Vijay Kumar Tiwari

Drama

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Vijay Kumar Tiwari

Drama

मेरा भाई ऐसा ही होता-1

मेरा भाई ऐसा ही होता-1

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किसी लक्जरी बस से यात्रा करने का अलग ही रोमांच है। गद्देदार सीटें, खुली या बन्द खिड़की, टीवी के पर्दे पर रोमांस करते, नाचते, गीत गाते युवा जोड़े का विडियो, खिड़की के बाहर तेजी से भागते पेड़-पौधे, खेत-खलिहान, ताल-पोखर और पीछे छूटते जाते लोग-बाग सबकुछ यात्रा को मनोरम बना देता है। मुझे तो ऐसा ही लगता है। मेरा धंधा ही ऐसा है कि आये दिन यात्रायें करनी पड़ती है। धंधा लिखा है तो बहुत से लोग मेरे काम के बारे में अंदाज़ लगा चुके होंगे। बाद में मैं खुद ही बता दूँगी, विश्वास रखिये।

बिहार में बस-सेवा ही आवागमन का साधन है जो पटना को राज्य के हर अंचल से जोड़ता है। बसें हर घण्टे सुदूर हर कोने तक जाती हैं और गरीब-धनी सबको पहुँचाती हैं। इन यात्राओं में मुझे सुखद-दुखद सब तरह के अनुभव हुए हैं। आप चिन्ता ना करें। बोर करने के लिए उन अनुभवों की चर्चा नहीं करुँगी।

यह भी बताना नहीं चाहूँगी कि मैं कहाँ से आ रही हूँ। जाना मुझे पटना है। आप यदि उत्तरी बिहार की जनवरी की ठंड से परिचित हैं तो सुबह की स्थिति का आकलन कीजिए। बस को पाँच बजे खुलना है, घना कोहरा है। कुछ भी दिख नहीं रहा। वैसे मेरी यात्रा सुबह चार बजे से ही शुरु हो गयी है। चार बजे इस भयानक ठंड में रजाई से बाहर निकलना वैसे ही कष्टदायी है। तापमान तीन या चार डिग्री से अधिक नहीं है। मुझे तीन बजे ही जागना पड़ा। जल्दी-जल्दी फ्रेश हुई,ब्रश की। गर्म पानी की व्यवस्था थी। चाय के पहले, गिलास भर पानी पिया। चाय पीते हुए एक निगाह पूरे कमरे में डाली,मन भावुक हो उठा। थोड़ी विह्वलता के साथ बिस्तर की सलवटों को सहलाते हुए ठीक करने की कोशिश की। कपड़े बदले। गर्म सूट पहनी,स्वेटर डाल ली और उपर से ऊनी शाल ओढ़ ली।

बस स्टैंड पहुँचने में कार को ठीक पैंतालिस मिनट लगे। खिड़की की बगल वाली सीट पर बैठ गयी। धीरे-धीरे यात्री आने लगे। बस भरने लगी। मुझे पहुँचाकर लोग जा चुके थे और मैं भी भावुकता से उबरते हुए पाँच बजने की प्रतीक्षा करने लगी।

कभी-कभी थोड़ा समय भी पहाड़ जैसा लगता है और काटे नहीं कटता। कुहरे की धुंध ने जैसे मुझे अपने आगोश मे ले लिया है और लगा मैं ठहर सी गयी हूँ। अचानक थोड़ी बेचैनी सी महसूस हुई। धड़कन तेज हो गयी। इस भीषण जाड़े में भी उमस जैसा लगा। मैंने अपने को सम्हाला और भावनाओं के ज्वार को उमड़ने नहीं दिया। आश्चर्य हुआ, ऐसी तो मैं नहीं हूँ, इतनी कमजोर और भावनाओं में बहने वाली। स्मित मुस्कान उभर आयी और मन ही मन मुस्कराने लगी।

कुछ देर बाद बस में गतिविधियाँ थोड़ी तेज़ हुई। चालक अपनी कुर्सी पर आ बैठा। बस खुलने ही वाली थी कि तेजी से भागता हुआ कोई युवा हड़बड़ाकर चढ़ा। मैंने अपना चेहरा शाल से ढक रखा था, बस आँखें खुली थीं। कंडक्टर के संकेत पर वह मेरी बगल में आ बैठा। शायद दूर से दौड़ता आया था, उसकी धड़कन तेज थी और हांफ रहा था। थोड़ी देर बाद खड़ा हुआ और उसने अपना छोटा सा बैग उपर रखा।

