तुम्हारे लफ्ज़ जब फूटे थे.... तो..........

तुम्हारे लफ्ज़ जब फूटे थे.... तो..........

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तुम्हारे लफ्ज़ जब फूटे थे.... तो, 
मन किया था चूम लूँ उनको 
और साँस रोक देखता रहूँ , 
आँखे बंद कर उनके पास आऊँ ..., 
और थम जाऊँ

जैसे चाँद पर कुछ दाग़ थमे हैं... गुज़रे ज़माने से 
सीने की हलचल को समेट लूँ मुट्ठी में, 
और बंद कर दूँ बाहों के दरवाज़े

बलखाई कमर को होले से पकड़ के ,
आँखों से भर लूँ तुम्हे हलक के नीचे तक 
और फिर मचल उठूँ ...
एक प्यासे के जैसे

सब कुछ भूल कर... तुममे तुम्हारी आत्मा तलाशूं ,
और भूखा हो जाऊँ तुम्हारे यौवन का 
और छोड़ दूँ तुम्हे अपने आगोश में ,
कुछ देर के लिए ...

फिर कहीं दूर बारिश हो ...
मिट्टी की ख़ुशबू और भीगा हुआ चाँद ,
समेट लाऊँ तुम्हारे पास 
और इस बार रख दूँ गर्म-हिलते हुए होंठ 
तुम्हारे लफ़्ज़ों पर ,,
बिना साँस रोके , आँखे बंद करे !!

 


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