Yogesh Kanava

Abstract

4.5  

Yogesh Kanava

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टूटते अहसासों का साथ

टूटते अहसासों का साथ

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रातभर नींद न आने के कारण संदेश की आँखें जल रही थी। बड़ी मुश्किल से उसने ब्लेक टी बनाई और पीने लगा। दूध लाने की हिम्मत नहीं हो रही थी । मन किसी अनजानी आशंका से इतना ग्रस्त था कि उसके सोचने समझने की शक्ति को मानो लकवा भार गया था। इतने बरसों में आज पहली बार उसे लग रहा था कि वो एकदम अकेला है। नितान्त अकेला जिसका ना कोई साथी है ना कोई संगी। ऐसा क्यों लग रहा था कोई स्पष्ट कारण समझ में नहीं आ रहा था । वैसे कारण तो था पर वो उस कारण को समझना नहीं चाह रहा था। चुंधियाती रोशनियों के बीच भी आदमी अंधेरे को महसूस करता है। तेज रोशनियाॅं आॅंखों के आगे खुद-ब-खुद अंधेरा ला देती है। कुछ भी दिखाई नहीं देता है सिवाय एक काले बिन्दू के। इतनी तेज रोशनियों के बीच केवल एक काला बिन्दू और धीरे-धीरे इतना बड़ा हो जाता है कि पूरे रोशनी के सैलाब को अपने में समेट बस अंधेरा ही अंधेरा दिखता है ।

कुछ ऐसा ही हो रहा था आज संदेश के साथ भी। वो विचारों की तेज रोशनियों के बीच रहने वाला शख्स आज एकदम अकेला महसूस कर रहा था। एकदम अंधेरा, घुप अंधेरा आँखों के सामने लग रहा था। लग रहा था विश्वास की डोर धीरे-धीरे उसके हाथ से फिसल रही है, उसकी हथेलियों को चीरते हुए और लहुलुहान हथेलियां उस डोर को भींचकर पकड़ने की कोशिश करती सी। इसी कोशिश में और ज्यादा जख्मी होती सी जान पड़ रही है। ऐसा क्यों हो रहा है मालुम नहीं। ऐसा क्यों लग रहा है मालुम नहीं। पर हो रहा है ऐसा ही, डोर छूट-सी रही है, हथेलियां लहु टपका रही है और विश्वास का एक-एक क़तरा लहु की बून्दों सा हथेलियों से टपक रहा है। ज़ख्मी हथेलियों से तार-तार हुए रिश्तों के लिहाफ को संभाल नहीं पा रहा है।

चुंधियाती रोशनी के बीच इसी काले बिन्दु का अकार बढ़ता जा रहा है। इसी बिन्दु से एक अक्स सा उभरता प्रतीत हो रहा है। उस अक्स के अट्टाहास के स्पष्ट स्वर कानों के परदे को फाड़ने को आतुर किन्तु अक्स स्पष्ट नहीं है। कौन है ये, मुझ पर क्यों अट्टाहास कर रहा है ये साया, जिसका आकार स्पष्ट नहीं हो रहा है और वो साया फिर उसी अंधेरे बिन्दु में विलीन होता जा रहा है पूरे अट्टाहास के साथ। साया विलीन हो चुका था बस केवल अंधेरा ही अंधेरा और उसी अंधेरे के बीच आते उसके अट्टाहास के स्वर।

संदेश चौंक पड़ा -" ये साया मुझसे क्या चाहता है, क्यों अट्टाहास कर रहा है। मुझे ऐसा क्यों लग रहा है कि मेरे कान के परदे फट जाएगें, दिमाग की नसें फट साी जाएंगी।"

तभी अचानक वो साया फिर से आंखों के सामने आया एक ज़ोरदार अट्टाहास के साथ बोला- ‘‘तुम अपने भविष्य को देखकर इतना डर गये हो। ये सब मैंने तुम्हारा ही भविष्य दिखाया था तुम्हें । जो रिश्ते तूने खुद बांधे हैं वो तुम खुद ही तोड़ रहे हो तो फिर डर क्यों रहो हो। अपनी लहुलुहान हथेलियों को देखकर रो क्यों रहे हो?’’