उसने भूरे रंग का सूट पहन रखा था,लाल रंग की टाई और गुलाबी रंग का स्वेटर। चेहरे पर हल्के-हल्के बाल हैं,उसने आज दाढ़ी नहीं बनायी है। दावे से तो नहीं कह सकती, अनुमान लगा सकती हूँ कि इसकी पिछले लगन में ही शादी हुई होगी और यह भी सोच रही हूँ कि इसने अपनी अलसायी ब्याहता को नींद में ही छोड़कर भागा-भागा आया है। पता नहीं क्यों, दिल में उन दोनो के लिए सहानुभूति के भाव उमड़े।

खुलते ही दो कदम चलकर बस रुक गयी। कोई नव-दंपत्ति चढ़ेऔर पत्नी इसके बगल में बैठ गयी। दोबारा बस खुली और कुहरे को चिरती हुई तेजी से बढ़ने लगी। बाहर कुहासा और भयंकर ठंड थी। मुझे थोड़ी हमदर्दी जागी। मैंने इससे और बगल में बैठी महिला से कहा,"थोड़ा सिमटकर बैठिये और अपने पति को भी बैठने दीजिए। ऐसा ही हुआ।

भले आदमी की तरह इसने अपने हाथों को पैरों के बीच कर लिया। मुझे हंसी आयी और उसकी शराफत पर खुश भी हुई। शीत ने अपना प्रभाव दिखाना शुरु कर दिया। सबने अपने को जितना ढक सकते थे, ढक लिया। इसके हाथ खुले थे और रह-रहकर अपनी हथेलियों को आपस में रगड़कर गरमाने की नाकाम कोशिश कर रहा था। मुझे किंचित दया आयी और मैंने शाल का एक हिस्सा बढ़ाकर उसकी हथेलियों को ढक दिया। थोड़ा असहज हुआ। मैंने कहा,"बहुत ठंड है, हटाईये मत। "उसने कृतज्ञ भाव से मुझे देखा। शायद कुछ बोला भी परन्तु मुझे सुनायी नहीं पड़ा।

"आपके तो मजे हैं इस ठंड में, दो जवान लड़कियों के बीच दबे हुए हैं,"मैंने शरारत से कहा। वह पूरी तरह सिमट गया। मेरी तरफ का उसका पूरा दबाव समाप्त हो गया। शायद दूसरी तरफ भी ऐसा ही हुआ। मैंने गौर किया, उसके चेहरे की रंगत ग़ायब है और जितना सिमट सकता है, सिमटकर बैठ गया है। मुझे क्षणिक निराशा हुई मानो रंग में भंग हो गया।

मैंने बाहर देखना चाहा। बस की रफ्तार तेज है और अगल-बगल वाले पेड़ दिखने लगे हैं। हवा में अति शीतलता है और यात्री बहुत शान्त हैं। कुछ सो रहे हैं। बगल वाली महिला ने भी अपना सिर पति के कंधों पर झुका लिया है। लगभग सो ही गयी है। मेरी आँखों में नींद ने हल्की दस्तक देने की कोशिश की। मैंने उसे हावी होने नहीं दिया। मेरा पूरा ध्यान बगल में बैठे लड़के पर है जो पूरी तरह सजग और सचेत है। मन में आया कि कहूँ,"आप सहज होकर बैठिये। थोड़ा पीछे आ जाइए, सीट का सहारा ले लीजिए। ऐसे कब तक उकडूँ बैठे रहियेगा? शरीर अकड़ जायेगा,पीठ में दर्द भी हो सकता है। "कुछ सोचकर चुप रह गयी। उसकी हालत देखकर बहुत बुरा लगा। मैंने धीरे से कहा,"आप नाराज़ हो गये क्या?"

"नहीं,"मरियल सी आवाज़ में बोला और उसने मेरी तरफ देखा।

मैं थोड़ी हुलसित हुई, बोली,"आराम से बैठिये। "

"थोड़ा हिलडुल कर उसने कहा,"मैं ठीक हूँ। "

"चलो ठीक है,"मैं मुस्करायी। उसके भाव में भी हल्का सा परिवर्तन आया। खुलकर हँसा तो नहीं परन्तु उसने पूरी निगाह मुझपर डाली। आभार के भाव वाली उसकी निगाह मुझे अच्छी लगी। मैंने गहराई से महसूस किया, यदि कोई मेरा भाई होता तो ऐसा ही होता। शाल उसके हाथों से हट गया था, स्नेह भाव से, पूरी आत्मीयता के साथ मैंने उसकी हथेलियों को फिर से ढक दिया। मैंने गहराई से भाई की कमी महसूस की,आँखें भर आयीं और मैं विह्वल हो उठी।   

  



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