ठहाकों का रविवार
ठहाकों का रविवार


रात के खाने के बाद होस्टल के सामने के चबूतरे पर बैठकर बातचीत करने का एक अलग ही मज़ा है , रोहन आज बेहद भावुक होकर अपने बचपन की यादें साझा कर रहा था।
फिर उसने मुझसे पूछा, “ तुमने सबसे ज्यादा किससे सीखा है ? मतलब बचपन में ? "
मैंने जवाब दिया, “अनुभवों से और बचपन की बात करो तो रविवार के मिले अनुभवों से"
रोहन ने उत्सुकता पूछा, "मैं समझा नहीं, कैसे ?"
मैंने बोला, "मेरा बचपन आम बच्चों के बचपन से थोड़ा अलग था।"
रोहन ने फिर पूछा, "कैसे?"
मैंने बोला, "अच्छा सुनो !"
मैंने मोबाइल का नेट ऑफ किया और फिर बोलना शुरू किया, " रविवार मेरे लिए एक बेहद खास दिन होता था। शायद मेरे मोहल्ले के सब बच्चों के लिए भी ये दिन एक अलग ही स्फूर्ति लाता था। हम उस दिन आकाश में सूरज की लालिमा आने से पहले उठ जाते और डॉ दादू के घर में हम सब जमा हो जाते थे। डॉ दादू ने ही ये हा-हो क्लब शुरू किया था और उनके आते ही पहले हम सारे बच्चे उनका स्वागत ठहाकों से करते थे। फिर वो आम के पेड़ के पास खड़े हो जाते और हम सब एक गोल घेरा बना लेते थे। इसके बाद शुरू होता हँसी-ठहाकों का सरगम, जिसमें हर एक को एक अलग तरह के हँसी-ठहाके से शुरू करना होता और पीछे से सब के सब उसका साथ देते थे । फिर हम अलग अलग तरह के खेल खेलते जिसमें से ज्यादातर ऐसे खेल होते जिसमें कोई हारता जीतता नही था पर फिर भी रोमांचक होता था। और जिन खेलों में जीत-हार होती थी, उसमें विजेता को तीन बार नाक पकड़ के उछलने को मिलता और बाकी को 1 बार नाक पकड़ उछलना होता था। खेल के बाद इस दिन का सबसे खास हिस्सा आता था जिसमें हम सब बातचीत करते थे। दादू के ही घर के एक बड़े से कमरे में हम सब जहां जगह मिलती बैठ जाते और फिर बातचीत का सिलसिला शुरू होता था। वहाँ मैने ऐसे बच्चों को भी बोलते देखा था जो अपने घर-स्कूल में न के बराबर बोलते थे। वहाँ हम कुछ भी बोलने, पूछने और सोचने के लिए आज़ाद होते थे। यहाँ कोई कहानी सुनाता, कोई कविता और कोई अपने बारे में बताता। फिर इसमें से एक टोली जो नाटक करती थी वो अपना आखिरी पूर्वाभ्यास करती थी । अब जाने से ठीक पहले दादी हमारे लिए चाय और बिस्किट लेकर आती थी। दादी के बिस्किट में एक गज़ब का स्वाद था जो शायद आज तक नही मिला। नाटक की टोली को हर महीने के किसी एक रविवार को नुक्कड़ नाटक करने जाना होता था। हम अपने नगाड़े , ढोल-ढफली लेकर गांव, शहर, नुक्कड़, चौक ,चौराहों के लिए निक
ल पड़ते थे । नुक्कड़ को अपना मंच बना हम नाटक को जीते थे। तौलिये को फैला कर हम राह-खर्च के लिए पैसे इकट्ठे करते और फिर दूसरे चौराहों की ओर निकल जाते थे।“
रोहन ने बीच में टोका, “कभी किसी ने मना नही किया ? “
मैंने थोड़ा हसते हुए जवाब दिया , “घरवालों ने कभी मना नही किया। हाँ एक बार किसी ने टोका तो था ।“
रोहन ने फिर पूछा, “कौन ? क्या बोला?”
मैंने फिर बोलना शुरू किया, “ स्कूल के एक शिक्षक थे, उन्हें मेरी भविष्य की चिंता थी तो उन्होंने एक बार कहा था। हुआ यूं था कि एक नुक्कड़ पर नाटक करते हुए उन्होंने मुझे देखा था तो अगले दिन मुझे बुलाया और पूछा, ‘क्या मिलता है इन सबसे?’
मैंने बोला, ‘पता नहीं’
थोड़ा बहुत उन्होंने मुझे अपने भविष्य के लिए सोचने को बोला और फिर जाने दिया।
अगले रविवार को बातचीत के दौरान मैंने दादू को ये बात बताई ।
उन्होंने बोला, ‘ मैंने हमेशा तुम सबको बोला है और आज फिर कहता हूँ कि या तो पढ़ाई के लिए खेल होनी चाहिए या खेल के लिए पढ़ाई।‘
फिर उन्होंने सबको शांत होने का इशारा करते हुए कहा, ‘चलो आज एक कहानी सुनाता हूँ । एक बार एक खेत में दो आलू रहते थे। एक का नाम कालू और दूसरे का नाम कचालू था । कचालू के जीवन में एक ही लक्ष्य था कि एक दिन वो आलू का चिप्स बनेगा और थोड़े नमक के साथ रंगीन पैकेट में रहेगा । वो हमेशा दुखी और चिंतित रहता था । खेल के दौरान भी चिड़चिड़ा सा जाता था। बात भी बहुत कम ही करता था । कालू इसके विपरीत बेहद शांत स्वभाव का था। हफ्ते में एक बार ही सही लेकिन अपने दोस्तों के साथ जीवन की समस्या को परे रख ठहाके लगाता । खेल में कभी उसे हार-जीत से फर्क नही पड़ता था। उसे खेल को दिल से बस खेलना पसंद था । चौक चौराहे पर जा कर गीत गाता था। वहाँ अगल अगल तरह की सब्जियों से उसकी मुलाकात होती। वो गानों और नाटक के ज़रिये सब्जियों के हक़ की बात करता था। उसे बस चिप्स नही बनाना था। क्योंकि उसकी रुचि अब मिक्स-वेज बनने में थी। जहाँ वो हर तरह की सब्जी से मिल सके। उसी के मंडली के एक आलू को चोखा बनाना था। कालू अपने जीवन के लिए निश्चिंत रहता था। कचालू कभी समझ ही नही पाया कि कालू इतना खुश कैसे रह सकता है ।'
कहानी खत्म हुई और दादी की चाय आ चुकी थी।"
रोहन ने पूछा , “हा-हो क्लब में क्या सिर्फ बच्चे आते हैं ?"
मैंने बोला, “ज्यादातर बच्चे या जिन्होंने अपने अंदर के बच्चे को संभाल रखा है।"