Vijay Kumar Tiwari

Romance

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Vijay Kumar Tiwari

Romance

तुम्हारे प्रेम के नाम-1

तुम्हारे प्रेम के नाम-1

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तुमने कहा था,'मैं बहुत प्रेम करती हूँ,परन्तु मेरा प्यार वो वाला प्यार नहीं है।"मेरे लिए तुम्हारा इतना ही कहना किसी संजीवनी से कम नहीं है।तुम्हें शायद पता नहीं, आजकल मैं किसी अजनबी दुनिया में चला आया हूँ और उम्र के तकाजे के अनुसार जीने की कोशिश कर रहा हूँ।तुमने भी तो,बार-बार आगाह किया था कि मुझे कोई निश्चित जिन्दगी जीना शुरु कर देना चाहिए।यह जिन्दगी निश्चित और स्थायी है कि नहीं,यह तो नहीं पता परन्तु मेरी कोशिश है कि सबकुछ ठीक-ठाक रहे।

पत्र लिखने का मूल कारण है कि प्रेम करने वालों के बीच संवाद ना हो तो दोनो की जिन्दगी मृतप्राय सी बोझिल हो जाती है।उलाहना और आरोप-प्रत्यारोप की शैली को तुमने शुरु में ही नकार दिया था,इसलिए वैसा तो नहीं कह सकता परन्तु इतनी शिकायत का हक तो बनता ही है कि तुमसे पूछूँ,"इतने लम्बे समय से,शायद पांच-छे सालों से,तुमने मेरी खोज-खबर नहीं ली है।यह मत समझ लेना कि मैं उबकर बता रहा हूँ।मेरा धैर्य अभी भी बना हुआ है और मैं जन्म-जन्म तक प्रतीक्षा कर सकता हूँ।"दूसरा कारण यह है कि आज मुझे स्पष्ट महसूस हुआ कि तुम मेरे कमरे में आयी हो,मुझे दयालु भाव से देख रही हो और कहना चाहती हो कि प्यार तो प्यार ही होता है,ये वाला या वो वाला नहीं होता।लग रहा है कि तुम दुनिया के थपेड़ों को सह नहीं पा रही हो और शायद कमजोर पड़ती जा रही हो।यह तो तुम्हारा ही निर्णय था,मैं तो दूर-दूर तक इसका जिम्मेदार नहीं हूँ।

बहुत भाग-दौड़ के बाद,सच कह रहा हूँ,मैंने तुम्हारी सलाह पर गौर किया और किसी स्थायी,शान्त जिन्दगी की तलाश ने मुझे यहाँ ला पटका है।मैं वहाँ भी खुश था जहाँ रहते हुए तुमने मुझे खोज निकाला था।प्रेम जैसी कोई भावना,कम से कम,मुझे तो नहीं थी और होती भी कैसे?यह किसी भी तरह मर्यादित नहीं था।हाँ,तुम्हारे सौन्दर्य की सराहना किये बिना मैं नहीं रह सका।तुमने अपने वाल पर अनगिनत तस्वीरें डाल रखी थीं।मैं कोई पारखी नहीं था,बस जो लगा वह बता दिया।तुमने जो महसूस किया,वह तुम जानो।मैंने तबतक अपनी कोई तस्वीर नहीं डाली थी।तुम्हारे आग्रह पर मैंने अपनी तस्वीर डाली।याद करो,तुम बहुत हंसी थी मेरी तस्वीर देखकर।तुमने कहा था,"मन कर रहा है कि अपना सिर फोड़ लूँ।अरे,कोमल भावनायें जागीं भी तो ऐसे व्यक्ति के लिए,जो उम्र में बहुत बड़ा है।"मैं भी हंस पड़ा था और तुम्हारी सच्चाई और निश्छलता पर मुग्ध हुए बिना नहीं रह सका।इसके बाद तुमने ही सारी शर्तें रखीं,सारे तर्क दिये और पटरियाँ बनायी जिसपर प्रेम की गाड़ी चलने लगी।तुम्हें आश्चर्य होता था कि कैसे बहुत आसानी से तुम्हारी सारी बातें मान लेता हूँ।वह इसलिए कि मैं तुम्हें खोना नहीं चाहता जबकि तुम्हें पाने की सम्भावना न तब थी और न आज है।तुमने कितनी निर्दयता से शर्त लगा रखी थी कि कभी पाने या मिलने की बात नहीं करूँगा।मैंने तुम्हारी भावनाओं को हमेशा सर्वोच्च स्थान दिया और कभी भी कोई शर्त नहीं तोड़ी।तुमने इसके लिए मेरी बार-बार सराहना भी की है।मैं यह भी कह सकता हूँ कि तुम खुद अपनी ही शर्तों में बंधी रह गयी।

