Saket Shubham

Drama

4.8  

Saket Shubham

Drama

तेरहवाँ क़दम

तेरहवाँ क़दम

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हमारे घर के पीछे एक आम का पेड़ था जिसके पास दादी की कुर्सी लगी रहती थी। यहाँ दादी मुझे कहानियाँ सुनाती थी। मैं अपनी परेशानी बताता और दुनिया की शिकायत दादी से किया करता था जिसे दादी कहानियों-बातों से ही हल कर देती थी।

दादी ने बताया था की इस आम के पेड़ को उन्होंने उस वक़्त लगाया था जब उनकी उम्र सात की थी और ये पेड़ उनकी माँ ने उनके जन्मदिन पर दिया था।

उनके इंतेक़ाल के एक दिन पहले की बात मुझे शायद ज़िन्दगी भर याद रहेगी। उस दिन वो समय के बारे में बता रही थी।

वो कह रही थी, "समय को देखने के बहुत सारे तरीके हो सकते हैं. जिसमें आसान तरीका घड़ी देखना होता है। लेकिन अगर समय की खूबसूरती देखनी हो तो तुम्हें किसी के जीवन को देखना होता है।"

मैंने अजीब सी शक्ल बनाई और दादी की तरफ देखते हुए कहा, " मैं समझा नहीं ?"

दादी ने मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, "जैसे मैंने तुम्हारे पापा को बढ़ते हुए देखा है और तुम्हे बढ़ते हुए देख रही हूँ। इसी आम के पेड़ के पास वही शरारत करते हुए तुम्हें देखना जिनके लिए कभी तुम्हारे पापा को पीटा था।"

मैंने हँसते हुए कहा, "क्या सच में दादीमाँ ? "

उन्होंने कहा , " और नहीं तो क्या ? अभी कुछ दिन पहले मेरी कुर्सी के चारों तरफ घूमती गिलहरी को पकड़ते हुए जैसे तुम्हारे पैरों में काँटा चुभ गया था ठीक इसी तरह तुम्हारे पापा के पैरों में भी इसी पेड़ के नीचे तितलियों को पकड़ते वक़्त काँटा चुभा था।"

मैंने पूछा, "क्या पापा यहाँ आते भी थे ? और अब क्यों नहीं आते ?"

दादी ने कहा, "बच्चे, हमारा जीवन एक सीढ़ी की तरह है और मान लो इस सीढ़ी में बारह क़दम हैं। मैं अभी बारहवें कदम पर हूँ, तुम दूसरे और पापा छठे क़दम पर हैं। तो बात ये है कि कुछ लोग पहले क़दम से अपने क़दम तक दौड़ते रहते हैं और कुछ लोग अपनी जगह पर स्थिर। ये अलग बात है कि हर किसी को उनके जगह पर वापस जाना ही होता है लेकिन फिर भी लोगों को अपने सीढ़ी यानी कि जीवन के पहले चार कदमों पर जाते रहना चाहिए।

तुम्हारे पापा सीढ़ी के अपने छठे क़दम से हिलना भी नहीं चाहते और मैं हर रोज़ तुम्हारे इस दूसरे क़दम पर तुम्हारे साथ खेलने आ जाया करती हूँ।"

मैंने कहा, "हाँ दादी, पापा एकदम बोरिंग हैं पर दादी ये बताओ कि इस सीढ़ी में तेरहवाँ कदम क्यों नहीं है ?"

उन्होंने कहा, "इसके बाद इस सीढ़ी की जरूरत नहीं होती। बस दिक्कत इस बात से है कि इसके बाद आप दूसरे कदमों पर रुके लोगों से मिल नहीं सकते।"

मैंने दुखी होकर पूछा, "आप तो बारहवीं पर हैं, तो आप इसके बाद हमलोगों से मिल नहीं पाओगी ?"

दादी ने कहा, "अगर ऐसा हुआ और उस वक़्त जब तुम्हें मुझसे मिलना होगा तो इसी पेड़ के नीचे आ जाना। मैं तो शायद नहीं मिलूँ पर मेरे होने का एहसास तुम्हे यहाँ ज़रूर होगा।"

अगले दिन जब मैं उठा तो दादी आँगन में लेटी थीं और उनके चेहरे पर गिलहरी को देखने के बाद वाली मुस्कुराहट थी। चेहरे पर एक अजीब सा सुकून था। पापा से पूछने पर पता चला कि दादी हमें छोड़ के जा चुकी थीं। मुझे सीढ़ी का तेरहवाँ क़दम याद आ गया।

उस शाम मैं दुखी मन से आम के पेड़ के पास गया और दादी की कुर्सी पर बैठ कर दादी को याद करने लग गया। मेरे बैठते ही गिलहरी आ गयी और कुर्सी के चारों ओर घूमने लगी जिसे देखते ही फिर मेरे चेहरे पर मुस्कान आ गयी।


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