लेकिन मैंने तो कोई भी रिश्ता तोड़ने के लिए नहीं बनाया था। कोशिश करता निभाने की तो वो कहीं ना कहीं किसी ना किसी कारण से टूटता सा लगता है। और वा साया फिर अट्टाहास करने लगा - तुम क्या समझते हो तुम चतुराई कर लोगे, किसी को पता नहीं चलेगा, तुम्हारे अपने कर्म ही तुम्हारा भविष्य लिख रहे हैं और तुमने जिन रिश्तों की बुनियाद रखी थी ना, वो केवल अहसास के धरातल पर थी, और जब अहसास डोलते हैं ना तो रिश्तों की इमारत भी डगमगाने लगती है। तुम्हारे साथ भी यही हो रहा है । अपने अहसासों को, अपने विश्वास को मजबूद करो।

लेकिन मैंने तो विश्वास का दामन नहीं छोड़ा है। अपने अहसासों को जिंदा रखा है बावजूद इसके कि हर तरफ से इन अहसासों को तोड़ते हुए लोग मिलते गए बिछुड़ते गए, पर मेरे अहसास तो अभी भी जिन्द़ा हैं ।

हाँ तेरे ज़िन्दा हैं तभी तो तू दुःखी है या तो इन अहसासों को इतना मजबूत कर कि वो टकरा सकें, पूरे हौसलों के साथ, या फिर अपने अहसासों को समय की कब्र में दफना कर मेरे साथ हो ले। अब मरजी तेरी है, तू क्या चाहता है। अपने अहसासों को जिं़दा रखते हुए एक जिन्द़ा इन्सान की तरह जीना चाहता है या फिर मुर्दों सी जिन्द़गी....?........बस मुझे चुनना है अपना रास्ता, अपनी मंज़िल.......अपना वजूद ।

नहीं मैं जीना चाहता हूँ। मैं अपने अहसासों को मरने नहीं दूंगा। चाहे लोग मुझे छोड़ते रहें, चाहे हथेलियों से रिसता खून कम पड़ने लगे। मैं अपने अहसासों का साथ नहीं छोड़ सकता हॅंू। मुझे जीना है ..........एक जिन्द़ा इन्सान की तरह.........एक सच्चे दिल की तरह जो धड़कता है अपनों के लिए अपने विश्वास के लिए अपने अहसासों के लिए.......बस मुझे जीना है......तमाम चुंधियाती रोशनियों के बीच, चाहे मुझे इस काले बिन्दु के बीच ही समाना पड़े पर अपने अहसासों को नहीं छोडूंगा।

......मैं अकेला जरूर पड़ गया हॅंू पर मेरे अहसास मेरे साथ हैं। हाॅं मेरे साथ हैं। और फिर वो साया सिमटने लगा, धीरे धीरे। संदेश की तन्द्रा लौटने लगी वो सोच रहा था - अगर भविष्य इस तरह का है वाकई बहुत ही डरावना है। नहीं मुझे अपना भविष्य अपने ही अहसासों के साथ गुज़ारना है। वो सोच ही रहा था कि तभी एक और साया उभरा - कोई जनाना साया।

"संदेश तुम ठीक सोच रहे हो, तुम कमज़ोर नहीं हो। तुम्हारे अहसास तुम्हारे अपने हैं। बस इनको अपना बनाओ, अपने अहसासों को अपने साथ आत्मसात करो।"

"....पर तुम कौन हो ?"

"मैं....मैं तुम्हारा वज़ूद हूँ, हाँ वही जिसके अहसास में तुम जी रहे हो । जिसका ख़याल तुम्हारे भीतर ऊर्जा का संचरण करता है। मैं तुम्हारे भीतर ही हूॅं । हर रोम-रोम में हूँ, हर अहसास में हूँ बस तुम मुझे पहचानने की कोशिश करो। तुमने कैसे सोच लिया कि कोई भी तुम्हारे साथ नहीं है । मैं हूँ ना तुम्हारे साथ और संदेश धीरे-धीरे एक नई ऊर्जा के साथ वापस अपने काम में लग गया।



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