कभी-कभी शंका होती थी कि तुम कोई मायावी तो नहीं हो जो मेरा धर्म भ्रष्ट करना चाहती हो या मेरी भावनाओं से खेलकर मुझे पीड़ित-प्रताड़ित करके सुखी होना चाहती हो।ऐसा प्रेम तो होता ही नहीं।यदि होता है तो किसी परिणति तक पहुँचना चाहिए।तुम्हारे ऐसे प्रेम का रहस्य भगवान ही जाने।मैंने तो सदैव तुम्हें सत्य समझा और तुम्हारी हर भावनाओं की पूजा की।तुम्हें खुश पाकर मैं खुश हो लेता था और तुम्हें सन्तुष्ट देखकर संतोष कर लेता था।तुमने इसे नैसर्गिक और पवित्र प्रेम कहा था जिसमें किसी तरह की सांसारिकता न हो,कोई पाप न हो।

कभी-कभी सोचता था कि तुम प्रेमजनित विह्वलता की चर्चा करोगी और मुझे आमन्त्रित करोगी परन्तु ऐसा कभी नहीं हुआ।शायद तुमने अपनी प्रेम-भावनाओं को किसी गह्वर गुफा में कैद कर दिया था या तुम्हारे भीतर किसी मजबूत आवरण की परत के नीचे दबा पड़ा था।मैं बहुत निराश रहता था उन दिनों और तुम कोई अबूझ पहेली सी लगती थी।फिर न जाने कैसे तुम मेरी मानसिक उद्विग्नता समझ लेती थी और खिलखिलाकर हंस पड़ती थी।मेरा मनुहार करती और मुझे प्रसन्न करने के लिए सारे तामझाम करती।मैं समझ नहीं पाता कि तुम्हारा कौन सा पक्ष सही है।

सच यह भी है कि मुझे भी सुख और आनन्द मिलता था।मैं तो इतने से ही सन्तुष्ट हो लेता था या मान लेता था कि शायद यही सच्चा प्रेम है।तुम्हारी उस बात को सही मानकर कि प्रेम एक तपस्या है,मैंने तपस्या की है।इस तप में मुझे सुख मिलता था क्योंकि तुम्हीं ने कहा था कि प्रेम सुख देता है।

भगवान की प्राप्ति का जो आधार मुझे बताया गया वही आधार तुमने प्रेम के लिए भी बताया था।तुमने कहा था कि प्रेम मिल गया तो समझो कि परमात्मा मिल गये।मुझे कहने में कोई संशय नहीं है कि इस क्रम में मैने बार-बार परमात्मा की अनुभूति की है और तुम्हें प्रेम की देवी के रुप में पाया है।

मुझे अन्य लोगो की प्रेम कहानियों में वह भाव नहीं दिखता।उनमें तकरार,उलाहनायें, और एक-दूसरे को पीड़ित करने के भाव छिपे दिखते हैं।पाने और छोड़ने की बेकरारी रहती है।एक-दूसरे में दोष खोजते रहने की प्रवृत्ति होती है और जीत-हार का खेल चलता रहता है।मैंने कभी तुम्हें जीतना नहीं चाहा और तुमने मुझे कभी हारने नहीं दिया।मेरा दिल कभी उदास हुआ तो आँसू तुम्हारी आँखों से निकले।शायद यही हालत मेरी भी रही।मुझे तुम्हारी उन दिनों की पीड़ा की पूरी अनुभूति है जब दुर्घटना हुई थी और मैं महीनों बिस्तर में पड़ा था।तुम अपनी शर्तो की पाबंद नहीं होती तो शायद उड़कर मेरे पास आ जाती।तुमने कहा भी था कि प्रेम में देने की आवश्यकता होती है।प्रेम सेवा-समर्पण की मांग करता है।मुझे आज भी पूर्ण विश्वास है कि प्रेम की कोई ऐसी कसौटी नहीं है जिसपर तुम खरी न उतरो।यही हमारी शेष जिन्दगी का सम्बल है और इसी तरह हमारा प्रेम अमर हो जायेगा।मैं तुम्हें धन्यवाद देता हूँ कि तुमने मुझे प्रेम की अमर रीति सिखायी है।

 


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