो !
पर युवावस्था में विवाह के पश्चात जिस फूलोसोज़्ज़ा रात्रि या मधुमास के एकांत की आवश्यकता होती है... वह मुझे नहीं चाहिए। अब इस उम्र में ऐसी कोई इच्छा नहीं रही।
आवाक था सुशांतो अपनी इस अनोखी प्रेएसी पर। उसकी बातों पर...! उसके संस्कार पर...!
सुशांतो ने मोहुआ की हर शर्त मान ली।
क्यों ना मानता...?
उसने मोहुआ से सच्चा प्रेम जो किया था।
और... प्रेम में तो भावनाएं मुखर होती हैं पर शरीर की भाषा गौण ही तो रहती है।
...
अंतत:
दोनों ने महसूस किया कि...
कितना तो आसान है बुद्ध बनना सबकुछ छोड़ देना।
मुश्किल है प्रेम की अनिवार्यता को स्वीकार करना और इसके मोह-पाश से मुक्त होना।
ये महज़ देहो का मिलन नहीँ कि पल भर हो जाये और कितनो से होता रहे,खोता रहें समुद्र -मंथन के दौरान।
ये बंधन है जन्मों का और इसका शिकंजा इतना सख्त कि कोई चाहे भी तो ब्रह्मांड के किसी कोने ने रहे प्रेमी के दुआओं वाली ऊर्जा से मुक्ति संभव नहीँ।
हाँ ये नश्वर है पर शाश्वत भी ।
मोहुआ ने एक गहरी मुस्कान ली और सजल आँखो के साथ मुक्त किया स्नेह के बंधन को पारस के प्रेम के आलिंगन में।
प्रेम देह से अलग भी है और ऊपर भी ।
पर सामने वाला देह नहीं रूह से प्रेम करता है तभी बनती हैं अमर प्रेम कहानियां।
धन्यवाद
